फ्लैट खरीदारों को कब्जे के लिए अनिश्चित काल तक इंतजार नहीं कराया जा सकताः एनसीडीआरसी
एनसीडीआरसी की एक पीठ ने कहा है कि विरोधी पक्ष ने यह साबित करने के लिए कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिया है कि शिकायतकर्ता उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (d) के दायरे में 'उपभोक्ता' नहीं हैं।
उन्होंने केवल इस तथ्य पर भरोसा किया हे कि उन्होंने छूट के बदले एक ही किश्त में 50% राशि का भुगतान किया। पीठ में पीठासीन सदस्य के रूप में जस्टिस दीपा शर्मा और सदस्य के रूप में सुभाष चंद्रा शामिल थे।
आयोग ने कहा कि केवल यह तर्क कि शिकायतकर्ताओं ने छूट के लिए 50% राशि का भुगतान किया है, शिकायतकर्ताओं को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (डी) के दायरे से बाहर करने का कारण नहीं हो सकता है।
इस मामले में शिकायतकर्ता ने विरोधी पक्ष द्वारा विकसित किए गए प्रोजेक्ट 'चिंटेल सेरेनिटी', सेक्टर 109, गुरुग्राम में 22,23,690/- रुपये की बुकिंग राशि जमा कर फ्लैट बुक कराया था।
आवंटन पत्र के अनुसार शिकायतकर्ताओं को 1,64,09,050/- रुपये की कुल बिक्री पर एक फ्लैट आवंटित किया गया था। दोनों पक्षों के बीच एक अपार्टमेंट क्रेता समझौता निष्पादित किया गया था, जिसमें समझौते के खंड 11 के अनुसार, 36 महीने की अवधि के बाद छह महीने की छूट अवधि के साथ शिकायतकर्ताओं को फ्लैट के कब्जे का वादा किया गया था।
भुगतान चरणबद्ध तरीके से किया जाना था और शिकायतकर्ताओं ने "कब्जे पर" विरोधी पक्ष को देय भुगतान सहित 1,69,96,578/- रुपये का भुगतान करना था। कब्जे की पेशकश आज तक नहीं की गई थी जबकि विरोधी पक्ष की ओर से भुगतान प्राप्त करना जारी रहा। विरोधी पक्ष के कृत्य से व्यथित होकर शिकायतकर्ता ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 12(1)(ए) के तहत राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील दायर की।
विश्लेषण
राष्ट्रीय आयोग के समक्ष विचार का मुद्दा यह था कि क्या विरोधी पक्ष शिकायतकर्ता द्वारा भुगतान की गई कुल राशि का 100% भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है या नहीं।
आयोग ने पाया कि विरोधी पक्ष ने अपने इस तर्क के समर्थन में कोई दस्तावेजी साक्ष्य प्रदान नहीं किया है कि शिकायतकर्ता उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (डी) के दायरे में 'उपभोक्ता' नहीं हैं, सिवाय इसके कि तथ्य यह है कि उन्होंने छूट के बदले एक ही किश्त में राशि का 50% भुगतान किया।
आयोग ने कविता आहूजा बनाम शिप्रा एस्टेट्स के मामले पर भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि शिकायतकर्ता अचल संपत्ति के धंधे में शामिल है, जिसमें लाभ कमाने के वाणिज्यिक उद्देश्यों से भूखंडों/फ्लैटों की खरीद और बिक्री शामिल था।
आयोग ने रजनीश भारद्वाज और अन्य बनाम मैसर्स सीएचडी डेवलपर्स लिमिटेड, और अन्य के मामले पर भी भरोसा किया।
पीठ ने कहा कि केवल यह तर्क कि शिकायतकर्ताओं ने छूट के लिए 50% राशि का भुगतान किया है, शिकायतकर्ताओं को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (डी) के दायरे से बाहर करने का कारण नहीं हो सकता है, जैसा कि विरोधी पक्ष ने किया है। वे यह साबित करने के लिए कोई सबूत देने में विफल रहे कि शिकायतकर्ता अचल संपत्ति खरीदने और बेचने के व्यवसाय में लगे हुए हैं, उनकी बातों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
रिकॉर्ड पर मौजूद दस्तावेजों की जांच करने के बाद, आयोग ने पाया कि शिकायतकर्ता नियमित रूप से विरोधी पार्टी द्वारा विकसित की जा रही परियोजना में बुक किए गए फ्लैट के लिए उनके द्वारा मांगी गई राशि का भुगतान कर रहे थे। प्रतिवादी पक्ष ने शिकायतकर्ता को चूक के लिए किसी नोटिस का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया है। न तो शिकायत दर्ज करने की तिथि पर और न ही बाद में विरोधी पक्ष ने उक्त फ्लैट के संबंध में कब्जे का कोई वैध प्रस्ताव दिया है और इसलिए, उसका यह तर्क कि वह कब्जा देने के लिए तैयार है, अस्वीकार किए जाने योग्य है।
आयोग ने कोलकाता वेस्ट इंटरनेशनल सिटी प्राइवेट लिमिटेड बनाम देवाशीष रुद्र और पायनियर अर्बन लैंड एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम गोविंदन राघवन और जुड़े मामले पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फ्लैट खरीदारों को कब्जा प्राप्त करने की उम्मीद में अनिश्चित काल तक इंतजार नहीं कराया जा सकता है।
राष्ट्रीय आयोग ने अपील की अनुमति दी और विरोधी पक्ष को निर्देश दिया कि शिकायतकर्ता को संबंधित जमा की तारीख से भुगतान की तारीख तक 9% साधारण ब्याज के साथ उसकी पूरी राशि 1,69,96,578/ - वापस कर दी जाए।
केस टाइटल: संगीता अग्रवाल और अन्य बनाम एम/एस चिंटेल्स इंडिया लिमिटेड
केस नंबर: Con Case NO. 2018 of 2562
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