दिल्ली हाईकोर्ट ने डीवी एक्ट के तहत विवाहित व्यक्ति की कथित लिव-इन पार्टनर को अंतरिम भरण पोषण देने के आदेश को बरकरार रखा

Update: 2021-06-21 07:00 GMT

Delhi High Court

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें एक विवाहित पुरुष को घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत उस महिला को अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करने का निर्देश दिया था,जिसने खुद को इस व्यक्ति की लिव-इन पार्टनर बताया था।

हालांकि न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की एकल पीठ ने कहा कि क्या दोनों पक्ष एक साझा घर में रह रहे थे और शादी की प्रकृति में घरेलू संबंध का आनंद ले रहे थे, इस मुद्दे को प्रमुख सबूतों के बिना तय नहीं किया जा सकता है?

न्यायालयों के हालिया फैसलों के आलोक में यह आदेश काफी महत्व रखता है जिनमें कहा गया है कि विवाहित और अविवाहित व्यक्ति के बीच लिव-इन-रिलेशनशिप की अनुमति नहीं है।

इस प्रस्ताव पर इलाहाबाद, राजस्थान और पंजाब के उच्च न्यायालयों द्वारा आदेश पारित किए गए हैं।

दरअसल, बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2015 में एक विवाहित पुरुष के साथ 15 साल से रह रही एक महिला को घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण (डीवी) अधिनियम के तहत राहत देने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि इस तरह के संबंध विवाह की प्रकृति में संबंध नहीं हो सकते हैं और इसलिए, डीवी अधिनियम के तहत कोई अधिकार नहीं है।

पृष्ठभूमि

वर्तमान मामले में, महिला ने दावा किया है कि जब वह मिले थे तो याचिकाकर्ता ने अपनी वैवाहिक स्थिति का खुलासा नहीं किया था, ताकि उसे शादी करने के लिए प्रेरित किया जा सके। याचिकाकर्ता के बारे में यह भी कहा गया था कि उसने पिछली शादी से हुए उसके बच्चे और उसके प्रति अपनी सच्चाई और जिम्मेदारी दिखाने के लिए उसके साथ एक विवाह समझौता किया था।

इसके बाद, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी से कहा कि उसकी पत्नी डायलिसिस पर है और लंबे समय तक जीवित नहीं रहेगी और इसलिए वह एक जीवन साथी की तलाश कर रहा है और वह उससे (प्रतिवादी) शादी करने जा रहा है।

उसने आगे दावा किया कि याचिकाकर्ता ने उसके लिए किराए के आवास की व्यवस्था की और वे दोनों पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे। उसने यह भी उल्लेख किया कि याचिकाकर्ता का नाम स्कूल के रिकॉर्ड में उसके बच्चे के पिता के रूप में दिखाया गया है। इसके अलावा, याचिकाकर्ता का नाम उसके बैंक खातों में नॉमिनी के रूप में है।

उसने प्रार्थना की है कि अब याचिकाकर्ता के साथ मतभेदों के कारण, उसे किराए के आवास से बेदखल न करने और अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करने का निर्देश जारी किया जा सकता है।

दूसरी ओर याचिकाकर्ता ने डीवी अधिनियम के तहत कार्यवाही की अनुरक्षणीयता को चुनौती दी। उसने कहा कि प्रतिवादी ने खुद स्वीकार किया है कि उसे उसकी पहली के बारे में पता था और इसलिए, वह डीवी अधिनियम के तहत किसी भी राहत का दावा नहीं कर सकती क्योंकि अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत विवाह की प्रकृति में संबंध का सवाल ही नहीं उठता है।

कोर्ट का निष्कर्ष

शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि डीवी अधिनियम के तहत एक याचिका को बनाए रखने के लिए, पीड़ित व्यक्ति को यह दिखाना होगा कि पीड़ित व्यक्ति और प्रतिवादी (आदमी) एक साझा घर में एक साथ रहते थे और यह विवाह की प्रकृति जैसा एक रिश्ता भी हो सकता है।

कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में रिकॉर्ड में रखी गई सामग्री से पता चलता है कि याचिकाकर्ता ने वर्ष 2012 में एक विवाह समझौता किया था जिसमें कहा गया था कि दोनों पक्ष एक-दूसरे से शादी करने का इरादा रखते हैं।

