सरकार में उच्चतम स्तर पर लिए गए निर्णय पर एक अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य नहीं कर सकतेः दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2021-02-03 09:45 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार को माना है कि वह सरकार में उच्चतम स्तर पर लिए गए निर्णय पर अपीलीय प्राधिकारी के रूप में नहीं बैठ सकता है। यह टिप्पणी करते हुए, कोर्ट ने दिल्ली सरकार के उस फैसले में दखल देने से इनकार कर दिया, जिसके तहत सरकार ने याचिकाकर्ता को पीजीआई चंडीगढ़ से पेडियाट्रिक्स में पोस्टग्रेजुएट करने के लिए स्टडी लीव देने से इनकार कर दिया था।

न्यायमूर्ति वी कामेश्वर राव की एकल पीठ ने याचिकाकर्ता द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि कि प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि उसे रिलीव करें और साथ में उसे स्टडी लीव भी दी जाएं ताकि वह पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ से पीडियाट्रिक्स में एमडी/एमएस कोर्स को पूरा करने में सक्षम हो सके। उसने दलील दी थी कि वह उन मानदंडों को पूरा कर रहा है जो 02 नवंबर, 2012 के कार्यालय ज्ञापन में अध्ययन अवकाश/स्टडी लीव के अनुदान के लिए निर्धारित किए गए हैं।

तथ्य

पीजीआई में एमडी/एमएस कोर्स के लिए ऑफलाइन काउंसलिंग में सफल होने के बाद याचिकाकर्ता को एमडी पीडियाट्रिक कोर्स में सीट आवंटित की गई थी। याचिकाकर्ता इस समय डीडीयू अस्पताल में काम कर रहा है और अस्पताल की तरफ से उसे आवश्यक प्रमाण पत्र और एनओसी जारी कर दी गई थी, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अस्पताल को याचिकाकर्ता के विकल्प की आवश्यकता नहीं है। हालांकि, नियत औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद, जब याचिकाकर्ता ने 31 दिसंबर, 2020 को नियमानुसार अपना अध्ययन अवकाश प्रस्तुत किया, तो दिल्ली के उपराज्यपाल सहित प्रतिवादियों ने जानबूझकर याचिकाकर्ता को यह लीव देने में देरी कर दी।

इस बीच, पीजीआई चंडीगढ़ ने याचिकाकर्ता द्वारा सीट आबंटन स्वीकार करने की अंतिम तिथि 18 जनवरी, 2021 तक इस शर्त के साथ बढ़ा दी कि यदि याचिकाकर्ता तब तक अध्ययन अवकाश प्राप्त करने में असफल रहा, तो उसकी सीट रद्द कर दी जाएगी और उसे किसी अन्य उम्मीदवार को आवंटित कर दिया जाएगा। जब वह 08 जनवरी, 2021 को सचिवालय गया तो उसे ता चला कि उसके आवेदन को अग्रेषित नहीं किया गया था और उसे मौखिक रूप से सूचित किया गया था कि उसे COVID19 के कारण अध्ययन अवकाश नहीं दिया गया है।

पक्षकारों की तरफ से दिए गए तर्क

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा ने कहा कि COVID19 के कारण याचिकाकर्ता को स्टडी लीव न देना अस्थिर है क्योंकि सरकार के आंकड़ों से महामारी के प्रबंध के संबंध में COVID19 की स्थिति का पता चलता है और हाल ही में सरकार ने 326 डॉक्टरों की चिकित्सा अधिकारियों के रूप में नई भर्ती की है।

लूथरा के अनुसार, याचिकाकर्ता एक मेधावी छात्र है और देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान में एमडी/एमएस कोर्स में शामिल हो रहा है, यह उस संस्था की भलाई के लिए सार्वजनिक हित में होगा, जहां वह काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि इसी तरह से अन्य डॉक्टर्स को उस समय अध्ययन अवकाश दिया गया था जब अस्पताल में COVID ​​रोगियों की संख्या चरम पर थी और अस्पताल के अधिकतम बेड को COVID रोगियों को सौंप दिया गया था।

दूसरी ओर, दिल्ली सरकार ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता अधिकार के रूप में अध्ययन अवकाश का हकदार नहीं है। केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) नियम, 1972 के अनुसार, सरकारी कर्मचारी को सार्वजनिक सेवा की आवश्यकता के संबंध में स्टडी लीव दी जा सकती है। भले ही एक चिकित्सा अधिकारी को मेडिकल साइंस में स्नातकोत्तर अध्ययन के पाठ्यक्रम के लिए अध्ययन अवकाश दिया जा सकता है, लेकिन सेवाओं की आवश्यकताओं को देखते हुए सक्षम प्राधिकारी इससे इनकार कर सकते हैं। भारत सरकार ने सीएचएस कैडर के अधिकारियों के लिए 2013 में कार्यालय ज्ञापन जारी किया था,जिसमें भी यही कहा गया है कि सरकारी कर्मचारी को सार्वजनिक सेवा की आवश्यकता के संबंध में ही स्टडी लीव दी जा सकती है।

सुश्री अवनीश अहलावत ने सरकार की ओर से पेश होते हुए अपनी दलीलों के समर्थन में 'पंजाब व अन्य बनाम डॉ संजय कुमार बंसल 2009' के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसले का हवाला भी दिया और कहा कि छुट्टी का अधिकार के रूप में लाभ नहीं उठाया जा सकता है। उस मामले में भी, एक डॉक्टर को इस आधार पर छुट्टी देने से इनकार कर दिया गया था कि डॉक्टरों की कमी थी और सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह मामला 'प्रशासनिक अनिवार्यता' की श्रेणी में आता हैं और न्यायालय अपील में नहीं बैठ सकता हैं।

जजमेंट

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि न्यायालय, न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, प्रशासन या प्रबंधन द्वारा लिए गए निर्णय पर अपीलीय प्राधिकारी के रूप में नहीं बैठ सकते हैं। प्रशासन में उत्पन्न हो सकने वाली आवश्यकताओं को देखते हुए निर्णय लिया गया है। हालांकि यह सच है कि याचिकाकर्ता एक मेधावी उम्मीदवार होने के नाते, अपने कैरियर में उच्च योग्यता प्राप्त करने के लिए एक वैध उम्मीद रखता है, लेकिन उसी समय दिल्ली सरकार में काम करने वाले कर्मचारी के रूप में वह सरकार द्वारा निर्धारित नियमों से बंधा हुआ है। जो स्पष्ट रूप से निर्धारित करते हैं कि अध्ययन अवकाश पाना कोई अधिकार नहीं है और ऐसा अवकाश सार्वजनिक सेवा की शर्तों को ध्यान में रखते हुए ही सरकारी कर्मचारी को दिया जा सकता है।

न्यायालय ने सरकार के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए कहा कि जब सरकार में निर्णय उच्चतम स्तर पर लिया गया है, तो उच्च न्यायालय ऐसे निर्णय पर अपीलीय प्राधिकारी के रूप में नहीं बैठ सकता है।

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