बॉम्बे हाईकोर्ट ने मकोका आरोपी को जमानत दी; कहा- अभियोजक ने हिरासत की अवधि बढ़ाने के लिए कोई स्वतंत्र कारण नहीं बताया, जांच अधिकारी के अनुरोध को 'शब्दशः' कॉपी किया

Update: 2023-06-21 07:35 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में स्पेशल मकोका कोर्ट से जुड़े एक अभियोजक को फटकार लगाई, जिसने एक मामले में कोर्ट में अपनी ओर से दायर विस्तार आवेदन में जांच अधिकारी की ओर से चार्जशीट दाखिल करने के लिए विस्तार देने के लिए किए गए अनुरोध को शब्दशः कॉपी कर लिया था।

नागपुर स्थित जस्टिस भरत देशपांडे और जस्टिस विनय जोशी की खंडपीठ ने संगठित अपराध के आरोपी बीस वर्षीय युवक को जमानत देते हुए कहा कि लोक अभियोजक अपने कर्तव्य में पूरी तरह से विफल रहे क्योंकि उन्होंने जांच अधिकारी की ओर से विस्तार के लिए किए गए अनुरोध का समर्थन करने के लिए स्वतंत्र कारण दर्ज नहीं किए।

कोर्ट ने कहा,

"इन आवेदनों में की सामग्री शब्दशः एक जैसी है, पैराग्राफ, पूर्ण विराम, अल्पविराम तक समान है। इस प्रकार, एकमात्र निष्कर्ष जो निकाला जा सकता है वह यह है कि विशेष न्यायालय से जुड़े लोक अभियोजक को संबोधित आवेदन को, लोक अभियोजक ने 07.11.2022 को विशेष न्यायालय को संबोधित आवेदन में शब्दशः कॉपी किया है ...

विशेष अदालत से जुड़े लोक अभियोजक, उक्त अधिनियम की धारा 21 (2) (बी), मकोका, 1999 के प्रावधान, के तहत निर्धारित कानून के शासनादेश का पालन करने में पूरी तरह से विफल रहे।"

महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम, 1999 (मकोका) की धारा 21(2)(बी) में प्रावधान है कि यदि किसी मामले की जांच नब्बे दिनों के भीतर पूरी नहीं होती है, तो विशेष मकोका अदालत अभियोजक की रिपोर्ट पर, जिसमें जांच की प्रगति और अभियुक्त को नब्बे दिनों से अधिक हिरासत में रखने के विशिष्ट कारणों को दर्शाया गया है, इसे एक सौ अस्सी दिनों तक बढ़ा सकती है।

अदालत ने कहा कि अभियोजक विवेक के प्रयोग के बिना केवल आईओ के आवेदन को दोबारा पेशकर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करेगा, जैसा कि मकोका की धारा 21(2)(बी) के तहत परिकल्पित है।

आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 302, 120-बी, 143 और 34 सहपठित शस्त्र अधिनियम की धारा 4 और 25 और मकोका की धारा 3(1)(i)(ii), 3(2) और के 3(4) के तहत दंडनीय अपराध के तहत मामला दर्ज किया गया है।

उसने तीन आदेशों को चुनौती देते हुए वर्तमान अपील दायर की - i) मकोका की धारा 21(2)(बी) के तहत चार्जशीट दाखिल करने के लिए जांच एजेंसी को 60 दिनों का विस्तार दिया गया, ii) मकोका की धारा 21(2)(बी) के तहत उसकी जमानत अर्जी खारिज करने का आदेश iii) जांच एजेंसी को चार्जशीट दाखिल करने के लिए 15 दिनों का एक और विस्तार दिया गया।

एडवोकेट एसवी सिरपुरकर ने तर्क दिया कि एक्सटेंशन अवैध था, क्योंकि अभियोजक ने एक्सटेंशन मांगते समय तथ्यों पर अपने विवेक का प्रयोग कर स्वतंत्र रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की थी। इसके अलावा, जैसा कि पहला विस्तार उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना दिया गया था, अपीलकर्ता गैरकानूनी हिरासत में था।

उन्होंने यह भी प्रस्तुत किया कि जमानत केवल इस आधार पर खारिज कर दी गई थी कि जांच एजेंसी मकोका के तहत आगे बढ़ने के लिए सरकार की मंजूरी का इंतजार कर रही है, जो कि समय बढ़ाने का आधार भी नहीं है।

