''अभियुक्त की उम्र बढ़ने के बाद किया गया ऑसिफिकेशन टेस्ट,यह निर्धारित करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकता है कि वह घटना के समय नाबालिग था'': इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2021-07-02 15:00 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि आरोपी या दोषी की उम्र बढ़ने के बाद देर से किया गया ऑसिफिकेशन टेस्ट इस बात को निर्धारित करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकता है कि वह घटना के समय नाबालिग था।

किशोर न्याय बोर्ड द्वारा पारित आयु निर्धारण के आदेश को रद्द करते हुए, न्यायमूर्ति प्रदीप कुमार श्रीवास्तव और न्यायमूर्ति सुनीता अग्रवाल की खंडपीठ ने कहा किः

''आरोपी/दोषी की उम्र बढ़ने के बाद देरी से किया गया ऑसिफिकेशन टेस्ट घटना की तारीख पर उसे किशोर के रूप में निर्धारित करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकता है, क्योंकि रेडियोलॉजिकल जांच द्वारा पेश किए गए साक्ष्य निस्संदेह व्यक्ति की उम्र को निर्धारित करने के लिए एक उपयोगी मार्गदर्शक कारक है, परंतु निर्णायक और निर्विवाद प्रकृति के नहीं है और यह त्रुटि के एक मार्जिन के अधीन होते हैं।''

एक हैबियस कार्पस याचिका दायर कर जिला जेल आगरा से किरणपाल को रिहा करने की मांग की गई थी। इस याचिका में उसकी हिरासत को आर्टिकल 21 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी गई थी। जिसके बाद कोर्ट ने यह टिप्पणी की है।

किरणपाल को दोषी ठहराने के बाद भारतीय दंड संहिता की धारा 302 रिड विद 149 के तहत उम्रकैद,धारा 307 रिड विद 149 के तहत सात साल सश्रम कारावास और धारा 323 रिड विद 149 के तहत छह महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।

यह कहा गया था कि किशोर न्याय बोर्ड द्वारा 19 सितंबर 2018 को पारित आदेश के तहत उसे घटना की तारीख पर 17 साल, 9 महीने और 25 दिन का पाए जाने के बाद नाबालिग घोषित किया गया था। उपरोक्त आदेश को चुनौती नहीं दी गई थी और इसलिए इसे अंतिम रूप दिया गया था।

न्यायालय ने किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की धारा 7ए का विश्लेषण किया, जो अदालत को घटना की तारीख पर आरोपी की उम्र के संबंध में जांच करने के लिए बाध्य करती है।

कोर्ट ने कहा कि,

''उक्त प्रावधान को पढ़ने से, यह स्पष्ट है कि यह प्रावधान कहता है कि जब किसी व्यक्ति को न्यायालय (किशोर न्याय बोर्ड) के समक्ष लाया जाता है, तो न्यायालय उस व्यक्ति की उम्र का पता लगाने के लिए बाध्य होता है और जांच के उद्देश्य से, बोर्ड ऐसे साक्ष्यों पर विचार करे, जो आवश्यक हों और फिर यह निष्कर्ष दर्ज करें कि वह व्यक्ति किशोर है या बच्चा है या नहीं, उसकी लगभग उम्र दर्ज की जा सकती है। किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के तहत बनाए गए रूल्स 2007 के नियम 12 के तहत, बोर्ड को उम्र के निर्धारण के लिए साक्ष्य मंगवाने का आदेश दिया गया है।''

इस प्रकार न्यायालय की राय थी कि एक बार जांच शुरू हो जाने के बाद, किशोर होने का दावा करने वाले व्यक्ति की आयु का पता लगाने के लिए न्यायालय के समक्ष लाए गए साक्ष्यों की सराहना की जानी चाहिए।

कोर्ट ने कहा कि,''किशोरावस्था के दावे में विश्वसनीयता की कमी या किशोरावस्था का तुच्छ दावा या स्पष्ट रूप से बेतुका या किशोरावस्था के स्वाभाविक रूप से अनुचित दावे को खारिज कर दिया जाना चाहिए।''

मामले के तथ्यों पर आते हुए, न्यायालय का विचार था कि किशोर न्याय बोर्ड के निर्देश पर प्रस्तुत मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार, याचिकाकर्ता की आयु का निर्धारण ''ऊपरी आयु सीमा में दो साल की भिन्नता'' मानते हुए किया गया था। रिपोर्ट में याचिकाकर्ता की शारीरिक विशेषताओं का भी आकलन किया गया था ताकि उसके शारीरिक और दंत विकास का पता लगाया जा सके।

उक्त मेडिकल रिपोर्ट को देखते हुए, न्यायालय ने कहा किः

''याचिकाकर्ता के बड़े भाई-बहनों की उम्र और उनकी उम्र में अंतर से संबंध में बोर्ड द्वारा उसकी मां से पूछे गए प्रश्न व उनके उत्तर, याचिकाकर्ता की अनुमानित उम्र के संबंध में कुछ प्रकाश डाल सकते थे। जांच का निर्देश देने में उदार होना एक अलग बात है, लेकिन उम्र के निर्धारण के चरण में, रिकॉर्ड पर आए साक्ष्यों की उचित सराहना पर निर्णय लेना होता है, न कि राय और कल्पनाओं पर।''

कोर्ट ने यह भी कहा कि,''इसमें कोई संदेह नहीं है कि आयु निर्धारण के लिए प्रमाण का मानक संभाव्यता की डिग्री है और संदेह से परे प्रमाण नहीं है। लेकिन किसी दिए गए मामले में उम्र का निर्धारण परोपकारी कानून,किशोर न्याय अधिनियम के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए ताकि उन सभी व्यक्तियों को अधिनियम का लाभ दिया जा सके, जो अपराध करने की तारीख पर नाबालिग थे ,परंतु जो लोग नाबालिग होने का बहाना बनाने के लिए ऐसी दलील दे रहे हैं उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए।''

यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता की उम्र के निर्धारण के लिए तत्काल मामले में किशोर न्याय अधिनियम के उद्देश्य का पालन नहीं किया गया है, अदालत ने कहा कि ''याचिकाकर्ता का ऑसिफिकेशन टेस्ट/रेडियोलॉजिकल परीक्षण पूरा नहीं हुआ है। किशोर न्याय बोर्ड ने एक रेडियोलॉजिकल रिपोर्ट को ऑसिफिकेशन टेस्ट के रूप में मानकर और सिर्फ उसी रिपोर्ट के आधार पर याचिकाकर्ता/आवेदक की आयु का निर्धारण करके कानूनन एक गंभीर त्रुटि की है।''

कोर्ट ने हैबियस कार्पस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि,

''याचिकाकर्ता को रिहा करने के लिए तत्काल मामले में हैबियस कार्पस रिट जारी नहीं की जा सकती है क्योंकि जिला जेल, आगरा में उसकी हिरासत को अवैध नहीं कहा जा सकता है। याचिकाकर्ता (जेल में कैदी) के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का कोई अन्य उदाहरण हमारे सामने नहीं रखा गया है। किशोर न्याय बोर्ड, बुलंदशहर द्वारा पारित याचिकाकर्ता की उम्र के निर्धारण का आदेश कानून की नजर में उचित नहीं है।''

केस का शीर्षक-किरणपाल उर्फ किन्ना बनाम यूपी राज्य व दो अन्य

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