सुधार असंभव होने पर ही आजीवन कारावास की सजा अपर्याप्त: कलकत्ता हाईकोर्ट ने नाबालिग के बलात्कार और हत्या के दोषियों को मौत की सजा देने से इनकार किया
कलकत्ता हाईकोर्ट ने 2004 में एक नाबालिग लड़की के बलात्कार और हत्या के लिए आईपीसी की धारा 302 और 376 (2) (जी) के तहत चार लोगों की सजा को बरकरार रखा है।
जस्टिस जॉयमाल्या बागची और जस्टिस गौरांग कंठ की पीठ ने हालांकि मौत की सज़ा देने से इनकार करते हुए बचन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया और कहा,
"यह सच है कि अपीलकर्ताओं ने एक नाबालिग बच्चे के साथ बलात्कार और हत्या का सबसे क्रूर कृत्य किया है। यह अपराध जघन्य है और समाज द्वारा इसकी कड़ी निंदा की जानी चाहिए। हालांकि अपराध की प्रकृति और गंभीरता ही एकमात्र मानदंड नहीं है जिस पर मृत्युदंड देना निर्भर करता है... न्यायालय को अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट करना चाहिए कि दोषी के सुधार और पुनर्वास की संभावना पूरी तरह से खारिज कर दी गई है और इस प्रकार आजीवन कारावास की सजा अपर्याप्त है। हमारे सामने रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। सभी रिपोर्ट से पता चलता है कि जेल में उनका आचरण संतोषजनक है। इन परिस्थितियों में 17 वर्ष बीत जाने के बाद अदालत को अपीलकर्ताओं की आजीवन कारावास की सजा को मौत की सजा तक बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं दिखता।"
मामले की पृष्ठभूमि
7 जनवरी 2004 को जब एक स्थानीय पुलिसकर्मी गश्त ड्यूटी पर था तो उसे एक स्टील फैक्ट्री में एक नाबालिग लड़की का निर्जीव शरीर मिला, जिसके चेहरे पर चोटें थीं और उसकी गर्दन के चारों ओर एक सफेद दुपट्टा बंधा हुआ था। पुलिसकर्मी ने अपनी ड्यूटी पर इसकी सूचना दी, जिसके बाद एफआईआर दर्ज हुई।।
अपराध स्थल से इस्तेमाल किए गए जूते और शर्ट से फटे हुए बटन सहित कई सामान जब्त किए गए। पीड़िता की मेडिकल जांच से पता चला कि उसके साथ दुष्कर्म कर हत्या की गई है। इसके बाद जब लड़की के माता-पिता 9 जनवरी को पुलिस के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा कि उनकी बेटी 4 जनवरी से लापता है।
आगे के फोरेंसिक परीक्षणों से पता चला कि अपराध स्थल से मिले सबूत जैसे कि बटन और जूते, साथ ही पीड़ित के शरीर से मिले वीर्य के धब्बे अपीलकर्ताओं से मेल खाते हैं।
पुलिस ने जांच में पाया कि नाबालिग की हत्या से पहले अपीलकर्ताने उसके पिता घर गए थे और शराब खरीदने के लिए रुपए की मांग की थी। जब उन्हें इससे इनकार किया गया तो उन्होंने उसके पिता के साथ मारपीट की और बाद में एक एफआईएआर दर्ज की गई।
ट्रायल में अपीलकर्ताओं ने खुद को दोषी नहीं माना और झूठे आरोप लगाने की शिकायत की, लेकिन ट्रायल जज ने दोषसिद्धि की सजा सुनाई और 2007 में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
साल 2007 में वर्तमान अपील को स्वीकार करते समय हाईकोर्ट की एक समन्वय पीठ ने अपीलकर्ताओं के खिलाफ संज्ञान लेते हुए उन्हें कारण बताने का निर्देश दिया था कि उन्हें मौत की सजा क्यों नहीं दी जानी चाहिए।
हाईकोर्ट के समक्ष कार्यवाही
अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि उनका अपराध उचित संदेह से परे साबित नहीं हुआ है और पीड़िता 4 जनवरी को लापता हो गई थी , लेकिन 9 जनवरी को माता-पिता के पुलिस स्टेशन में आने तक कोई गुमशुदगी की शिकायत दर्ज नहीं की गई थी।
