सिलसिलेवार अनुबंधों के बीच मामूली कृत्रिम ब्रेक का इस्तेमाल मातृत्व अधिकारों से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकताः केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि सिलसिलेवार अनुबंधों के बीच सर्विस में मामूली कृत्रिम ब्रेक का इस्तेमाल कर्मचारियों को मातृत्व अधिकारों से वंचित करने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जा सकता है।
जस्टिस राजा विजयराघवन ने कहा कि जनवरी 2021 के सरकारी आदेश के अनुसार, कर्मचारी को मातृत्व लाभ के लिए पात्र होने के लिए उसकी प्रसव की अपेक्षित तिथि या गर्भपात की तारीख से तुरंत पहले कम से कम 80 दिनों की अवधि के लिए "वास्तव में" काम करना चाहिए और इससे इनकार करने के लिए कृत्रिम ब्रेक एक वैध आधार नहीं है।
पीठ ने कहा,
"वास्तव में' शब्द शामिल करके सरकार याचिकाकर्ताओं जैसे लोगों को शामिल करना चाहती थी, जो वर्षों से काम कर रहे हैं। मेरे मन में बिल्कुल संदेह नहीं है कि सिलसिलेवार अनुबंधों के बीच दो दिनों के कृत्रिम ब्रेक को उन लाभों से इनकार करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जिनके लिए याचिकाकर्ता हकदार थीं।"
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि इसी प्रकार का दृष्टिकोण इस न्यायालय ने 2018 में एक निर्णय में लिया था, जिसमें इस न्यायालय ने माना था कि याचिकाकर्ताओं को उनकी संतोषजनक सेवा के आधार पर नवीनीकरण की अनुमति दी गई थी और एक दिन के कृत्रिम ब्रेक को अनदेखा किया जाए।
जस्टिस विजयराघवन ने यह भी कहा कि महिलाओं को उन जगहों पर सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए, जहां वे अपनी आजीविका कमाने के लिए जाती हैं। उन्होंने कहा जिस स्थान पर महिलाएं काम करती हैं, वहां उन्हें वे सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए जिनकी वे हकदार हैं।
कोर्ट ने कहा कि मातृत्व लाभ अधिनियम का उद्देश्य एक कामकाजी महिला को सम्मानजनक तरीके से उन सभी सुविधाओं को प्रदान करना है, जिनसे वह मातृत्व की अवधि में सम्मानपूर्वक और शांतिपूर्वक रह सकें, उन्हें प्रसव पूर्व या बाद की अवधि में जबरन अनुपस्थित किए जाने का भय न हो।
मामले में केरल यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज में अनुबंध पर आईटी प्रोग्रामर के रूप में काम कर रही तीन महिलाओं ने आवश्यक शर्तों को पूरा करने के बावजूद नियोक्ता द्वारा उन्हें मातृत्व लाभ से वंचित किए जाने से व्यथित होकर अदालत का दरवाजा खटखटाया था। पहली और तीसरी याचिकाकर्ता केयूएचएस के साथ पिछले 9 वर्षों से और दूसरी याचिकाकर्ता पिछले 5 वर्षों से काम कर रही थी।
उन्होंने कार्यकाल के दरमियान ही मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन किया था और उन्हें दिया भी गया। हालांकि बाद में उन्हें मातृत्व अवकाश के कारण किसी भी प्रकार के भत्ते से वंचित कर दिया गया।
राज्य सरकार ने एक आदेश जारी किया था, जिसमें केरल सेवा नियमों के नियम 100, भाग I के तहत मातृत्व अवकाश का लाभ 180 दिनों की अवधि तक या मौजूदा अनुबंध की समाप्ति तक, अनुबंध की अवधि के बावजूद, जो भी नियुक्त महिला अधिकारियों के लिए पहले हो, दिया गया है, यह इस शर्त के अधीन है कि छुट्टी चिकित्सा अधिकारी द्वारा प्रमाणित कंफाइनमेंट की अपेक्षित तिथि से 3 सप्ताह पहले की तारीख से स्वीकार्य नहीं होगी। इसे नियम 101 पर भी लागू किया गया था
हालांकि, आदेश के क्लॉज (4) के अनुसार, कोई भी अधिकारी इन लाभों का हकदार नहीं था, जब तक कि उसने वास्तव में नियोक्ता के तहत प्रसव की अपेक्षित तिथि या गर्भपात की तारीख से कम से कम 80 दिन की अवधि के लिए काम नहीं किया हो।
याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश के अनुसार लाभ की मांग करते हुए अलग-अलग आवेदन प्रस्तुत किए। हालांकि, उनके अनुरोधों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अनुबंध की प्रत्येक अवधि को एक अलग पोस्टिंग माना जाना चाहिए।
प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता 1 और 3 को इस आधार पर लाभ देने से इनकार कर दिया कि उन्होंने कंफाइनमेंट की तारीख से पहले अनुबंध की निर्धारित 80 दिनों की सेवा पूरी नहीं की थी। जहां तक दूसरी याचिकाकर्ता का संबंध है, केयूएचएस ने यह विचार किया कि मातृत्व अवकाश के लिए उसके आवेदन पर विचार नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी डिलीवरी 19.12.2020 को हुई थी, जो कि उसके दो अनुबंधों के बीच एक ब्रेक अवधि थी। इससे व्यथित होकर उन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
राज्य द्वारा दायर जवाबी हलफनामे में, यह तर्क दिया गया था कि केएसआर के भाग I के नियम 2 परिशिष्ट VIII के अनुसार, अनंतिम महिला भर्ती के लिए मातृत्व अवकाश केवल तभी स्वीकार्य है जब वे एक वर्ष से अधिक समय तक जारी रहें। मातृत्व लाभ अधिनियम के प्रावधानों पर भरोसा करते हुए, उन्होंने तर्क दिया कि एक महिला केवल तभी लाभ पाने की हकदार है, जब उसने अपने अपेक्षित प्रसव की तारीख से ठीक पहले के 12 महीनों में कम से कम 80 दिनों की अवधि के लिए काम किया हो।
इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया था कि याचिकाकर्ताओं के अनुरोध को उचित ही खारिज कर दिया गया था और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि "वास्तव में" शब्द का इस्तेमाल सरकार के पी 4 आदेश में सोचसमझ कर किया गया है। कोर्ट ने कहा, यह भी निर्विवाद था कि पहली और तीसरी याचिकाकर्ता पिछले 9 वर्षों से और दूसरर याचिकाकर्ता पिछले 5 वर्षों से काम कर रही हैं। इसलिए, 2 दिनों की सेवा में कृत्रिम विराम को नजरअंदाज किया जाए।
इस प्रकार, याचिकाकर्ताओं को मातृत्व लाभ से वंचित करने वाले आक्षेपित आदेशों को रद्द कर दिया गया और केयूएचएस को निर्देश दिया गया कि वे मातृत्व लाभों की गणना करें, जिसकी याचिकाकर्ता हकदार हैं और दो महीने के भीतर इसे शीघ्रता से वितरित करें।
केस शीर्षक: नाजिया और अन्य बनाम केरल राज्य
सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (केरल) 216