अदालत ने लोक अभियोजक द्वारा अदालत के समक्ष दायर किए गए विस्तार आवेदनों के साथ-साथ जांच कार्यालय द्वारा लोक अभियोजक को दायर किए गए आवेदनों पर भी विचार किया, जिसमें उसने विस्तार की मांग की थी।

अदालत ने कहा कि अभियोजक द्वारा अदालत के समक्ष दायर किए गए दोनों आवेदन और अभियोजक के समक्ष आईओ द्वारा फाइल किए गए आवेदन एक समान हैं। अदालत ने कहा कि अभियोजक के आवेदन को आईओ के आवेदन से शब्दशः कॉपी किया गया है।

आवेदन जो अंततः विशेष अदालत के समक्ष दायर किया गया था, उस पर आईओ और सरकारी वकील द्वारा संयुक्त रूप से हस्ताक्षर किए गए थे।

अदालत ने हितेंद्र ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया और कहा कि अभियोजक को स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का प्रयोक करना होगा और खुद को संतुष्ट करना होगा कि वास्तव में चार्जशीट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने की आवश्यकता है। अदालत ने कहा कि मामले के कागजात और आईओ द्वारा दिए गए कारणों की पुष्टि करने के बाद ही अभियोजक अपनी रिपोर्ट जमा करके विस्तार के लिए आवेदन कर सकता है।

अदालत ने कहा कि अभियोजक अपनी रिपोर्ट के साथ आईओ के अनुरोध को संलग्न कर सकता है, लेकिन उसे समय विस्तार के लिए आईओ के तर्कों का समर्थन करने के लिए अपने कारण देने होंगे।

अदालत ने कहा कि अभियोजक की स्वतंत्र रिपोर्ट के अभाव में, विशेष अदालत के पास आरोपी को जमानत देने से इनकार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

अदालत ने आगे कहा कि अभियोजक ने अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं की कि वास्तव में समय बढ़ाने की जरूरत है। अदालत ने कहा कि केवल आईओ के साथ संयुक्त रूप से विस्तार के लिए एक आवेदन पर हस्ताक्षर करने को मकोका की धारा 21(2)(बी) के अनुसार विस्तार की आवश्यकता के संबंध में खुद को संतुष्ट करने वाले सरकारी वकील के रूप में नहीं माना जा सकता है।

कोर्ट ने कहा कि मकोका के तहत स्पेशल जज ने एक्सटेंशन अर्जियों को स्वीकार कर गंभीर गलती की है। अदालत ने कहा कि यह पता लगाना विशेष मकोका अदालत का कर्तव्य था कि क्या सरकारी वकील ने एक स्वतंत्र रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें दिमाग का प्रयोग दिखाया गया था और विस्तार की आवश्यकता के लिए अपनी संतुष्टि दर्ज की गई थी।

अदालत ने हलफनामे को यह कहते हुए स्वीकार नहीं किया कि अभियोजक को वैधानिक रूप से अपने कारणों को स्वतंत्र रूप से दर्ज करने और समय के विस्तार के लिए आवेदन करने से पहले संतुष्टि दर्ज करने की आवश्यकता थी। इसे बाद में दायर हलफनामे से बदला नहीं जा सकता है और वह भी तब जब इसे हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी जाती है।

इसलिए, अदालत ने तीनों आक्षेपित आदेशों को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा कि चूंकि पहला विस्तार अवैध है, अपीलकर्ता सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत जमानत का हकदार है और उसकी आगे की हिरासत को अवैध माना जाना चाहिए।

इस प्रकार, अदालत ने अपीलकर्ता को एक या दो सॉल्वेंट स्यूरीटीज़ के साथ 50,000 के पीआर बॉन्‍ड पर रिहा करने का निर्देश दिया। साथ ही यह शर्त लगाई कि ट्रायल पूरा होने तक हर दूसरे सोमवार को उसे संबंधित पुलिस स्टेशन में उपस्थित होना होगा।

केस टाइटलः दर्शन सुभाष नंदगावली बनाम महाराष्ट्र राज्य

केस नबंर: क्रिमिनल अपील नंबर 43/2023


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