थाना प्रभारी की अनुमति के बिना किसी को मौखिक रूप से थाने नहीं बुलाया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ खंडपीठ) ने हाल ही में उत्तर प्रदेश राज्य और पुलिस समेत अन्य शासन तंत्रों को जारी एक महत्वपूर्ण निर्देश में कहा कि किसी भी व्यक्ति को, जिसमें एक आरोपी भी शामिल है, थाना प्रभारी की सहमति/अनुमोदन के बिना अधीनस्थ पुलिस अधिकारी मौखिक रूप से पुलिस थाने में समन नहीं कर सकते।
जस्टिस अरविंद कुमार मिश्रा- I और जस्टिस मनीष माथुर की खंडपीठ ने अधिकारियों को निर्देश दिया,
"यदि किसी पुलिस स्टेशन में कोई आवेदन या शिकायत दी जाती है, जिसमें जांच और आरोपी की उपस्थिति की आवश्यकता होती है तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत निर्धारित कार्रवाई का पालन किया जाना चाहिए, जिसमें ऐसे व्यक्ति को लिखित नोटिस भेजे जाने पर विचार किया गया है, हालांकि यह भी मामला दर्ज होने के बाद ही किया जा सकता है।"
पीठ ने ये निर्देश जारी करते हुए जोर देकर कहा कि किसी भी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा को केवल पुलिस अधिकारियों के मौखिक आदेश पर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है।
पृष्ठभूमि
हाईकोर्ट के समक्ष एक पत्र याचिका दायर की गई थी, जिसमें एक लड़की (सरोजनी) ने आरोप लगाया था कि उसके माता-पिता (रामविलास और सावित्री) को पुलिस स्टेशन- महिला थाना, लखनऊ बुलाया गया था, जहां से वे वापस नहीं लौटे।
याचिका को बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में माना गया और 8 अप्रैल, 2022 को सुनवाई हुई, जिसमें एजीए राज्य की ओर से अदालत के समक्ष कहा गया कि पुलिस स्टेशन में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी।
सुनवाई की अगली तारीख (13 अप्रैल) को याचिकाकर्ता सावित्री, रामविलास और उनकी बेटी अदालत के समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने बताया कि कुछ पुलिस कर्मियों ने उन्हें पुलिस स्टेशन बुलाया था। जब वे पुलिस स्टेशन गए तो उन्हें हिरासत में ले लिया गया और धमकी दी गई।
उसी दिन संबंधित थाने के इंस्पेक्टर ने कोर्ट को बताया कि पैतृक संपत्ति के बंटवारे को लेकर हुए विवाद के सिलसिले में याचिकाकर्ता 8 अप्रैल को दोपहर करीब 12 बजे थाने आया था और बयान दर्ज कराने के बाद उसे उसी दिन लगभग 3.30 बजे पुलिस थाने से जाने की अनुमति दे दी गई थी।
हालांकि याचिकाकर्ता ने मामले में बिना शर्त माफी की मांग की और प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ताओं को अपमानित करने या परेशान करने का जानबूझकर प्रयास नहीं किया गया। एक कांस्टेबल ने कदाचार किया अन्यथा पुलिस की ओर से याचिकाकर्ताओं के साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया गया।
इस पृष्ठभूमि में कोर्ट ने कहा,
"ऐसे मामले में हम विचार-विमर्श के बाद बिना किसी हिचकिचाहट के कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिसकर्मियों में से कोई है जो विशेष लाभ प्राप्त करने के लिए अपने आपको खतरे में डालता है और स्थिति का लाभ उठाता है, जिससे निजी पार्टियों और पुलिस प्रणाली की कार्यकुशलता को कमजोर करता है। संबंधित पुलिस अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य कि वे शुरुआत में ही ऐसी शरारतों को रोकें। कानून के समर्थन के बिना राज्य या उसके उपकरणों द्वारा किसी नागरिक को हिरासत में नहीं लेना या उसे प्रतिबंधित न करना मौलिक अधिकार है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(डी), 21 और 22 में कहा गया है।"
कोर्ट ने आवाजाही की स्वतंत्रता, जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता के अधिकार समेत संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 आदि पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों का उल्लेख किया।
कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान के भाग (III) में परिकल्पित गारंटियों को केवल भाग (III) में शामिल अनुच्छेदों के प्रावधानों के अनुसार ही प्रतिबंधित या नियंत्रित किया जा सकता है। न्यायालय ने रेखांकित किया कि आवाजाही का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अनिवार्य तत्व है और जेल या पुलिस थाने में नजरबंदी उस स्वतंत्रता पर कठोर आक्रमण है।
मौजूदा मामले के तथ्यों के मद्देनजर कोर्ट ने जोर देकर कहा कि भारत के संविधान या सीआरपीसी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो एक पुलिस अधिकारी को एफआईआर दर्ज किए बिना भी व्यक्ति को समन करने और हिरासत में लेने का प्रावधान करता है और वह भी मौखिक रूप से।
कोर्ट ने यहां तक कहा कि पुलिस कर्मियों द्वारा इस तरह की किसी भी कार्रवाई को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जैसा कि अनुच्छेद 21 के तहत परिकल्पित है और इसका मतलब है कि एक प्रक्रिया जो निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित है, उसका पालन किया जाना आवश्यक है।
पूर्वोक्त को देखते हुए, कोर्ट ने राज्य और उसकी संस्थाओं को निम्नलिखित निर्देश जारी किए-
- यदि किसी पुलिस थाने में कोई आवेदन या शिकायत दी जाती है जिसमें जांच और आरोपी की उपस्थिति की आवश्यकता होती है तो दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत निर्धारित कार्रवाई की उपयुक्त प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए जो ऐसे व्यक्ति को लिखित नोटिस पर विचार करता है लेकिन वह भी मामला दर्ज होने के बाद ही।
- यदि उस समय कोई जांच अधिकारी नहीं है, तो अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों को ऐसा नोटिस या समन जारी करने से पहले थाना प्रभारी की अनुमति/अनुमोदन लेना आवश्यक है।
- थाना प्रभारी की सहमति/अनुमोदन के बिना किसी आरोपी या किसी अन्य व्यक्ति को अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों द्वारा मौखिक रूप से पुलिस थाने में नहीं बुलाया जा सकता है।
उपरोक्त टिप्पणियों के साथ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का निपटारा कर दिया गया।
केस शीर्षक- राम विलास, बेटी सरोजनी के माध्यम से और एक अन्य बनाम यूपी राज्य, प्रिंसिपल सेक्रेटरी होम और अन्य के माध्यम से [HABEAS CORPUS WRIT PETITION No. - 80 of 2022]
केस सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 227