मध्यस्थता के दौरान आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल के आदेश को रिट याचिका के जरिए चुनौती नहीं दी जा सकती : गुजरात हाईकोर्ट
गुजरात हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह दिए एक फैसले में विचार किया कि क्या 1996 के अधिनियम के तहत मध्यस्थता की कार्यवाही की विचाराधीनता के मध्य पारित आदेश को संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उत्प्रेषण के जरिए चुनौती दी जा सकती है या नहीं।
कोर्ट ने कहा, " मध्यस्थता अधिनियम, 1996 की नीति, उद्देश्य और प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए, आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल द्वारा मध्यस्थता की कार्यवाही के दरमियान पारित आदेश को अनुच्छेद 226 और 227 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है क्योंकि 1996 अधिनियम एक विशेष अधिनियम है और मध्यस्थता के संबंध में एक स्व-निहित संहिता है।
कोर्ट ने 2005 के एसबीपी एंड कंपनी बनाम पटेल इंजीनियरिंग के सुप्रीम कोर्ट फैसले पर भरोसा किया, जिसमें 7 जजों की बेंच ने इस स्टैंड को खारिज कर दिया था कि आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल द्वारा पारित कोई भी आदेश उच्च न्यायालय द्वारा सही होने में सक्षम है और स्पष्ट रूप से माना गया कि ऐसा हस्तक्षेप अनुचित है।
2019 के डीप इंडस्ट्रीज बनाम ओएनजीसी मामले में दिए फैसले का संदर्भ भी दिया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अधिनियम का उद्देश्य न्यायिक हस्तक्षेप को कम करना है, और 1996 अधिनियम के तहत निर्णित कार्यवाहियों के खिलाफ 227 याचिका का निस्तारण करते समय इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को सबसे आगे रखा जाना चाहिए। अधिनियम की नीति मध्यस्थता के मामलों का तेजी से निस्तारण करना है। अधिनियम निस्तारण की एक स्व-निहित संहिता है।
तथ्य
याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच 15 दिसंबर, 2015 से 31 मार्च, 2017 की अवधि के बीच ग्राहक सेवा केंद्र की स्थापना के लिए
5 दिसंबर 2014 को एक अनुबंध निष्पादित किया गया और उसी के मुताबिक, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी को ग्राहक कॉल सेवाओं को आउटसोर्स किया।
याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी कार्यालय में 29 सितंबर, 2016 को किए गए निरीक्षण के दरमियान पाया कि प्रतिवादी ने अपने सॉफ्टवेयर प्रोग्राम "CZentrix" में हेरफेर किया है, जिससे एक ही समय में लॉग इन किए गए व्यक्तियों की संख्या, वास्तव में ग्राहकों की कॉल लेने के लिए नियुक्त व्यक्तियों की संख्या से ज्यादा दिखाई जा सके।
प्रतिवादी कंप्यूटर प्रोग्राम में इस प्रकार के हेरफेर से नियोजित व्यक्तियों की अतिरंजित संख्या दिखाकार झूठे और बढ़ाचढ़ा कर बनाया गए इनवाइस का दावा किया करता था। आगे की पूछताछ में याचिकाकर्ता को पता चला कि याचिकाकर्ता के दो कर्मचारियों ने प्रतिवादी के साथ मिलकर याचिकाकर्ता के साथ धोखाधड़ी की थी।
31 मार्च, 2017 को प्रतिवादी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 408, 409, 120 बी, 34 के तहत अपराध और सूचना और प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 की धारा 65 और 66 (डी) के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज की गई।
आपराधिक शिकायत के आधार पर 7 सितंबर, 2018 को अहमदाबाद मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष आरोप पत्र दायर किया गया। याचिकाकर्ता का मामला था कि आपराधिक आरोपों से बचने के लिए, प्रतिवादी ने 30 मई, 2017 को मध्यस्थता खंड को लागू करने के लिए नोटिस जारी किया, वह भी हाईकोर्ट के समक्ष क्वॉशिंग पिटिशन दायर करने के बाद किया गया। याचिकाकर्ता ने 25 जुलाई, 2017 को नोटिस का जवाब दिया।
इसके बाद, मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए प्रतिवादी ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के तहत याचिका दायर की। 9 फरवरी, 2018 के आदेश के तहत उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीए मेहता को सभी विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थ नियुक्त किया गया। मध्यस्थ ने इस्तीफा दे दिया, इसके बाद न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस जेएम पंचाल को मध्यस्थ नियुक्त किया।
इसके बाद प्रतिवादी ने अपने दावे का स्टेटमेंट पेश किया और याचिकाकर्ता ने उसी के खिलाफ अपना दावा दायर किया। याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी से कुछ दस्तावेजों की मांग करते हुए एक आवेदन भी दायर किया।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद 14 फरवरी, 2019 को आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल के याचिकाकर्ता द्वारा दायर प्रारंभिक आपत्ति आवेदन को खारिज कर दिया। उक्त आदेश से क्षुब्ध होकर याचिकाकर्ता ने वर्तमान याचिका को प्राथमिकता दी है।
निष्कर्ष
गुजरात हाईकोर्ट ने मध्यस्थता अधिनियम के प्रावधानों, समेत धारा 16, धारा 34 धारा 37 के बारे में का जायजा लिया और कहा, अधिनियम, 1996 के उपर्युक्त प्रावधान, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के प्रावधानों के तहत सिविल कोर्ट के समक्ष विवादों के निर्णय के लिए सामान्य प्रक्रिया के विकल्प के रूप में पूरी प्रक्रिया प्रदान करते हैं।
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