सीआरपीसी की धारा 436 के तहत दी गई जमानत केवल हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय द्वारा धारा 439(2) के तहत रद्द की जा सकती है: उड़ीसा हाईकोर्ट
उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 436 के तहत दी गई जमानत को उसी अदालत द्वारा रद्द नहीं किया जा सकता है, जिसने जमानत दी है। साथ ही यह केवल सत्र न्यायालय या हाईकोर्ट द्वारा संहिता की धारा 439 (2) के तहत किया जा सकता है।
जस्टिस शशिकांत मिश्रा की एकल न्यायाधीश पीठ ने कानून की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा,
“सीआरपीसी की धारा 436 में जमानत रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 439 की उपधारा (2) ऐसा प्रतीत होता है कि यह केवल ऐसी शक्ति प्रदान करने वाला प्रावधान है, लेकिन केवल हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय को इस तरह की शक्ति प्रदान करता है।”
याचिकाकर्ता पर आईपीसी की धारा 304/34 के तहत कथित तौर पर अपराध करने का आरोप लगाया गया। 29 मार्च, 2023 के आदेश के अनुसार उसे जेएमएफसी-IV, कटक द्वारा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जमानत दे दी गई कि कथित अपराध प्रकृति में जमानती हैं।
इसके बाद आई.ओ. इस आधार पर जमानत रद्द करने की प्रार्थना की गई कि जांच के दौरान आरोपी द्वारा और भी अपराध करना पाया गया। ऐसी प्रार्थना पर विचार करते हुए जेएमएफसी ने आई.ओ. की अनुमति देते हुए याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत जमानत बांड रद्द कर दिया और उसे गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया।
जमानत रद्द होने से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने निचली अदालत के आदेश पर आपत्ति जताते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियां
हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य विवादास्पद प्रश्न यह है कि क्या मजिस्ट्रेट के पास जमानत रद्द करने का अधिकार क्षेत्र है। कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 437(5) का हवाला दिया, जहां मजिस्ट्रेट को पहले से दी गई जमानत को रद्द करने की शक्ति प्रदान की गई।
इसे इस प्रकार पढ़ा गया,
"अगर किसी अदालत ने सीआरपीसी की धारा 1 की उपधारा (1) या (2) के तहत किसी को जमानत दी है तो वह उचित समझे जाने पर उस व्यक्ति को गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने का आदेश दे सकती है।"
उपरोक्त प्रावधान को पढ़ने के बाद न्यायालय ने माना कि ऐसी शक्ति केवल उस मामले में प्रासंगिक है, जहां सीआरपीसी की धारा 437 की उप-धारा (1) या उप-धारा (2) के तहत जमानत दी गई। हालांकि, इस मामले में याचिकाकर्ता को सीआरपीसी की धारा 437 (1) या (2) के प्रावधानों के तहत जमानत नहीं दी गई, बल्कि सीआरपीसी की धारा 436 के तहत जमानत दी गई।
कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 436 में ही जमानत रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 439 की उप-धारा (2) में प्रावधान है कि हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि अध्याय XXIII के तहत जमानत पर रिहा किए गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है और उसे हिरासत में लिया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा,
“इस अध्याय के अंतर्गत उप-धारा (2) में आने वाले शब्द सीआरपीसी की धारा 436 की तरह अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। अध्याय XXXIII के अंतर्गत भी शामिल है। इसलिए सीआरपीसी की धारा 436 के तहत जमानत दी गई। इसे केवल सीआरपीसी की धारा 439 की उप-धारा (2) के तहत शक्ति का इस्तेमाल करके रद्द किया जा सकता है।'
न्यायालय ने माधब चंद्र जेना एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य और कालिया बनाम उड़ीसा राज्य मामले में निर्धारित अनुपात का भी हवाला दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने समान विचार रखे थे।
कानून की उपरोक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय की यह सुविचारित राय है कि निचली अदालत के आक्षेपित फैसले को बरकरार नहीं रखा जा सकता। तदनुसार, उसे रद्द कर दिया जाता है।
केस टाइटल: चिन्मय साहू बनाम उड़ीसा राज्य
केस नंबर: सीआरएलएमसी नंबर 2452/2023
फैसले की तारीख: 20 जुलाई, 2023
याचिकाकर्ता के वकील: बी.पी. प्रधान, राज्य के वकील: एस.के. मिश्रा एवं एस.एन. दास, अतिरिक्त सरकारी वकील
साइटेशन: लाइव लॉ (ओआरआई) 78/2023
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