''समाज में नैतिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता'': पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने ''कॉन्ट्रेक्टचुअल लिव-इन-रिलेशनशिप'' में रहने वाले कपल को संरक्षण देने से इनकार किया

Update: 2021-03-13 04:15 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने बुधवार (10 मार्च) को एक डीड द्वारा समर्थित 'संविदात्मक(कॉन्ट्रेक्टचुअल) लिव-इन-रिलेशन की नई अवधारणा' पर अपनी अस्वीकृति दर्ज की, जिसमें पक्षकारों ने कहा था कि उनका लिव-इन-रिलेशनशिप 'वैवाहिक संबंध' नहीं है।

न्यायमूर्ति अरविंद सिंह सांगवान की खंडपीठ ने कहा कि ''विशेष रूप से (विलेख/डीड में) यह कहते हुए कि यह 'वैवाहिक संबंध नहीं है',कुछ और नहीं बल्कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है, क्योंकि इसे नैतिक रूप से समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।''

न्यायालय के समक्ष मामला

न्यायालय निजी प्रतिवादियों से याचिकाकर्ताओं के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आधिकारिक प्रतिवादियों को निर्देश जारी करने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा था।

याचिकाकर्ताओं के वकील ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता नंबर 1 मोयना खातून (18 वर्ष की आयु) और याचिकाकर्ता नंबर 2 लाभ सिंह (लगभग 19 वर्ष की आयु) ने 04 मार्च 2021 को लिव-इन-रिलेशनशिप की एक डीड तैयार करवाई थी और आपसी सहमति के माध्यम से लिव-इन-रिलेशनशिप की इस डीड में कुछ नियम और शर्तें तय किए गए थे।

उक्त डीड में विशेष रूप से कहा गया है कि दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए हैं कि उनका लिव-इन-रिलेशनशिप 'वैवाहिक संबंध' नहीं है और दोनों पक्षकार बिना किसी विवाद और मुद्दे के एक-दूसरे का पूरा सहयोग करेंगे और एक-दूसरे के खिलाफ कोई भी दावा नहीं करेंगे।

उक्त डीड में यह भी कहा गया है कि यदि कोई एक पक्ष उपरोक्त डीड से बाहर निकलता है, तो दूसरे पक्ष को उसके कार्यान्वयन के लिए सक्षम न्यायालय से संपर्क करने का अधिकार होगा और अंत में, विवाह योग्य आयु प्राप्त करने पर दोनों पक्षकार शादी करने के लिए सहमत होंगे।

राज्य की दलीलें

राज्यों के वकील ने इस आधार पर याचिकाकर्ताओं की प्रार्थना का विरोध किया कि जब पक्षकारों ने बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत शादी करने की आयु प्राप्त न की हो तो लिव-इन-रिलेशनशिप की ऐसी डीड कानून में अस्वीकार्य है।

आगे यह भी प्रस्तुत किया गया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) में 18 साल से कम उम्र की लड़की और 21 साल से कम उम्र के लड़के के विवाह पर प्रतिबंध है। वहीं भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 26 में यह प्रावधान है कि विवाह पर रोकथाम को लेकर किया गया समझौता एक शून्य-करार है और इसलिए, इसे विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 14 के अनुसार लागू नहीं किया जा सकता है।

इस प्रकार, यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा किया गया लिव-इन-रिलेशनशिप समझौता एक शून्य-करार है,जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

कोर्ट का आदेश

पक्षकारों के लिए पेश वकीलों की दलीलें सुनने के बाद, कोर्ट को इस याचिका में कोई मैरिट नहीं मिली।

गौरतलब है कि कोर्ट ने इस मामले को अन्य मामलों से अलग माना क्योंकि उन मामलों में पक्षकार विवाह योग्य आयु के थे। हालांकि याचिकाकर्ताओं ने कई अन्य लिव-इन-रिलेशनशिप के मामलों का हवाला दिया था,जिनका निपटारा करते हुए संबंधित वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया गया था कि वह याचिकाकर्ताओं की शिकायत पर विचार करे।

अंत में, कोर्ट ने कहा,

''... ऊपर बताए गए लिव-इन-रिलेशनशिप के नियम और शर्तें,जिन पर याचिकाकर्ताओं ने भरोसा किया है और जो विशेष रूप से यह कहते हैं कि यह एक 'वैवाहिक संबंध नहीं है',कुछ और नहीं बल्कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है क्योंकि इसे नैतिक रूप से समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।''

इसप्रकार याचिका खारिज कर दी गई।

सम्बंधित खबर

गौरतलब है कि पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने पिछले साल टिप्पणी की थी कि घर से भागने वाले कपल की तरफ से दायर एक संरक्षण याचिका पर सुनवाई करने वाली अदालत को नैतिकता या मानवीय व्यवहार पर उपदेश देने की जरूरत नहीं है।

न्यायमूर्ति राजीव नारायण रैना की पीठ ने यह स्पष्ट किया था कि ऐसे मामलों में, अदालत को नैतिकता के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार प्रस्तुत नहीं करने चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आर्टिकल 21 के तहत कपल के अधिकारों की रक्षा की जाए।

''इस अदालत को एक संरक्षण की याचिका पर सुनवाई करते समय सामाजिक कार्य, मानदंडों और मानव व्यवहार में संलग्न होने या नैतिकता पर व्यक्तिगत विचारों को पेश करने की जरूरत नहीं है।''

जनवरी 2020 में भी, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा था कि माता-पिता अपनी शर्तों पर एक बच्चे को जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं।

न्यायमूर्ति अलका सरीन की खंडपीठ ने आगे दोहराया था कि केवल इसलिए कि लड़का विवाह योग्य उम्र का नहीं है (हालांकि बालिग है) याचिकाकर्ताओं के साथ रहने के अधिकार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा, यह देखते हुए कि ''माता-पिता एक बच्चे को अपनी शर्तों पर जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं और प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को अपने जीवन को जीने का अधिकार है जैसा कि वह उचित समझता है'',हाईकोर्ट ने एक जोड़े के लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के अधिकार बरकरार रखा था।

केस का शीर्षक -मोयना खातुन व अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य, सीआरडब्ल्यूपी-2421-2021

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