'जेल सेवा सामान्य सेवा जैसी नहीं हो सकती',कलकत्ता हाईकोर्ट ने कहा कैदियों पर नहीं लागू होगा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम
कलकत्ता हाईकोर्ट ने गुरुवार को कहा कि पश्चिम बंगाल राज्य में कैदियों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के प्रावधानों और न्यूनतम मजदूरी के रूप में उचित सरकार की ओर से ऐसे प्रावधानों के तहत तय की गई दरों से शासित ना किया जाए।
सिंगल जज की बेंच ने कहा, "कारागार सेवा की, कैद के बाहर की सामान्य सेवा से तुलना नहीं की जा सकती है। कारागर सेवा में, सामान्य सेवा की तुलना में कुछ विशिष्ट विशेषताएं हैं, जिन्हें समझा गया है।,"
इन अंतरों की व्याख्या करते हुए जज ने कहा कि पहले, जेल सेवा, अगर कठोर कारावास के तहत है, यह न केवल कैदी के लिए अनिवार्य है, बल्कि अनिवार्य रूप से अधिकारियों द्वारा प्रदान किया जाना है। इसलिए, यह अधिकारियों की सुविधा या आवश्यकता नहीं है, जो इस प्रकार की सेवा के निर्माण को उत्साहित करती है, जिस स्थिति में सेवा आवश्यक रूप से नियोक्ता पर डाले गए पारस्परिक कर्तव्य से जुड़ी होगी, कर्मचारी को क्षेत्र के सामान्य कानून, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, के अनुसार पारिश्रमिक देना होगा। रोजगार नियोक्ता द्वारा अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्रयोग किया जाने वाला एक विकल्प नहीं है, बल्कि कानून के तहत अनिवार्य है।
चूंकि नियोक्ता और कर्मचारी, दोनों वैधानिक रूप से इस तरह के काम प्रदान करने और करने के लिए बाध्य किए जाते हैं, कर्मचारी का अधिकार और संबंधित नियोक्ता पर डाला गया कर्तव्य साधारण रोजगार के समान नहीं हो सकते हैं। यहां तक कि साधारण कैदी, कठोर कारवास प्राप्त कैदी के विपरीत, के पास कारावास में काम का चयन करने का विकल्प है; यदि वह चुनता है तो जेल प्राधिकरण/नियोक्ता इस तरह के काम को प्रदान करने के लिए बाध्य हैं और इस तरह के अनुरोध को अस्वीकार करने का कोई विकल्प नहीं है, तब भी जब कानून ऐसे कार्य को कारावास के आवश्यक परिणाम के रूप में अनिवार्य नहीं करता है।
इस प्रकार, साधारण कारावास के मामलों में, अधिकार असंतुलित हो जाते हैं, कर्मचारी के पास काम करने या न करने का विकल्प होता है, लेकिन नियोक्ता काम प्रदान करने के लिए वैधानिक रूप से मजबूर होता है....। जेल सेवा से जुड़े नियोक्ता की मजबूरी, अन्य रोजगार के विपरीत, कुछ हद तक नियोक्ता की सौदेबाजी की शक्ति को नकारता है, परिणामस्वरूप, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के तहत कर्मचारियों के लिए निर्धारित मजदूरी की न्यूनतम दरों का भुगतान करने के लिए नियोक्ताओं के दायित्व को कम करता है...।
जजमेंट में कहा गया है कि, दूसरा मुद्दा यह है कि, चूंकि पश्चिम बंगाल सुधार सेवा अधिनियम, 1992, के रूप में, पश्चिम बंगाल में जेल सेवा की घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए एक विशेष कानून है, जिसके तहत कैदियों के पारिश्रमिक और काम के घंटे आदि तय होते हैं। यह कानून जेल सेवा के मामलों में सामान्य सेवा कानून को अधिरोहित करता है। जैसा कि, वर्तमान मामले में है, राज्य सरकार की ओर से कानून के अनुसार, जेल में मजदूरी, सेवा शर्तों आदि की दरों के निर्धारण के लिए समय-समय पर समितियों का विधिवत गठन किया गया थ, जिन्होंने पहले ही कानून के अनुसार इस तरह के नियम बनाए हैं।
"तीसरा, कैदियों को भोजन, आश्रय, चिकित्सा सुविधाएं, सुरक्षा, आदि के साथ-साथ कई सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इस प्रकार, मजदूरी की उचित दर प्रदान करना पर्याप्त रूप से उचित है, जैसा कि वैधानिक समितियों द्वारा तय किया जाता है.....।
अदालत ने इस बात पर विचार किया कि जेल अधिकारियों को कैदियों को दक्षतानुसार कुशलत, अकुशल और/या अन्य श्रेणियों के तहत वर्गीकृत करना पड़ता है, ताकि कैदियों की योग्यता और कौशल अनुसार उन्हें काम सौंपा जा सके। इसलिए, कैदियों को काम पाने के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ती है, जैसा कि बाहर की नौकरियों के मामले में है। कैदियों के काम के घंटे भी समान्या कर्मचारियों से कम हो सकते हैं।
कोर्ट ने कहा कि, हालांकि मजदूरी शब्द को 1992 अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है, धारा 55 और 56 के तहत मजदूरी की दर और कैदियों के काम के घंटों के संबंध में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है।
कोर्ट ने कहा कि यह तर्क कि जेल सेवा की प्रकृति दंडनीय है, कैदियों को उनके हक से कम भुगतान को औचित्य नहीं देता है। उन्हें दोहरी सजा नहीं दी जा सकती है, एक कारावास के रूप में और दूसरी कम मजूदरी के रूप में।
अदालत ने एमडब्ल्यू एक्ट के तहत जेल सेवा पर लागू होने वाली दरों की प्रयोज्यता का नकारात्मक जवाब दिया ।
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