जांच करने के लिए समय बढ़ाने की मांग का मामला- MCOCA के तहत रिपोर्ट दायर करने से पहले लोक अभियोजक को स्वतंत्र रूप से अपने दिमाग का उपयोग करना चाहिए, वह कोई डाकिया नहीं हैः बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2020-10-02 04:00 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते कहा है कि महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट (MCOCA) (मकोका अधिनियम) के तहत एक रिपोर्ट दाखिल करने से पहले (90 दिन की अवधि से परे एक मामले में आगे की जांच के लिए समय बढ़ाने की मांग करते हुए) लोक अभियोजक को स्वतंत्र रूप से अपना दिमाग लगाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि कि वह कोई डाकिया या अग्रेषण एजेंसी नहीं है।

औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति आरवी घुगे और न्यायमूर्ति बीवाई देबद्वार की खंडपीठ ने संबंधित विशेष अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसके तहत मकोका अधिनियम की धारा 21 (2) (बी) के तहत दायर जांच अधिकारी के आवेदन को स्वीकार कर लिया था और आरोप पत्र दायर करने की समय सीमा को बढ़ा दिया था। इसके अलावा पीठ ने दस सितम्बर के उस आदेश को भी रद्द कर दिया है, जिसके तहत अभियुक्त की तरफ से डिफॉल्ट जमानत के लिए सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत दायर आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

आरोपी शेख महमूद एक 22 वर्षीय श्रमिक है, जो नांदेड़ का रहने वाला है। उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 394, 397 और आर्म्स एक्ट की धारा 3/25 और मकोका एक्ट की धारा 3 (1) (ii)के तहत अपराध के लिए मामला दर्ज किया गया था। उसे 2 जून, 2020 को गिरफ्तार किया गया था। विशेष पुलिस महानिरीक्षक, नांदेड़ रेंज ने महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट, 1999 के प्रावधानों को उस पर लागू करने की अनुमति दे दी थी और 30 जुलाई, 2020 को मकोका एक्ट की धारा (3) (1)(ii) के तहत प्रावधानों को एफआईआर में जोड़ दिया गया था।

इसके बाद, चार्जशीट दाखिल करने की 90 दिनों की अवधि 31 अगस्त 2020 को समाप्त हो गई। जांच अधिकारी ने 2 सितंबर को, विशेष अदालत में मकोका अधिनियम की धारा 21 (2) (बी) के तहत एक आवेदन दायर किया और चार्जशीट दायर करने के लिए समय बढ़ाने की मांग की। जिसके बाद अभियुक्त की तरफ डिफॉल्ट जमानत के लिए दायर आवेदन को खारिज कर दिया गया और जांच अधिकारी को जांच पूरी करने के लिए अतिरिक्त समय दे दिया गया। अभियुक्त की तरफ से इन्हीं आदेशों को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी।

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता एसएस गंगाखेडकर और अधिवक्ता संदीप मुंडे पेश हुए और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों के आधार पर अपने तर्क पेश किए। उन्होंने तर्क दिया कि जब तक लोक अभियोजक की तरफ से रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती है,तब तक विशेष अदालत को जांच की अवधि बढ़ाने के अनुरोध पर विचार नहीं करना चाहिए। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निम्नलिखित आदेशों का हवाला दिया-

(i) Union of India through C.B.I. v. Nirala Yadav alias Raja Ram Yadav @ Deepak Yadav

(ii) Saquib Abdul Hamid Nachan Vs. State of Maharashtra

(iii) Aslam Babalal Desai Vs. State of Maharashtra,

(iv) Rajnikant Jivanlal and another Versus Intelligence Officer, Narcotic Control Bureau, New Delhi

आरोपी की तरफ से दी गई दलीलों और विभिन्न मामलों में तय किए गए कानूनों की देखने के बाद पीठ ने कहा कि-

''यह स्पष्ट है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लोक अभियोजक की भूमिका को परिभाषित किया है और माना गया है कि लोक अभियोजक को विशेष अदालत को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले, जांच एजेंसी के उस अनुरोध पर स्वतंत्र रूप से विचार करना चाहिए,जिसमें जांच के लिए समय बढ़ाने की मांग की गई हो। वह कोई डाकिया या अग्रेषण एजेंसी नहीं है। यदि वह जांच एजेंसी द्वारा उद्धृत कारणों से सहमत होता है, तो वह विशेष अदालत की सहायता के लिए अपनी स्वतंत्र रिपोर्ट तैयार करे ताकि यह तय किया जा सके कि जांच की समय अवधि को 90 दिनों से अधिक और अधिकतम 180 दिनों तक बढ़ाया जाना चाहिए या नहीं। यदि वह आश्वस्त नहीं है, तो उसे जांच एजेंसी द्वारा उद्धृत कारणों से असहमत होने की स्वतंत्रता है और उसके पास रिपोर्ट को आगे बढ़ाने से इनकार करने की शक्ति है।

