किसी विशेष जाति से जुड़े पूर्वाग्रहों से बचने के लिए उपनाम बदलने की अनुमति, जीवन के अधिकार में 'पहचान का अधिकार' शामिल: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि पहचान का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का एक स्वाभाविक हिस्सा है। कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति को यह अनुमति है कि वह अपने सरनेम को बदल ले ताकि वह किस विशेष जाति के साथ न पहचाना जा सके, जो उसके लिए पूर्वाग्रह का कारण हो सकती है। कोर्ट ने कहा इस बदलाव से आरक्षण या अन्य कोई कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा, जो अपनाई गई जाति/उपनाम के लिए उपलब्ध हो सकता है।
जस्टिस मिनी पुष्करणा ने कहा,
“पहचान का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक आंतरिक हिस्सा है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है, जिसमें किसी भी जातिवाद से बंधा नहीं होना शामिल है, जिसका सामना किसी व्यक्ति को उस जाति के कारण करना पड़ सकता है, जिससे वह संबंधित है। इस प्रकार, यदि कोई व्यक्ति अपना उपनाम बदलना चाहता है, ताकि किसी विशेष जाति के साथ उसकी पहचान न हो, जो किसी भी तरह से ऐसे व्यक्ति के लिए पूर्वाग्रह का कारण हो सकता है, तो इसकी अनुमति है।"
अदालत केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा 01 जून, 2017 को जारी किए गए उस पत्र को चुनौती देने वाली दो भाइयों की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें 10वीं और 12वीं बोर्ड के प्रमाणपत्रों में उनके पिता का उपनाम बदलने से इनकार किया गया था।
सीबीएसई द्वारा जारी कक्षा 10वीं और 12वीं के प्रमाणपत्रों में उनके पिता का नाम "लक्ष्मण मोची" लिखा हुआ था। उनका मामला था कि उनके पिता ने अपने उपनाम को "मोची" से "नायक" में बदलने का फैसला किया, क्योंकि उन्हें दिन-प्रतिदिन जातिगत दुराग्रहों का सामना करना पड़ा और उन्होंने भविष्य के सभी उद्देश्यों के लिए अपना नाम बदलने के बारे में समाचार पत्र में एक नोट प्रकाशित किया।
अदालत को अवगत कराया गया कि भारत के राजपत्र में प्रकाशन के माध्यम से उसका नाम "लक्ष्मण मोची" से बदलकर "लक्ष्मण नायक" कर दिया गया था।
दूसरी ओर, सीबीएसई की ओर से पेश वकील ने कहा कि भाइयों के सरनेम में बदलाव से उनकी जाति में बदलाव आएगा जिसका दुरुपयोग किया जा सकता है। आगे यह तर्क दिया गया कि भाई अपने पिता के नाम को बदलने की मांग कर रहे थे जो कि स्कूल के रिकॉर्ड से परे था और इस प्रकार यह अस्वीकार्य था।
भाइयों को राहत देते हुए, अदालत ने पाया कि सीबीएसई द्वारा उनके प्रमाणपत्रों में आवश्यक परिवर्तन करने से इनकार करना पूरी तरह से अनुचित था।
"यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि याचिकाकर्ताओं को एक पहचान रखने का पूरा अधिकार है जो उन्हें समाज में एक सम्मानजनक पहचान देता है। यदि याचिकाकर्ताओं को उनके उपनाम के कारण कोई नुकसान हुआ है और इसके कारण सामाजिक पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ा है, तो वे निश्चित रूप से अपनी पहचान बदलने के हकदार हैं जो सामाजिक ढांचे में याचिकाकर्ताओं को सम्मान प्रदान करता है।
यह नोट किया गया कि पिता ने राजपत्र अधिसूचना में प्रकाशन के माध्यम से पहले ही अपने उपनाम में परिवर्तन कर लिया था और सरकारी एजेंसियों द्वारा जारी किए गए विभिन्न सार्वजनिक दस्तावेजों में नया उपनाम विधिवत परिलक्षित था।
इसलिए, याचिकाकर्ताओं के पक्ष में जारी किए गए 10वीं और 12वीं के सीबीएसई प्रमाणपत्रों में उनके पिता के सही नाम को दर्शाने के लिए इसी तरह के बदलाव की अनुमति नहीं देने का कोई औचित्य नहीं है।
विवादित पत्र को खारिज करते हुए, अदालत ने सीबीएसई को याचिकाकर्ता भाइयों के 10वीं और 12वीं के प्रमाणपत्रों में उनके पिता के बदले हुए नाम को प्रतिबिंबित करने के लिए आवश्यक परिवर्तन करने का निर्देश दिया।
हालांकि, इसने स्पष्ट किया कि सीबीएसई प्रमाणपत्रों में उपनाम में परिवर्तन केवल उनके पिता के नाम में परिवर्तन के लिए होगा न कि उनके लिए किसी आरक्षण या परिवर्तित जाति या उपनाम के लिए उपलब्ध अन्य लाभ का लाभ लेने के लिए.....।
केस टाइटल: सदानंद और अन्य बनाम केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और अन्य।
आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें