लोक अधिकारी के साक्ष्य पर केवल इसलिए अविश्वास नहीं किया जा सकता कि वह पुलिस अधिकारी है: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एनडीपीएस मामले में जमानत से इनकार किया

Update: 2022-03-08 13:16 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में 1,025 किलोग्राम गांजा बरामद करने के एक मामले में कथित रूप से शामिल एक आरोपी को जमानत देने से इनकार कर दिया। फैसले में कोर्ट ने कहा, "एक लोक अधिकारी के साक्ष्य को केवल इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एक पुलिस अधिकारी है।"

जस्टिस शेखर कुमार यादव ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट के तहत तलाशी और जब्ती के अनिवार्य प्रावधानों का पालन नहीं किया।

आवेदक ने तर्क दिया था कि राजमार्ग पर कथित रिकवरी कार्यवाही के बावजूद उक्‍त कार्यवाही में पुलिस ने कोई सार्वजनिक गवाह नहीं लिया था।

हालांकि कोर्ट ने नोट किया,

"रिकवरी रात में हुई थी और उस समय महामारी और एकांत के कारण उस समय कोई भी सार्वजनिक गवाह उपलब्ध नहीं हो सका। इसके अलावा, कानून में यह स्थापित है कि सार्वजनिक अधिकारी के साक्ष्य को केवल इस आधार पर रद्द नहीं किया सकता है कि वह एक पुलिस अधिकारी है।"

मौजूदा मामले में पुलिस ने पेट्रोलिंग के दरमियान एक डंपिंग ट्रक से 1025 किग्रा गांजा बरामद किया था। ट्रक को सह आरोपी विनोद सिंह चला रहा था और आवेदक ट्रक पर बैठा था। तदनुसार, आवेदक और सह-अभियुक्तों पर एनडीपीएस एक्ट की धारा 8/20/29 के तहत मामला दर्ज किया गया।

आवेदक ने सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।

आवेदक के वकील ने तर्क दिया कि आवेदक वाहन में एक यात्री रूप में सवार था और उसे बरामद प्रतिबंधित सामग्री के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और न ही उसके पास से कोई प्रतिबंधित पदार्थ बरामद किया गया था।

वकील ने यह भी कहा कि गिरफ्तारी के दौरान, एनडीपीएस एक्ट की धारा 42, 50, 52, 53, 57 के अनिवार्य प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था और इसलिए आवेदक को जमानत दिया जाना चाहिए।

राज्य के वकील ने प्रस्तुत किया कि आवेदक अंतर-राज्यीय तस्करी में शामिल था, जिसे एनडीपीएस एक्ट की धारा 67 के तहत आवेदक द्वारा दिए गए एक बयान में स्वैच्छिक रूप से स्वीकार किया गया था। वकील ने यह भी कहा कि एनडीपीएस एक्ट की धारा 50 का अनुपालन किया गया था क्योंकि एक राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में आरोपियों की तलाशी ली गई थी।

इसके अलावा वकील ने कहा कि, चूंकि मौजूदा मामले में की गई रिकवरी वाणिज्यिक मात्रा से अधिक है, यह एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के आकर्षण के बराबर है, इसलिए जमानत आवेदन खारिज किए जाने योग्य है।

परिणाम

कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मोहम्मद नवाज खान के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जहां अदालत ने कहा कि आरोपी द्वारा प्रतिबंधित पदार्थ के कब्जे का अभाव जमानत देने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।

"उपरोक्त मिसाल के आधार पर, जमानत देते समय हाईकोर्ट और इस न्यायालय को जिस परीक्षण को लागू करने की आवश्यकता होती है, वह यह है कि क्या यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि आरोपी ने अपराध नहीं किया है और क्या उसके द्वारा कोई अपराध किए जाने की संभावना है। एनडीपीएस एक्ट के तहत दंडनीय अपराधों की गंभीरता को देखते हुए और देश में नशीली दवाओं की तस्करी के खतरे को रोकने के लिए, एनडीपीएस अधिनियम के तहत जमानत देने के लिए कड़े मानदंड निर्धारित किए गए हैं। "

प्रतिवादी के कब्जे से मादक पदार्थ की रिकवरी के अभाव में

कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रतन मलिक के फैसले का हवाला दिया और कहा कि "आरोपी के पास प्रतिबंधित पदार्थ ना पाया जाना उसे एनडीपीएस एक्‍ट की धारा 37 (1) (बी) (ii) के तहत आवश्यक जांच से मुक्त नहीं करती है।"

जमानत की पात्रता पर 

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट राज्य बनाम सैयद आमिर हसनैन, (2002) 10 एससीसी 88 द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि एक आरोपी एनडीपीएस एक्ट के प्रावधानों के तहत रिहा होने का हकदार नहीं होगा, जब तक कि अधिनियम की धारा 37 के प्रावधान संतुष्ट नहीं होते हैं।

कथित रिकवरी कार्यवाही में पुलिस द्वारा कोई सार्वजनिक गवाह नहीं लिए जाने पर अदालत ने कहा कि 

"यह स्पष्ट है कि रिकवारी रात में की गई थी और उस समय प्रचलित महामारी और एकांत के कारण कोई सार्वजनिक गवाह उपलब्ध नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा, कानून में यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक सार्वजनिक अधिकारी के साक्ष्य को केवल इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एक पुलिस अधिकारी है।"

इन्हीं टिप्‍पणियों के साथ जमानत अर्जी खारिज कर दी गई।

केस शीर्षक: शंकर वारिक@ विक्रम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

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