सार यह है कि उसे आश्वस्त होना चाहिए कि जांच एजेंसी तेजी से जांच के साथ आगे बढ़ रही है और उचित कारणों के लिए, यह निर्धारित समय सीमा के भीतर जांच को पूरा करने में असमर्थ है। इसलिए, यह इंगित करता है कि जांच की प्रगति के संबंध में सरकारी वकील की संतुष्टि सर्वोपरि है और समय सीमा के भीतर जांच पूरी न होने के कारणों का हवाला दिया जाना कानून में एक बाध्यता है।''

न्यायालय ने उल्लेख किया कि, मकोका एक्ट की धारा 21 (2) (बी) और टेररिस्ट एंड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1987 की धारा 20 (4) (बीबी) व्यावहारिक रूप से समान हैं। इसलिए भी, आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002 की धारा 49 (2) (बी) (जिसने टाडा अधिनियम की जगह ली है) में भी एक समान प्रावधान किया गया है। इस प्रकार, पीठ ने कहा-

''हमारा मानना है कि इन सभी अधिनियमों में विधायिका की मंशा और उद्देश्य एक आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना था और जांच एजेंसी पर समय के भीतर जांच पूरी होने के संबंध में प्रतिबंध लगाए गए हैं। इसलिए कड़ी परिस्थितियों के तहत ही समय सीमा का विस्तार अनुमन्य है।

इसलिए सरकारी वकील की भूमिका ऊपर बताए गए निर्णयों के मद्देनजर बहुत स्पष्ट /महत्वपूर्ण है। इस महत्वपूर्ण भूमिका की पृष्ठभूमि में,जिसे उसे निभाना होता है, हम इस मामले में अभियोजक की तरफ से दायर किए गए उस आवेदन की जांच कर रहे हैं, जिसे ऊपर पैरा 12 में फिर में प्रस्तुत किया गया है।''

इसलिए, अदालत ने कहा कि सरकारी वकील की रिपोर्ट एक स्वतंत्र रिपोर्ट होनी चाहिए जिसमें निम्न तथ्य शामिल होने चाहिए-

(ए) जांच में हुई प्रगति के संबंध में लोक अभियोजक की व्यक्तिगत संतुष्टि को दर्शाने वाले कारण

(बी) जिन कारणों से जांच पूरी नहीं हो सकी और

(सी) जांच के माध्यम से प्राप्त किया जाने वाला वह उद्देश्य,जिसके लिए समय सीमा बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।

इन तथ्यों को लोक अभियोजक की रिपोर्ट का एक हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उसे अपने हस्ताक्षर के तहत विशेष अदालत को उक्त रिपोर्ट सौंपनी चाहिए। यह जांच के लिए समय अवधि बढ़ाने की मांग के लिए दायर किए जाने वाले एक विविध आवेदन के रूप में नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि उनकी रिपोर्ट के अलावा, उन्हें जांच एजेंसी की रिपोर्ट को भी साथ में पेश करना चाहिए ताकि विशेष अदालत को यह समझाया जा सके कि जांच के लिए समय बढ़ाए जाने की जरूरत है।

सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोपी को डिफॉल्ट जमानत का हकदार मानते हुए, न्यायालय ने कहा कि-

"सचिन नामदेव राठौड़ (सुप्रा) के मामले में इस अदालत के एक फैसले में यह तय किया है कि अदालत को जांच के लिए समय दिए जाने संबंधी आदेश पारित करने से पहले अभियुक्त को नोटिस जारी करना चाहिए और उसका पक्ष सुनना चाहिए।

इसलिए, निराला यादव (सुप्रा) में निर्धारित कानून पर भी विचार किया गया। कहा गया कि जब समय बढ़ाने के लिए अनुरोध विशेष अदालत के समक्ष उस समय दायर किया जाता है,जब कानून में जांच के लिए निर्धारित समय सीमा का अंतिम दिन हो और वह अवधि समाप्त होने वाली हो तो ऐेसे में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत अभियुक्त का अधिकार पैदा हो जाता है और यह अधिकार उसे तुरंत मिल जाता है। कानून में ऐसा अधिकार एक अपरिहार्य अधिकार है।''

विशेष कोर्ट के आदेशों को अप्रकट और अनुचित बताते हुए, न्यायालय ने उन्हें खारिज कर दिया है। नतीजतन, अपीलार्थी अभियुक्त डिफॉल्ट जमानत का हकदार बन गया और उसे जमानत दे दी गई।

अंत में ,यह देखते हुए कि विशेष न्यायालयों के समक्ष कई मामलों में पेश होने वाले सरकारी वकील रिपोर्ट दायर करने के संबंध में तय कानून की स्थिति से अनभिज्ञ होते हैं, न्यायालय ने रजिस्ट्रार (न्यायिक) को निर्देश दिया है कि वह इस आदेश की काॅपी महाराष्ट्र राज्य के मुख्य सचिव, राज्य के पुलिस महानिदेशक और अभियोजन पक्ष के निदेशक के समक्ष पेश करें ताकि यह लोक अभियोजकों को यह निर्देश जारी कर सकें कि ''जांच के लिए समय बढ़ाए जाने की मांग करते समय वह कानून की तय स्थिति का पालन करते हुए अपनी रिपोर्ट भी कोर्ट के समक्ष दायर करें,जिसमें समय बढ़ाए जाने के कारणों का भी उल्लेख होना चाहिए।''

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