'वन टाइम सेटलमेंट स्कीम' के तहत देय राशि को बैंक द्वारा एकतरफा बदल देना, वैध अपेक्षा के सिद्धांत के खिलाफ: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा था कि एक बैंक एकमुश्त निस्तारण राशि (वन टाइम सेटलमेंट, ओटीएस) को एकतरफा होकर नहीं बदल सकता। ऐसा करना प्राकृतिक न्याय और वैध अपेक्षा के सिद्धांतों के खिलाफ होगा।
जस्टिस सुजॉय पॉल और जस्टिस डीडी बंसल की खंडपीठ दरअसल एक रिट याचिका का निस्तारण कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ता प्रतिवादी बैंक के आदेश से व्यथित था, जिसने एकतरफा होकर ओटीएस राशि को 36,50,000 रुपये से बढ़ाकार 50,50,000 रुपये कर दिया था।
पक्षकारों के बीच स्वीकृत तथ्य यह थे कि याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी से ऋण लिया था और इसे वन टाइम सेटलमेंट के जरिए चुकाने का इरादा व्यक्त किया था। बैंक ने याचिकाकर्ता को सूचित किया कि योजना में दिए गए सेटलमेंट फार्मूले के अनुसार ( महा समाधान योजना 2021-22) ओटीएस राशि 36,50,000 रुपये निर्धारित किया गया था। याचिकाकर्ता ने बैंक में 35,00,000 रुपये रुपये जमा किए थे। हालांकि, बाद में पत्राचार के जरिए बैंक ने याचिकाकर्ता को सूचित किया कि उसका प्रस्ताव सक्षम प्राधिकारी के समक्ष रखा गया था, जिसने कुछ शर्तों के साथ समझौता प्रस्ताव को मंजूरी दी और ओटीएस अमाउंट को बढ़ाकर 50,50,000 रुपये कर दिया। इसके बाद दोनों पक्षों के बीच लगातार पत्राचार हुआ, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने मौजूदा याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि तय समय में ओटीएस की 95% राशि जमा करने के बाद, बैंक के पास एकमात्र विकल्प 'सूचना पत्र' जारी करने के चरण के बाद आगे बढ़ना था, और यदि वह पात्र पाया जाता तो 'मंजूरी पत्र' जारी करना था।
उन्होंने प्रस्तुत किया कि हालांकि बैंक इसे स्वीकार करने में बुरी तरह विफल रहा है और समझौता राशि को एकतरफा रूप से बढ़ाकर 50,50,000रुपये करने का फैसला किया। उन्होंने तर्क दिया कि यह ओटीएस स्कीम के विपरीत था और उन्होंने कभी भी राशि बढ़ाने के बैंक के निर्णय को अपनी स्वीकृति नहीं दी।
प्रतिवादी बैंक ने दलील दी कि जिस पत्र में ओटीएस को 36,50,000 रुपये निर्धारित किया गया था, वह केवल सूचना का पत्र था, मंजूरी नहीं थी।। इसके अलावा, केवल 35,00,000 रुपये जमा करके याचिकाकर्ता ने संबंधित संचार की शर्तों को पूरा नहीं किया।
बैंक ने यह भी प्रस्तुत किया कि उसने एक पत्र के माध्यम से याचिकाकर्ता को सूचित किया था, जिसमें कहा गया था कि बैंक ने यह माना है कि 50,50,000 रुपये की बढ़ी हुई राशि पर उसने अपनी सहमति व्यक्त की है।
बैंक ने आगे तर्क दिया कि ओटीएस स्कीम बाध्यकारी प्रकृति की नहीं है और उधारकर्ता को इस न्यायालय से परमादेश प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है। अपने तर्क को मजबूत करने के लिए, बैंक ने बिजनौर अर्बन कोऑपरेटिव बैंक बनाम मीनल अग्रवाल में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और महालक्ष्मी फ्लोर मिल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूपी राज्य में में इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया।
न्यायालय ने उस पत्राचार की जांच की जिसमें, ओटीएस को 36,50,000 रुपये रुपये निर्धारित किया गया था, और कहा-
"यह स्पष्ट है कि योजना में दिए गए सेटलमेंट फार्मूला के अनुसार बैंक द्वारा राशि की मात्रा निर्धारित की गई थी। उत्तरदाताओं ने अपनी दलीलों में कहीं भी यह नहीं कहा कि निर्धारित की राशि यानी 36,50,000 रुपये को गलत तरीके से निर्धारित किया गया था या यह योजना में दिए गए सेटलमेंट फॉर्मूले के विपरीत था। उत्तरदाता उस आधार को नहीं बता सके, जिसके जरिए उन्होंने अपने 25.8.2021 के पत्र में 50.50 लाख रुपये का जादुई आंकड़ा निर्धारित किया था।
न्यायालय ने माना कि बैंक एकतरफा रूप से राशि को 50,50,000 रुपये में नहीं कर सकते, जब तक कि ओटीएस अमाउंट 36,50,000 रुपये को उचित निर्धारण किया गया हो।
कोर्ट ने बैंक के फैसले को तर्कहीन माना क्योंकि उसने योजना के तहत फॉर्मूले के अनुसार 36,50,000 रुपये की राशि का उचित ढंग से निर्धारण किया था, जब कि बाद में बिना किसी औचित्य के राशि को बढ़ाकर 50,50,000 रुपये कर दिया गया था, जो योजना के विपरीत था।
कोर्ट ने आगे कहा कि बैंक का निर्णय अवैधता और प्रक्रियात्मक अनौचित्य से ग्रस्त था, क्योंकि पहले तो बैंक ने याचिकाकर्ता को निर्णय प्रक्रिया में पक्षकार बनाए बिना राशि में वृद्धि की। दूसरे, बैंक ने इस प्रकार के मामले में स्वीकृति का एकतरफा अनुमान लगाया, जबकि याचिकाकर्ता ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50,50,000 रुपये का भुगतान करने के लिए कोई स्वीकृति नहीं दी थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा पैसा जमा करने के बाद, बैंक को उसकी पात्रता की जांच करने की आवश्यकता थी।
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बैंक के निर्णय, जिससे उसने ओटीएस राशि को एकतरफा बढ़ाया, का याचिकाकर्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जो मनमाना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और वैध अपेक्षा के सिद्धांत के विपरीत था। इसने आगे कहा कि निष्पक्षता अच्छे प्रशासन का एक अभिन्न अंग है लेकिन बैंक ने उचित तरीके से कार्य नहीं किया।
उपरोक्त टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने माना कि चूंकि याचिकाकर्ता योजना के तहत पात्र था, और उसने निर्धारित राशि के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और निर्धारित समय के भीतर 36,50,000 रुपये का 95.89% जमा कर दिया, प्रतिवादी बैंक को उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य था और वह 'मंजूरी पत्र' जारी करे।
कोर्ट ने बैंक को शेष औपचारिकताओं को पूरा करने और याचिकाकर्ता को सभी परिणामी लाभ प्रदान करने का निर्देश दिया। तद्नुसार आक्षेपित पत्रों को रद्द कर दिया गया और याचिका को स्वीकार किया गया।
केस शीर्षक: मोहनलाल पाटीदार बनाम बैंक ऑफ महाराष्ट्र और अन्य और जुड़े मामले