अभियुक्त की 'डिफॉल्ट बेल' की माकूल स्थिति आ जाने पर कोर्ट को उसके इस अधिकार के बारे में बताना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-10-28 05:31 GMT

Supreme Court of India

"मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह की जानकारी साझा करने से अभियोजन पक्ष का टालमटोल वाला रवैया विफल होगा"

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त की 'डिफॉल्ट जमानत' की माकूल स्थिति आ जाने पर कोर्ट को चाहिए कि वह अभियुक्त को उसके इस अपरिहार्य अधिकार की उपलब्धता के बारे में बताये।

न्यायमूर्ति यू. यू. ललित, न्यायमूर्ति एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति विनीत सरन की खंडपीठ ने सोमवार को दिये गये अपने फैसले में कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167(2) के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उपलब्ध अत्यधिक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों का ही हिस्सा हैं। बेंच ने यह भी कहा है कि यदि कोर्ट जमानत अर्जी पर कोई फैसला नहीं लेता है और अभियोजन पक्ष को समय देकर सुनवाई टाल देता है तो यह विधायी आदेश का उल्लंघन होगा।

कोर्ट ने कहा कि 'डिफॉल्ट जमानत' का प्रावधान निष्पक्ष ट्रायल तथा त्वरित जांच एवं ट्रायल सुनिश्चित करने और ऐसी युक्तियुक्त प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए है, जिससे समाज के गरीबों, वंचितों के हित संरक्षित हो सकें।

कोर्ट ने 'राकेश कुमार पॉल बनाम असम सरकार, (2017) 15 एससीसी 67' के मामले का उल्लेख करते हुए कहा :

"एक सावधानी के उपाय के तौर पर अभियुक्त के वकील के साथ-साथ मजिस्ट्रेट को भी माकूल वक्त और स्थिति आ जाने पर सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकार की उपलबधता के बारे में बगैर किसी विलंब के सूचित करना चाहिए। यह समाज के वंचित वर्ग के अभियुक्तों के मामले में खासतौर पर किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे अभियुक्तों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी होने की संभावना नहीं होती है। मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह की जानकारी साझा किये जाने से अभियोजन पक्ष के टालमटोल वाले रवैये पर विराम लगेगा और यह सुनिश्चित होगा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार एवं सीआरपीसी के कारण एवं उद्देश्यों को लागू किया जा सका है।"

कोर्ट ने यह भी दोहराया कि 'डिफॉल्ट जमानत' की अर्जी पर सरकार को नोटिस सिर्फ इसलिए जारी किया जाता है कि सरकारी वकील कोर्ट को इस बात से संतुष्ट कर सकें कि अभियोजन ने कोर्ट से समय बढ़ाने का आदेश प्राप्त किया हुआ है, या निर्धारित अवधि समाप्त होने से पहले संबंधित कोर्ट में चालान फाइल किया जा चुका है, या निर्धारित अवधि वास्तव में समाप्त नहीं हुई है। अभियोजन पक्ष तदनुसार कोर्ट से 'डिफॉल्ट' के आधार पर जमानत अर्जी मंजूर किये जाने का अनुरोध कर सकता है।

कोर्ट ने कहा :

"इस प्रकार के नोटिस जारी करने से अभियुक्तों द्वारा जानबूझकर या कुछ तथ्यों को बेपरवाह तरीके से तोड़ - मरोड़कर डिफॉल्ट जमानत हासिल करने की संभावना से रोका जा सकेगा, साथ ही कई स्तर पर कार्यवाही पर विराम भी लगेगा। हालांकि, सरकारी वकीलों को मुकदमे को लंबा खींचने और जांच एजेंसी की जांच में कमी को छुपाने के लिए अतिरिक्त समय मांगने के उद्देश्य से दूसरी याचिका/ रिपोर्ट दायर करके सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत दायर जमानत अर्जी पर कोर्ट की ओर से जारी सीमित नोटिस के दुरुपयोग की अनुमति नहीं दी जा सकती।"

कोर्ट ने अभियुक्तों को जमानत पर रिहा होने के अति महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित रखने के लिए अभियोजकों की ओर से संबंधित कोर्ट के समक्ष अतिरिक्त शिकायत दर्ज करने की प्रवृत्ति की भी निंदा की।

"यदि इस तरह की प्रथा की अनुमति दी जाती है तो धारा 167(2) के तहत प्रदत्त अधिकार निरर्थक हो जायेंगे, क्योंकि जांच अधिकारी अभियुक्त को उसके अधिकार के इस्तेमाल से वंचित रखने के लिए अंतिम समय तक प्रयास कर सकते हैं और जमानत अर्जी पर विचार से ऐन पहले अभियुक्त के नाम के साथ अतिरिक्त शिकायत दर्ज कर सकते हैं। इस तरह की शिकायत फिल्मी कहानियों पर आधारित या अभियुक्त को हिरासत में रखने के लिए हो सकती है ... अपराध की गम्भीरता और उपलब्ध साक्ष्यों की विश्वसनीयता के बावजूद, डिफॉल्ट जमानत की अर्जी को नाकाम करने के इरादे से दर्ज अतिरिक्त शिकायतें, हमारे विचार से अनुचित रणनीति है।"

केस का नाम : एम रवीन्द्रन बनाम खुफिया अधिकारी

केस का नंबर : क्रिमिनल अपील नंबर 699 / 2020

कोरम: न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति विनीत सरन

वकील : एडवोकेट अरुणिमा सिंह, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अमन लेखी

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