सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह और निकाह हलाला की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अक्टूबर में सुनवाई करेगा; NHRC, NCW और NCM को नोटिस जारी किया

Update: 2022-08-30 07:43 GMT

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की संविधान पीठ दशहरा की छुट्टियों (अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में) के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ (Muslim Personal Law) द्वारा अनुमत बहुविवाह (Polygamy) और निकाह हलाला (Nikah Halala) की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू करेगी।

इन प्रथाओं को चुनौती देने वाली आठ याचिकाओं को जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस हेमंत गुप्ता, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस सुधांशु धूलिया की 5 जजों की पीठ के समक्ष मंगलवार को सूचीबद्ध किया गया था।

पीठ ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को नोटिस जारी किया और दशहरा की छुट्टियों के बाद सुनवाई के लिए याचिकाओं को पोस्ट किया।

मार्च 2018 में मामलों को 3-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 5-न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था।

याचिका कुछ मुस्लिम महिलाओं नैसा हसन, सबनाम, फरजाना, समीना बेगम ने दायर की हैं और साथ ही वकील अश्विनी उपाध्याय और मोहसिन कथिरी ने बहुविवाह और निकाह-हलाला की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है। मुस्लिम महिला प्रतिरोध समिति नाम के एक संगठन ने एक याचिका दायर की है। जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने प्रथाओं का समर्थन करने वाले मामले में हस्तक्षेप किया है।

शरिया या मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, पुरुषों को बहुविवाह की अनुमति है, यानी वे एक ही समय में एक से अधिक पत्नी रख सकते हैं, कुल चार पत्नी रख सकते हैं।

'निकाह हलाला' एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक मुस्लिम महिला को अपने तलाकशुदा पति से दोबारा शादी करने की अनुमति देने से पहले दूसरे व्यक्ति से शादी करनी होती है और उससे तलाक लेना पड़ता है।

याचिकाकर्ताओं ने बहुविवाह और निकाह-हलाला पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए कहा है कि यह मुस्लिम पत्नियों को बेहद असुरक्षित, कमजोर बनाता है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

याचिकाओं में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 की धारा 2 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 की उल्लंघन करने वाली घोषित की जानी चाहिए क्योंकि यह बहु विवाह और निकाह हलाला को मान्यता देता है।

जमीयत-उलमा-ए-हिंद का तर्क है कि संविधान पर्सनल लॉ को नहीं छूता है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट प्रथाओं की संवैधानिक वैधता के सवाल की जांच नहीं कर सकता है। उनका तर्क है कि यहां तक कि शीर्ष अदालत और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पहले के मौकों पर पर्सनल लॉ द्वारा स्वीकृत प्रथाओं में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है, एक तर्क जो उन्होंने ट्रिपल तालक चुनौती मामले में भी आगे बढ़ाया, जिसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है।

केस: अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ | डब्ल्यू.पी. (सी) संख्या 202/2018 और जुड़े मामले

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