अदालतें मकान-मालिकों से यह नहीं कह सकतीं कि उन्हें किस तरह से रहना चाहिए या उनके लिए आवासीय मानक निर्धारित नहीं कर सकतीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2022-03-29 05:33 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि किराए के विवादों में अदालतों का यह सरोकार नहीं है कि वह मकान मालिक को यह निर्देश दे कि उसे कैसे और किस तरीके से रहना चाहिए या उसके लिए अपना खुद का आवासीय मानक निर्धारित करना चाहिए।

प्रतिभा देवी (श्रीमती) बनाम टीवी कृष्णन 1996 (5) एससीसी 353 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल की पीठ ने भी जोर देकर कहा कि मकान मालिक अपनी आवासीय जरूरतों का सबसे अच्छा जज है और ऐसा कोई कानून नहीं है, जो मकान मालिक को उसकी संपत्ति के लाभकारी आनंद से वंचित करता है।

हाईकोर्ट ने एक वकील/किरायेदार द्वारा निर्धारित प्राधिकारी/अतिरिक्त जिला जज के आदेश के खिलाफ प्रतिवादियों/मकान मालिक के रिहाई आवेदन की अनुमति के खिलाफ दायर एक रिट याचिका को खारिज करने का ओदश दिया। कोर्ट ने आदेश में उक्त टिप्‍पणियां की।

तथ्य

दरअसल, मकान मालिक-प्रतिवादी संख्या 1 से 3 ने यूपी शहरी भवन (किराए पर देना, किराया और बेदखली का विनियमन) अधिनियम 1972 की धारा 21 (1) (ए) के तहत किराए का मामला दर्ज किया, जिसके तहत विवाद में शामिल आवास को मुक्त करने की मांग की गई थी। आवास को 2006 में मकान मालिक-प्रतिवादियों ने पिछले मालिक से खरीदा था।

मकान मालिक ने याचिकाकर्ता/किरायेदार-वकील से इस आधार पर आवास खाली करने की मांग की कि उनका परिवार बड़ा हो रहा है, और इसलिए, मकान मालिक और उनके परिवार के सदस्यों की व्यक्तिगत आवश्यकता है, क्योंकि उनमें से सभी को रहने के लिए अलग कमरे की आवश्यकता थी।

दूसरी ओर, किरायेदार-याचिकाकर्ता ने यह तर्क देते हुए आवास खाली करने के आवेदन का विरोध किया कि मकान मालिक की कोई आवश्यकता नहीं है और उनके पास अन्य आवास हैं, जिससे उनकी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।

ट्रायल कोर्ट ने पाया कि लैंडलॉर्ड-प्रतिवादियों की आवश्यकता वास्तविक नहीं है और तुलनात्मक कठिनाई किरायेदार के पक्ष में झुकी हुई है। इसलिए, मकान मालिक के आवेदन खारिज कर दिया गया । इसके खिलाफ, मकान मालिक-प्रतिवादियों ने किराए की अपील की, जिसे अनुमति दी गई।

अब किराया अपील में आदेश के खिलाफ किरायेदार-याचिकाकर्ता/वकील ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की।

यह उनकी विशिष्ट दलील थी कि लैंडलॉर्ड-प्रतिवादियों के पास बदायूं शहर में कई वैकल्पिक आवास हैं, जिनसे उनकी आवश्यकता पूरा हो सकती है और इस तथ्य को निर्धारित प्राधिकारी/अतिरिक्त जिला न्यायाधीश द्वारा किराए की अपील में नजरअंदाज कर दिया गया था।

टिप्पणी

शुरुआत में, न्यायालय ने कहा कि अपीलीय न्यायालय ने इस आशय का एक स्पष्ट निष्कर्ष दर्ज किया था कि वास्तव में मकान मालिक-प्रतिवादी के पास उनके विशेष कब्जे में कोई वैकल्पिक आवास नहीं था।

न्यायालय ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि किरायेदार-याचिकाकर्ता द्वारा रिकॉर्ड पर लाया गया वैकल्पिक आवास, वास्तव में, मकान मालिक-प्रतिवादियों के पिता के अनन्य स्वामित्व में था और आवास में से एक विवा‌दितग्रस्त था।

इसके अलावा, न्यायालय ने एक लैंडलॉर्ड की वास्तविक आवश्यकता के दायरे पर जोर देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों का भी उल्लेख किया। कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में किरायेदार और मकान मालिक की जरूरत के बीच संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए।

इस पृष्ठभूमि में अपीलीय न्यायालय के फैसले का विश्लेषण करने के बाद, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अपीलीय न्यायालय ने मकान मालिक-प्रतिवादियों के पास मौजूदा कथित वैकल्पिक आवासों के संदर्भ में मामले का निस्तारण ‌किया है।

कोर्ट ने कहा, "अपीलीय अदालत ने प्रत्येक पहलू पर विशिष्ट निष्कर्ष दर्ज किया था और पाया कि मकान मालिक की ‌आवश्यकता वास्तविक है क्योंकि परिवार बड़ा हो रहा है और इसमें 9 सदस्य शामिल हैं, जबकि उसके कब्जे में केवल आवास का पश्चिमी भाग है, जिसे 2013 में खरीदा गया था और परिवार के सदस्यों के लिए आवास की आवश्यकता थी। निचली अदालत द्वारा दर्ज किया गया निर्णय उस तथ्य पर आधारित है जिसमें इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।"

अदालत ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि तुलनात्मक परेशानियां मकान-मालिक के पक्ष में झुकी हुई हैं।

हालांकि, तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए कि किरायेदार-याचिकाकर्ता बदायूं में एक वकील है और लंबे समय से विवादित आवास में रह रहा है, अदालत ने उसे कुछ शर्तों के साथ परिसर को खाली करने के लिए छह महीने का समय दिया।

केस का शीर्षक - गोपाल कृष्ण शंखधर @ कृष्ण गोपाल शंखधर बनाम श्री मनोज कुमार अग्रवाल और 2 अन्य

सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 142

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