हाईकोर्ट ने कहा कि,

''समझौते से पता चलता है कि याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी के प्रति सभी जिम्मेदारियों/दायित्वों का निर्वहन किया और इसी तरह प्रतिवादी ने यहां याचिकाकर्ता के प्रति सभी जिम्मेदारियों/दायित्वों का निर्वहन किया। हलफनामे पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं।

प्रतिवादी द्वारा अपने पति से तलाक प्राप्त करने के बाद, 22.11.2014 को पार्टियों के बीच एक और समझौता-कम-विवाह डीड दर्ज की गई थी, जिसमें यह कहा गया है कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी पिछले पांच वर्षों से एक साथ लिव-इन रिलेशन में रह रहे हैं और अब हिंदू रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार एक-दूसरे से शादी कर रहे हैं और शादी दिल्ली के एक आर्य समाज मंदिर में हुई थी। विवाह डीड में यह भी दर्ज किया गया है कि विवाह के बाद दोनों पक्ष पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहेंगे और एक-दूसरे के प्रति वफादार रहेंगे। इस विवाह डीड पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हैं।

याचिकाकर्ता और प्रतिवादी की कुछ तस्वीरें हैं जिनसे यह आभास होता है कि दोनों पक्ष पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे थे और उन्होंने एक-दूसरे से शादी कर ली है। बच्चे का स्कूल रिकॉर्ड दर्ज किया गया है जिसमें याचिकाकर्ता को बच्चे के पिता के रूप में दिखाया गया है। बैंक खातों की प्रतियां दायर की गई हैं जिसमें याचिकाकर्ता को प्रतिवादी द्वारा रखे गए खाते के नाॅमिनी के रूप में दिखाया गया है।''

यह निष्कर्ष निकाला गया कि दोनों पक्षकार बालिग हैं और उन्होंने एक महत्वपूर्ण अवधि के लिए स्वेच्छा से सहवास किया है।

हालांकि, कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यह सवाल कि क्या प्रतिवादी को याचिकाकर्ता द्वारा धोखा दिया गया है या क्या वह एक व्यभिचारी और द्विविवाहित रिश्ते की पक्षकार थी या नहीं और क्या उसका आचरण उसे डीवी अधिनियम के तहत किसी भी सुरक्षा के लिए हकदार नहीं बनाता है,इन सभी सवालों का निर्णय सबूत मिलने के बाद ही हो सकता है?

कोर्ट ने कहा कि,

''प्रमुख चुनौती यह है कि तब तक आदेश पारित नहीं किया जा सकता है जब तक कि डीवी अधिनियम के तहत आवेदन विचारणीय ना हो क्योंकि प्रतिवादी एक पीड़ित व्यक्ति नहीं है। चूंकि मामला केवल अंतरिम चरण में है, इसलिए यह न्यायालय निचली अदालत के उस निर्देश में हस्तक्षेप करने का इच्छुक नहीं है,जिसके तहत प्रतिवादी को बच्चे के भरण-पोषण के लिए और किराए/आवास के लिए अंतरिम भरण-पोषण देने का आदेश दिया गया है।''

इंद्रा शर्मा बनाम वीकेवी शर्मा के मामले का सदंर्भ दिया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि रिश्ते की अवधि का समय, यह सवाल कि क्या एक साझा घर था या नहीं, संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग, घरेलू व्यवस्थाएं, सार्वजनिक रूप से समाजीकरण, पक्षकारों की मंशा और आचरण, यह सभी तथ्यों के सवाल हैं जिन्हें प्रमुख साक्ष्यों द्वारा स्थापित किया जाना होता है।

हाईकोर्ट ने कहा कि यदि ट्रायल कोर्ट सबूत पेश करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि प्रतिवादी डीवी अधिनियम के संरक्षण की हकदार नहीं थी तो यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय किए जाने चाहिए कि प्रतिवादी द्वारा अंतरिम भरण पोषण के रूप में प्राप्त राशि ब्याज सहित याचिकाकर्ता को वापस कर दी जाए।

केस शीर्षकः परवीन टंडन बनाम तनिका टंडन

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