सीडब्ल्यूसी बाल कस्टडी मामलों में फैमिली कोर्ट के रूप में कार्य नहीं कर सकताः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एनजीओ पर दस हजार जुर्माना लगाते हुए पॉवर ट्रांसफर की मांग वाली याचिका खारिज की
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, इंदौर खंडपीठ ने हाल ही में उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें एक बच्चे की कस्टडी तय करने के संबंध में एक फैमिली कोर्ट की शक्ति(पॉवर) को बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) को हस्तांतरित करने की मांग की गई थी।
जस्टिस विवेक रूसिया और जस्टिस राजेंद्र कुमार (वर्मा) की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगाते हुए कहा कि यह याचिका ''कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं'' है।
याचिकाकर्ता मुख्य रूप से प्रिया यादव बनाम म.प्र. राज्य व अन्य के मामले में न्यायालय की एकल पीठ द्वारा पारित निर्णय से व्यथित था। इस मामले में यह माना गया है कि सीडब्ल्यूसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह मां से बच्चे की कस्टडी लेकर उसे पिता को सौंप दे। वहीं चेतावनी का एक नोट भी जारी किया गया था कि मध्य प्रदेश राज्य में कार्यरत सीडब्ल्यूसी द्वारा ऐसी शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया था कि पूर्वाेक्त निर्णय सुशीला सिंह परिहार बनाम म.प्र. राज्य व अन्य के मामले में न्यायालय द्वारा पारित निर्णय (पूर्व में पारित) के विपरीत है। जबकि सुशीला सिंह परिहार मामले में यह माना गया है कि जेजे एक्ट की धारा 40 स्पष्ट रूप से यह प्रदान करती है कि बच्चे की देखभाल के लिए किसी व्यक्ति की उपयुक्तता का निर्धारण करने के बाद कस्टडी सौंपी जा सकती है और समिति को इस संबंध में उपयुक्त निर्देश देने का अधिकार भी दिया गया है। याचिकाकर्ता ने Re-Exploitation Of Children In Orphanages In The State Of Tamil Nadu v. Union of India &Ors मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित निर्णय का भी हवाला दिया था।
याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि फैमिली कोर्ट में प्रक्रिया लंबी और जटिल है और बच्चे की कस्टडी तय करने में एक वर्ष से अधिक का समय लगता है, इसलिए सीडब्ल्यूसी को बच्चों की कस्टडी के संबंध में पक्षों के बीच विवादों पर विचार करने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए। बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीआरसी) के अनुच्छेद 2(2), 5, 7, 1, 8, 9 और 18 का भी हवाला दिया गया। याचिकाकर्ता ने इस प्रकार परमादेश की प्रकृति में एक रिट की मांग की, जिसमें सीडब्ल्यूसी को यूएनसीआरसी के अनुसार बाल अधिकार के मामलों से निपटने का निर्देश दिया जाए।
जबकि प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिका के माध्यम से, याचिकाकर्ता वस्तुतः फैमिली कोर्ट या कानून की अदालत की शक्ति को सीडब्ल्यूसी को हस्तांतरित करने की मांग कर रहा है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि प्रिया यादव मामले में पारित फैसले के आलोक में एक रिट याचिका में ऐसी राहत नहीं दी जा सकती है।
तर्क दिया गया कि हिंदुओं के संबंध में संरक्षकता का मुद्दा केवल हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के तहत तय किया जा सकता है और उक्त अधिनियम के तहत, सीडब्ल्यूसी कार्रवाई करने के लिए सक्षम अदालत नहीं है। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि पीयूष यादव बनाम प्रिया यादव व अन्य के मामले में प्रिया यादव मामले की पुष्टि की गई है और इसलिए, सीडब्ल्यूसी को अदालत की शक्ति खत्म करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसलिए, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि याचिका गलत है और खारिज किए जाने योग्य है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को भी इस याचिका में एक पक्षकार बनाया गया था,इसलिए एनसीपीसीआर ने प्रस्तुत किया कि फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 और संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम 1890 स्पष्ट रूप से फैमिली कोर्ट को आदेश और डिक्री के माध्यम से बच्चे की कस्टडी देने की शक्ति प्रदान करते हैं। एनसीपीसीआर ने जेजे एक्ट की धारा 40 का भी उल्लेख किया जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बच्चे की उचित और सही देखभाल करने के लिए किसी व्यक्ति की उपयुक्तता के वास्तविक निर्धारण के बाद ही एक बच्चे की कस्टडी सौंपी जा सकती है।
आगे यह भी प्रस्तुत किया गया कि एनसीपीसीआर केवल एक समीक्षा और संस्तुतिपरक निकाय है जो केवल कानून के तहत निर्धारित प्रावधानों की समीक्षा कर सकता है और सरकार को प्रासंगिक सिफारिशें और सुझाव दे सकता है। यह फैमिली कोर्ट के क्षेत्र में कदम नहीं रख सकता है।
कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलों की जांच करने के बाद प्रिया यादव मामले में पारित फैसले में हस्तक्षेप न करने का निर्णय किया और कहा कि,
''प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्कों के मद्देनजर, याचिकाकर्ता को एनसीपीसीआर से भी समर्थन नहीं मिल रहा है और इस याचिका के द्वारा याचिकाकर्ता वस्तुतः यह मांग कर रहा है कि इस न्यायालय द्वारा रिट याचिका संख्या 6163/2016, प्रिया यादव (सुप्रा) में पारित आदेश को लागू न किया जाए और ऐसा करना,उक्त आदेश को रद्द करने के समान होगा, जबकि इस अदालत की समन्वय खंडपीठ ने पहले ही इस आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है। इसलिए, यह अदालत फिर से इस फैसले की वैधता की जांच नहीं कर सकती है और न ही इसे रद्द कर सकती है।''
कोर्ट ने आगे कहा कि-
''प्रिया यादव (सुप्रा) के मामले में इस अदालत ने कानून के सभी प्रावधानों, विशेष रूप से जेजे एक्ट, फैमिली कोर्ट एक्ट, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 पर विचार करने के बाद यह माना है कि सीडब्ल्यूसी बच्चे की कस्टडी के संबंध में फैमिली कोर्ट के रूप में कार्य नहीं कर सकता है। यह अधिकार और शक्ति क़ानून के तहत फैमिली कोर्ट के पास है इसलिए, यह याचिका कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा और कुछ नहीं है।''
इसके अलावा, याचिकाकर्ता के अधिकार क्षेत्र की जांच करते हुए, न्यायालय ने कहा-
''याचिकाकर्ता एक गैर-सरकारी संगठन होने का दावा कर रहा है और पिछले दो वर्षों से विभिन्न सामाजिक मुद्दों के लिए काम कर रहा है। प्रमाण पत्र के अलावा, रिकॉर्ड पर यह प्रदर्शित करने के लिए कुछ भी नहीं लाया गया है कि याचिकाकर्ता का संगठन जनहित से संबंधित विभिन्न सामाजिक मामलों के लिए काम कर रहा है। रिट याचिका के प्रासंगिक भाग में भी इन कामों का उल्लेख नहीं किया गया है। याचिकाकर्ता ने अपने सदस्यों के स्टे्टस और उनकी गतिविधियों की प्रकृति का भी खुलासा नहीं किया है। फाउंडेशन के उपनियम भी रिकॉर्ड पर नहीं हैं।''
नतीजतन, अदालत ने याचिका खारिज कर दी और याचिकाकर्ता पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया।
केस का शीर्षक- राजलक्ष्मी फाउंडेशन बनाम मध्य प्रदेश राज्य
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