"यह वादियों की कमर तोड़ता है, अपमानित करता है और न्याय की हत्या करता है": सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों से 'तारीख पर तारीख देने की संस्कृति' से बाहर निकलने का आग्रह किया
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पारित एक आदेश में, अदालतों से नियमित तरीके से बार-बार स्थगन न देने का आग्रह किया है।
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एएस बोपन्ना ने कहा कि अब समय आ गया है कि कार्य संस्कृति को बदलें और स्थगन संस्कृति से बाहर निकलें ताकि न्याय वितरण प्रणाली में वादियों का विश्वास और आस्था समाप्त न हो जाए और कानून का शासन बना रहे।
कोर्ट ने कहा कि बार-बार स्थगन से वादियों की कमर टूट जाती है और परिणामस्वरूप वे न्याय वितरण प्रणाली में विश्वास खो देते हैं। बेंच ने टिप्पणी की कि एक न्यायिक अधिकारी को वादियों के प्रति अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखना होगा और अनावश्यक स्थगन नहीं देने के लिए 'बार की नाराजगी' के बारे में चिंता करना छोड़ना होगा।
कोर्ट ने एक विशेष अनुमति याचिका पर विचार करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसे उसने 'अदालत द्वारा दिए गए स्थगन के दुरुपयोग का उत्कृष्ट उदाहरण' करार दिया। इस मामले में, वादी ने वर्ष 2013 में बेदखली, किराए की बकाया राशि और मेस्ने प्रॉफिट के लिए मुकदमा दायर किया था।
कोर्ट ने कहा कि बार-बार स्थगन की मांग और अदालत द्वारा उसकी मंजूरी के बावजूद और अंतिम तौर पर दो बार स्थगन को प्रदान किए जाने एवं यहां तक कि जुर्माना लगाये जाने के बावजूद, प्रतिवादी वादी के गवाह से जिरह करने में विफल रहा।
कोर्ट ने कहा कि यद्यपि प्रतिवादी को वादी के गवाह से जिरह करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता दी गई थी, लेकिन उन्होंने कभी भी इसका लाभ नहीं उठाया और स्थगन की बार-बार प्रार्थना करके कार्यवाही में देरी करते रहे और दुर्भाग्य से ट्रायल कोर्ट और बाद में हाईकोर्ट ने भी तारीख पर तारीख देना जारी रखा। और इस तरह से मुकदमे के निपटान में देरी हुई, जो बेदखली के लिए थी।
पीठ ने हाईकोर्ट के उस आदेश के खिलाफ दायर एसएलपी को खारिज करते हुए अपने आदेश में निम्नलिखित टिप्पणियां (पैरा 5.5) कीं, जिसने वादी के गवाह से जिरह करने के अधिकार को बंद करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की।
कानून और पेशेवर नैतिकता इस तरह के अभ्यास की अनुमति नहीं देते हैं।
इस तरह का रवैया पूरी तरह निंदनीय है। कानून और पेशेवर नैतिकता इस तरह के अभ्यास की अनुमति नहीं देते हैं। किसी न किसी बहाने बार-बार स्थगन और देरी की रणनीति अपनाना न्याय और मामलों के त्वरित निपटान की अवधारणा का अपमान है।
इस तरह की देरी और लंबी रणनीति के कारण लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है
आज न्यायपालिका और न्याय वितरण प्रणाली देरी की गंभीर समस्या का सामना कर रही है, जो अंततः वादी के न्याय तक पहुंचने के अधिकार और त्वरित सुनवाई को प्रभावित करती है। इस तरह की देरी की रणनीति, अधिवक्ताओं द्वारा बार-बार स्थगन की मांग तथा यांत्रिक रूप से और अदालतों द्वारा नियमित तरीके से दिए गए स्थगन के कारण लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही हैं।
कई बार तो स्थगन का काम न्याय की हत्या के लिए किया जाता है
इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि न्याय तक पहुँच में देरी और समय पर न्याय न मिलना न्याय वितरण प्रणाली में वादियों के विश्वास और आस्था को हिला सकता है। कई बार स्थगन का काम न्याय की हत्या के लिए किया जाता है। बार-बार स्थगन से वादियों की कमर टूट जाती है।
अदालतें न्यायिक प्रशासन में आम आदमी के विश्वास को मजबूत करने के उद्देश्य से अपने कर्तव्यों का पालन करती हैं। कोई भी प्रयास जो व्यवस्था को कमजोर करता है और न्याय व्यवस्था में आम आदमी के विश्वास को डिगाता है, उसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
इसलिए अदालतें नियमित तरीके से और यंत्रवत् रूप से स्थगन नहीं देंगी और न्याय देने में देरी का कारण नहीं बनेंगी। कुशल न्याय व्यवस्था शुरू करने और कानून के शासन में विश्वास बनाए रखने के लिए अदालतों को तत्पर होना चाहिए और समय पर कार्रवाई करनी चाहिए।
न्यायिक अधिकारी को वादकारियों के प्रति अपने कर्तव्यों का ध्यान रखना होगा, 'बार की नाराजगी' की नहीं होनी चाहिए चिंता
हम यह भी जानते हैं कि जब भी निचली अदालतों ने कई बार अनावश्यक स्थगन देने से इनकार कर दिया तो उन पर सख्त होने का आरोप लगाया जाता है और उन्हें बार की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है।
हालांकि, न्यायिक अधिकारियों को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि यदि उनका विवेक स्पष्ट है और न्यायिक अधिकारी को उन वादियों के प्रति अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखना है, जो अदालतों के समक्ष न्याय के लिए आए हैं और जिनके लिए अदालतें बनी हैं और अदालतों द्वारा वादियों को समय पर न्याय प्रदान करने के लिए सभी प्रयास होने चाहिए।
कार्य संस्कृति को बदलने और स्थगन संस्कृति से बाहर निकलने का समय आ गया है
वर्तमान मामले का ही उदाहरण लें। मुकदमा बेदखली के लिए था। कई बार मकान मालिक की वास्तविक आवश्यकताओं के आधार पर बेदखली के लिए मुकदमा दायर किया जाता है। यदि व्यक्तिगत वास्तविक आवश्यकता के आधार पर बेदखली की मांग करने वाले वादी को समय पर न्याय नहीं मिल रहा है और उसे अंततः 10 से 15 वर्षों के बाद डिक्री मिल जाती है, तो कभी-कभी व्यक्तिगत वास्तविक आवश्यकता के आधार पर बेदखली की डिक्री प्राप्त करने का उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता है।
परिणामी प्रभाव यह होगा कि ऐसा वादी न्याय वितरण प्रणाली में विश्वास खो देगा और दीवानी मुकदमा दायर करने और कानून का पालन करने के बजाय वह दूसरा तरीका अपना सकता है जिसका कानून कोई समर्थन नहीं करता है और अंततः यह कानून के शासन को प्रभावित करता है।
इसलिए, अदालत स्थगन देने में परहेज करेगी और जैसा कि ऊपर बताया गया है वे नियमित तरीके से बार-बार स्थगन नहीं देंगी। अब कार्य संस्कृति को बदलने और स्थगन संस्कृति से बाहर निकलने का समय आ गया है ताकि न्याय वितरण प्रणाली में वादियों का विश्वास और आस्था न डिगे और कानून का शासन बना रहे।
इस फैसले में 'बाबू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1978) 1 एससीसी 579', 'शिव कोटेक्स बनाम तिरगुन ऑटो प्लास्ट (पी) लिमिटेड (2011) 9 एससीसी 678'; 'नूर मोहम्मद बनाम जेठानंद (2013) 5 एससीसी 202' मामलों के निर्णयों में की गई टिप्पणियों को भी उद्धृत किया गया है।
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 500
केस: ईश्वरलाल माली राठौड़ बनाम गोपाल
केस नंबर/ दिनांक: एसएलपी (सी) 14117-14118/2021/ दिनांक 20 सितंबर 2021
कोरम: जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एएस बोपन्ना
ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें