2018 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, अधिवक्ता की फेसबुक पोस्ट में हाईकोर्ट जज की आलोचना अवमानना नहीं
न्यायपालिका और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अपने ट्वीट के लिए अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के फैसले के औचित्य पर हो रही तीखी बहस के बीच, 2018 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए एक आदेश महत्वपूर्ण है।
यह फैसला एक न्यायाधीश के खिलाफ फेसबुक पोस्ट करने के लिए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक वकील के खिलाफ अवमानना कार्रवाई से संबंधित था।
मनीष वशिष्ठ, एक वकील और 'पंजाब केसरी' के एक संवाददाता ने हाईकोर्ट के जज न्यायामूर्ति
इंद्रजीत सिंह के खिलाफ 2017 में एक फेसबुक पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि न्यायाधीश ने उन्हें सुनवाई का मौका दिया बिना, उनके तीन मामलों को गैर-कानूनी ढंग से खारिज़ कर दिया।
उन्होंने कहा कि न्यायाधीश ने जजमेंट रिलीज़ करने में एक सप्ताह का समय लिया, क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि इसमें क्या लिखना है। अधिवक्ता ने आरोप लगाया था कि इससे बेहतर निर्णय एक मजिस्ट्रेट लिखा सकता था।
पोस्ट में आगे कहा गया था कि हालांकि, हाईकोर्ट के जज, मजिस्ट्रेटों को उसी दिन आदेश अपलोड न करने के लिए झिड़कते हैं, जबकि वह स्वयं 7 दिनों के बाद भी आदेश अपलोड नहीं कर रहे हैं।
फेसबुक पोस्ट के बारे में पता चलने के बाद, जस्टिस इंद्रजीत सिंह ने अधिवक्ता के खिलाफ मुकदमे की कार्यवाही शुरू की और मामले को एक खंडपीठ के पास भेज दिया।
इस मामले पर जस्टिस एमएस बेदी और हरि पाल वर्मा की खंडपीठ ने विचार किया।
अधिवक्ता-पत्रकार ने अवमानना नोटिस के जवाब में तर्क दिया कि अदालत अभियोजक और खुद के ही मामले में जज नहीं हो सकती है। डिवीजन बेंच ने यह कहते हुए उनकी बातों को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय के पास अपनी गरिमा और अधिकार की रक्षा के लिए, संविधान के अनुच्छेद 215 के तहत अवमानना अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने की निहित शक्ति है।
न्यायालय ने माना कि अधिवक्ता की पोस्ट न्यायालय की अवमानना है:
"उन्हें अवमाननापूर्ण प्रकाशन, अनुलग्नक P-8, कि उनके खिलाफ उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय बोलता हुआ नहीं है और इससे बेहतर निर्णय मजिस्ट्रेट लिख सकता था, करने के कारण अदालत की अवमानना करने का दोषी माना जाता है।"
हालांकि दोषी ने आग्रह किया था कि सजा तय करने में इस तथ्य पर विचार किया जा सकता है कि वह एक वकील है, लेकिन न्यायालय ने याचिका को ठुकरा दिया और उन्हें एक महीने के कारावास की सजा सुनाई थी।
न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ता, न्यायालय के अधिकारियों के रूप में, न्यायालय की गरिमा और अधिकार को बनाए रखते हैं।
"न्यायालय की गरिमा और अधिकार को न केवल आम जनता को बनाए रखना पड़ता है, बल्कि अधिवक्ताओं द्वारा भी, जो न्याय प्रशासन की प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं और न्यायालय के अधिकारी माने जाते हैं"।
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए उसे एक महीने की अवधि के लिए सजा को निलंबित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने एक पृष्ठ के आदेश में उन्हें दोषी ठहराए जाने और सजा को दरकिनार करते हुए कहा कि यह ऐसा मामला नहीं है, जहां प्रथम स्थान पर अवमानना कार्रवाई की जानी चाहिए थी।
शीर्ष अदालत के अपने आदेश में हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए मामले की खूबियों पर चर्चा नहीं की।
12 नवंबर, 2018 को पारित आदेश में जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा, "हम मामले पर विस्तार से विचार किया और तय किया कि यह ऐसा मामला नहीं है, जहां अपीलकर्ता, जो कि एक वकीन है, के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जानी चाहिए। हम अपील को अनुमति देते हैं और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हैं।"
14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को न्यायपालिका के खिलाफ ट्वीट करने के लिए आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया। हार्ले डेविडसन बाइक पर बैठे सीजेआई बोबडे की तस्वीर के संदर्भ में किए गए एक ट्वीट में आरोप लगाया गया कि सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखते हुए सीजेआई महंगी बाइक सवारी का आनंद ले रहे हैं।
एक अन्य ट्वीट में आरोप लगाया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले छह वर्षों में लोकतंत्र की बर्बादी में योगदान दिया है, और अंतिम 4 सीजेआई ने इसमें विशेष भूमिका निभाई है।
न्यायालय ने कहा कि ट्वीट "विकृत तथ्यों" पर आधारित थे और इसमें अदालत के अधिकार और सम्मान को नुकसान पहुंचाने का प्रभाव है।
जस्टिस अरुण मिश्रा, बीआर गवई और कृष्ण मुरारी की बेंच ने फैसले में कहा, "ट्वीट में भारतीय लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण आधार की नींव को अस्थिर करने का प्रभाव है ... इसमें कोई संदेह नहीं है, कि यह ट्वीट न्यायपालिका की संस्था में जनता के विश्वास को हिला देता है।"
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