मुंबई विस्फोट: बरी हुए व्यक्ति ने 9 साल की गलत कैद के लिए मांगा ₹9 करोड़ का मुआवज़ा
2006 के मुंबई सीरियल बम विस्फोट मामले (7/11 मुंबई विस्फोट मामले) से बरी होने के एक दशक बाद वाहिद शेख ने अब अपने 9 साल के कारावास और विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में हुए अत्याचारों और यातनाओं के लिए 9 करोड़ रुपये की मांग की।
वाहिद शेख ने कहा कि उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC), महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग (MSHRC), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NMC) और महाराष्ट्र राज्य अल्पसंख्यक आयोग (MSMC) में याचिका दायर की।
शेख ने एक्स (जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) पर जारी एक प्रेस नोट में कहा कि उन्हें गलत कैद में बिताए गए नौ साल और हिरासत में हुई यातनाओं के लिए 9 करोड़ रुपये का आर्थिक मुआवज़ा दिया जाना चाहिए।
अपने नोट में शेख ने बताया कि 2006 में जब वह 28 साल के थे, तब महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधी दस्ते (ATS) ने उन्हें महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) के तहत "झूठा फंसाया"।
शेख ने कहा,
"मैं नौ साल तक जेल में रहा, जब तक कि 11 सितंबर 2015 को स्पेशल कोर्ट ने मुझे सभी आरोपों से बरी नहीं कर दिया। मुझे मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। मैं जेल से बाहर आ गया, लेकिन जो साल मैंने गंवाए, जो अपमान मैंने झेला और जो दर्द मेरे परिवार ने सहा, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। मैंने अपनी जवानी के सबसे महत्वपूर्ण साल, अपनी आज़ादी और अपनी गरिमा खो दी।"
अपने नोट में शेख ने कहा कि हिरासत में उन्हें बेरहमी से प्रताड़ित किया गया, जिसके कारण उन्हें ग्लूकोमा और शरीर में लगातार दर्द जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हो गईं। उन्होंने आगे बताया कि जेल में रहते हुए उनके पिता की मृत्यु हो गई, उनकी माँ का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ गया और उनकी पत्नी को अपने बच्चों को पालने के लिए अकेले संघर्ष करना पड़ा।
नोट में लिखा गया,
"मेरे बच्चे आतंकवादी कहलाने के कलंक के साथ बड़े हुए और अपने बचपन में अपने पिता के सानिध्य से वंचित रहे। मेरे परिवार को भारी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। मैं आज भी लगभग 30 लाख रुपये के कर्ज में डूबा हुआ हूं। मेरा करियर और शिक्षा बर्बाद हो गई। रिहाई के बाद मुझे अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना पड़ा, एक स्कूल शिक्षक के रूप में काम करते हुए भी मुझ पर गलत ब्रांडिंग का कलंक अभी भी लगा हुआ है।"
नोट में आगे कहा गया कि शेख के बरी होने के बाद राज्य के पास कोई सबूत नहीं है, जिसके आधार पर वह फैसले को चुनौती दे सके। इसी वजह से उसके बरी होने के एक दशक बाद भी राज्य के खिलाफ कभी अपील नहीं की गई।
नोट में कहा गया,
"फिर भी मैंने 10 साल तक मुआवज़ा नहीं मांगा। नैतिक कारण यह है कि मेरे सह-आरोपियों को दोषी ठहराया गया। उन्हें मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। जब वे अभी भी सलाखों के पीछे सड़ रहे थे, तब मुआवज़ा मांगना मेरे लिए सुखद नहीं था। मुझे डर था कि राज्य उनके प्रति और भी क्रूर हो सकता था। मेरे मुआवज़े के दावे का बदला ले सकता था। मैंने तब तक इंतज़ार करने का फैसला किया, जब तक मेरे सभी सह-आरोपियों को बरी नहीं कर दिया जाता और वे निर्दोष साबित नहीं हो जाते। अब जब ये बरी हो गए तो यह स्पष्ट है कि पूरा मामला एक जालसाजी था। इसलिए मुआवज़े की मेरी मांग और भी जायज़ और ज़रूरी हो जाती है। इस मोड़ पर मेरा मानना है कि अपने लिए न्याय मांगना पूरी तरह से उचित है।"
बॉम्बे हाईकोर्ट ने 12 अन्य आरोपियों को बरी करते हुए अपने फैसले में कहा कि उनसे कबूलनामा करवाने के लिए हिरासत में यातनाएं दी गईं।