विवाह समझौते के तहत साथ रह रहे जोड़े पति-पत्नी नहीं, धारा 498 के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकताः केरल हाईकोर्ट
एक मृतक महिला के खिलाफ क्रूरता के आरोप में आईपीसी की धारा 498 ए के तहत दोषी करार दिए गए एक व्यक्ति और उसके परिजनों को केरल हाईकोर्ट ने बरी कर दिया। कोर्ट का निष्कर्ष था कि दोनों पक्ष विवाह समझौते के आधार पर पति और पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे थे, जबकि उनका विवाह संपन्न नहीं हुआ था।
जस्टिस सोफी थॉमस ने कहा,
"मौजूदा मामले में चूंकि प्रथम पुनरीक्षण याचिकाकर्ता और मृतक चंद्रिका के बीच विवाह संपन्न नहीं हुआ था और वे एक विवाह समझौते के आधार पर एक साथ रहने लगे थे, जिसकी कानून की नजर में कोई वैधता नहीं है। उन्हें लिव-इन-रिलेशनशिप में शामिल माना जा सकता है और वे पति-पत्नी नहीं थे, जिससे कि उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए के तहत अपराध को आकर्षित किया जा सके।
इसलिए, ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ अपीलीय अदालत ने आईपीसी की धारा 498 ए के तहत पुनरीक्षण याचिकाकर्ताओं को दोषी मानने और उन्हें उस अपराध के लिए सजा देने में गलती की है।"
मामले में मृतक और प्रथम पुनरीक्षण याचिकाकर्ता भाग गए थे और वे विवाह समझौते के आधार पर पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहने लगे थे। व्यक्ति के परिवार के कथित दुर्व्यवहार के कारण महिला ने खुद पर केरोसिन डालकर आत्मदाह का प्रयास किया, जिसमें जलने से उसकी मृत्यु हो गई। ट्रायल कोर्ट ने व्यक्ति और परिवार को आईपीसी की धारा 498ए, धारा 306 के तहत दोषी ठहराया। अपीलीय अदालत ने मामले में सजा को बरकरार रखा। जिसके बाद पुनरीक्षण याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
अदालत ने दोषसिद्धि की वैधता की जांच करने पर पाया कि यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं पेश किया गया कि प्रथम पुनरीक्षण याचिकाकर्ता और मृतक के बीच विवाह धार्मिक या पारंपरिक विवाह के किसी भी रूप के तहत संपन्न हुआ था।
न्यायालय ने पाया कि वे विवाह समझौते के आधार पर पति-पत्नी के रूप में एक साथ रह रह रहे थे, जिसकी कोई वैधता नहीं है। न्यायालय ने पाया कि भले ही विवाह समझौता पंजीकृत हो, फिर भी इसे कानूनी रूप से वैध विवाह से रिप्लेस नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, न्यायालय ने पाया कि वे वैध विवाह दस्तावेज के बिना पति-पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे थे। कोर्ट ने पाया कि एक महिला आईपीसी की धारा 498ए के तहत कानूनी सहारा तभी ले सकती है, जब दोनों पक्षों के बीच कानूनी रूप से वैध विवाह हो।
कोर्ट ने रीमा अग्रवाल बनाम अनुपम और अन्य (2004) पर भरोसा करते हुए कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत 'पति' शब्द के तहत केवल उस व्यक्ति को शामिल किया जाएगा, जो वैवाहिक संबंध में प्रवेश करता है।
कोर्ट ने शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) पर भी भरोसा किया और कहा कि आईपीसी की धारा 498 ए के तहत अपराध को आकर्षित करने के लिए आरोपी और पीड़ित के बीच वैध वैवाहिक संबंध होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि केवल कानूनी रूप से विवाहित पत्नी ही आईपीसी की धारा 498ए के तहत क्रूरता के लिए अपने पति पर मुकदमा चला सकती है।
न्यायालय ने उन्नीकृष्णन बनाम केरल राज्य (2017) और सुप्रभा बनाम केरल राज्य (2013) पर भी भरोसा किया और कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत मुकदमा चलाने के लिए वैध विवाह आवश्यक था और लिव इन रिलेशनशिप क्रूरता के अपराध को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
कोर्ट ने पाया कि महिला के मृत्युपूर्व बयान में कहा गया था कि प्रथम पुनरीक्षण याचिकाकर्ता एक प्यार करने वाला पति था और परिवार के सदस्यों ने ही उसके साथ दुर्व्यवहार किया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि दुर्व्यवहार के सामान्य आरोपों को छोड़कर, परिवार के खिलाफ कोई विशेष आरोप नहीं लगाए गए थे।
यह भी पाया गया कि आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आईपीसी की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि टिकाऊ नहीं थी, क्योंकि यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं पेश किया गया था कि पहले और चौथे संशोधन याचिकाकर्ता ने आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए कोई सकारात्मक कृत्य किया था। कोर्ट ने पाया कि आरोप ज्यादातर माता-पिता, दूसरे और तीसरे पुनरीक्षण याचिकाकर्ताओं के खिलाफ थे, जो अब नहीं रहे।
कोर्ट ने एम मोहन बनाम राज्य, पुलिस उपाधीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व (2011) और राजेश बनाम हरियाणा राज्य (2019) पर भरोसा किया और कहा कि आईपीसी की धारा 306 के तहत अभियुक्त की ओर से आत्महत्या के लिए उकसाने या आत्महत्या में सहायक रही उत्पीड़न की सकारात्मक कार्रवाई के बिना सजा नहीं दी जा सकती है।
अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष पुनरीक्षण याचिकाकर्ताओं के खिलाफ क्रूरता या आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने में असफल रहा। इस प्रकार, न्यायालय ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया और प्रथम और चतुर्थ पुनरीक्षण याचिकाकर्ताओं की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और उन्हें जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
साइटेशनः 2023 लाइव लॉ (केर) 569