यह तर्क दिया गया कि स्टील फैक्ट्री से पीड़ित की लाश की बरामदगी भी अप्राकृतिक थी, क्योंकि एक गश्ती अधिकारी के लिए अपने नियमित गश्त के दौरान एक स्टील फैक्ट्री में प्रवेश करने का कोई स्पष्टीकरण नहीं था।
अपीलकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं को अपराध स्थल से जोड़ने वाले विभिन्न सबूत तलाशी के दौरान गढ़े गए थे और इन सबूत पर विश्वास करके हत्या का मकसद साबित करना बहुत मुश्किल है।
दूसरी ओर, राज्य ने तर्क दिया कि मकसद साबित हो गया है, क्योंकि अपीलकर्ता पहले शराब खरीदने के लिए पैसे के लिए पीड़ित के पिता के पास आए और इनकार करने पर उसके साथ मारपीट की थी।
यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ताओं के नाबालिग के साथ स्टील फैक्ट्री इमारत में आने के प्रत्यक्षदर्शी गवाह थे और जांच के दौरान अपराध स्थल से बरामद किए गए सभी सबूतों की अपीलकर्ताओं के सामान से पुष्टि हुई थी।
कोर्ट ने दलीलें सुनने के बाद नाबालिग के लापता होने की परिस्थितियों पर गौर किया। ज्ञात हुआ कि 4 जनवरी को पीड़िता की मां ने उसे स्थानीय पोलियो शिविर में ले जाने की सूचना दी थी, जहां उसे दो सीटियां दी गईं, जो बाद में उसके शव के पास से बरामद की गईं।
कोर्ट ने अपीलकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि पीड़िता के माता-पिता द्वारा लापता होने की सूचना देने में देरी "अभियोजन मामले की जड़ पर प्रहार" है। अदालत ने कहा कि चूंकि पीड़िता को अपने माता-पिता को सूचित किए बिना, पास में ही अपनी दादी के घर जाने की आदत थी, इसलिए वे बच्ची की अनुपस्थिति से तुरंत चिंतित नहीं हुए।
अदालत ने कहा कि जब माता-पिता ने कुछ दिनों के बाद उसकी तलाश शुरू की तो वे स्थानीय पुलिस स्टेशन गए और सीमित साधनों वाले अनपढ़ व्यक्ति होने के कारण, उनके आचरण को उपरोक्त परिस्थितियों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए, जिसके कारण शिकायत दर्ज कराने में देरी हुई। इस प्रकार गुमशुदगी की शिकायत में देरी से अभियोजन मामले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
चश्मदीदों ने अपीलकर्ताओं को नाबालिग को उस इमारत में ले जाते हुए देखा था, जहां से बाद में उसका शव बरामद किया गया। अदालत ने चश्मदीदों की विश्वसनीयता पर गौर करते हुए कहा कि मेडिकल रिपोर्ट से साबित हुआ है कि पीड़िता को "यौन अंगों" के साथ-साथ उसके सिर पर भी गंभीर चोटें आई थीं। एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा हिंसा करने के परिणामस्वरूप फोरेंसिक परीक्षण के दौरान अपीलकर्ताओं में से एक का वीर्य उसके शरीर पर पाया गया।
अदालत ने नाबालिग के पिता द्वारा अपीलकर्ताओं के खिलाफ दायर की गई पहले की एफआईआर पर ध्यान दिया, जिन्होंने शराब के लिए पैसे देने से इनकार करने पर उन पर हमला किया था और माना कि अपराध करने का मकसद स्पष्ट रूप से साबित हो गया, क्योंकि वे “क्रूर अपराध करने के लिए द्वेष रखते थे।”
तदनुसार अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि और उनकी आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा गया। हालांकि न्यायालय ने 2007 में एक समन्वय पीठ द्वारा स्वत: संज्ञान नियम का निपटारा करते हुए अपीलकर्ताओं को मृत्युदंड देने से इनकार कर दिया।