भले ही प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो, जमानत परीक्षण पूर्व सजा से अधिक महत्वपूर्णः जम्मू और कश्मीर और लदाख हाईकोर्ट

Update: 2022-08-11 11:19 GMT

जम्मू और कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया कि भले ही किसी आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो, जमानत देने में अदालत का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि आरोपी को सजा के जर‌िए प्री-ट्रायल सजा के रूप में हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से आपराधिक न्यायशास्त्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

जस्टिस मोहन लाल की पीठ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 198 की धारा 7 सहपठित धारा 120-बी आईपीसी के तहत अपराध के लिए पुलिस स्टेशन सीबीआई, एसीबी, जम्मू में दर्ज एफआईआर में जमानत देने के लिए अदालत में शामिल होने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत यह है कि निर्दोषता का अनुमान हमेशा आरोपी के पक्ष में होता है जब तक कि वह साबित नहीं होता और दोषी नहीं पाया जाता है और याचिकाकर्ता/अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में रखने से प्री-ट्रायल सजा के समान होगा, जो आपराधिक न्यायशास्त्र के सिद्धांत के खिलाफ है।

मामले में जमानत अर्जी का विरोध करते हुए प्रतिवादी सीबीआई ने तर्क दिया कि जमानत देने के प्रयोजन के लिए विधानमंडल द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द "विश्वास के लिए उचित आधार" का अर्थ है कि अदालत जमानत के आवेदन से निपटने के दौरान केवल खुद को संतुष्ट कर सकती है कि क्या आरोपी के खिलाफ वास्तविक मामला है या नहीं।

रिकॉर्ड के अवलोकन से पता चला कि पुलिस स्टेशन सीबीआई, एसीबी, जम्मू में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 स‌हपठित धारा 120बी आईपीसी के तहत याचिकाकर्ता/अभियुक्त के खिलाफ शिकायत के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई थी। श‌िकायत यह थी उसने 12,000 रुपये रिश्वत की मांग की थी।

रिकॉर्ड ने आगे खुलासा किया कि शिकायत प्राप्त होने पर उसका सत्यापन श्री संजय कुमार एसआई द्वारा किया गया था जिसमें शिकायतकर्ता से दविंदर शर्मा, प्लांट प्रोटेक्शन ऑफिसर, जम्मू द्वारा रिश्वत की मांग की पुष्टि की गई थी, जिसके बाद जाल बिछाया गया और आरोपी व्यक्ति दविंदर शर्मा को शिकायतकर्ता से 12,000/- रुपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा गया और उसके बाद उक्त आरोपी व्यक्ति को 11.05.2022 को गिरफ्तार कर लिया गया।

निर्धारण के लिए न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि जब अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला है, तो जमानत देने या अस्वीकार करने के मामले में अदालत का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए।

मामले पर फैसला सुनाते हुए जस्टिस मोहन लाल ने कहा कि एफआईआर में लगाए गए आरोपों से यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि याचिकाकर्ता/आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला है।

मामले पर कानूनी स्थिति के बारे में विस्तार से बताते हुए पीठ ने जमानत के कानूनी प्रावधानों को स्पष्ट किया कि जमानत पर रिहाई का मार्गदर्शन करने के लिए मुख्य नियम है "ट्रायल के दरमियान अभियुक्त की उपस्थिति को सुरक्षित करने के लिए, जमानत का उद्देश्य न तो दंडात्मक है और न ही निवारक है, स्वतंत्रता से वंचित करना एक सजा माना जाना चाहिए...।

इस मामले पर विचार-विमर्श करते हुए अदालत ने संजय चंद्र बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (2012) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को दर्ज करना सार्थक पाया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में आरोपी को रिहा करते हुए कहा था,

"स्वतंत्रता से वंचित करना एक सजा माना जाना चाहिए, जब तक कि यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता न हो कि एक आरोपी व्यक्ति बुलाए जाने पर अपने मुकदमे का सामना नहीं करेगा। अदालतें मौखिक सम्मान से अधिक इस सिद्धांत के लिए जिम्मेदार हैं कि सजा दोषसिद्दधी के बाद शुरू होती है, और यह कि हर आदमी है विधिवत ट्रायल और विधिवत दोषी पाए जाने तक निर्दोष माना जाता है"

केस टाइटल: दविंदर शर्मा बनाम सीबीआई

साइटेशन:2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 95

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