सुप्रीम कोर्ट ने इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ कविता को लेकर दर्ज FIR पर किए सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई कविता को लेकर कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज FIR पर सवाल उठाए।
गुजरात हाईकोर्ट द्वारा FIR रद्द करने से इनकार करने के खिलाफ प्रतापगढ़ी द्वारा दायर याचिका पर विचार करते हुए जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने कहा कि पुलिस ने कविता के सही अर्थ को नहीं समझा है।
जस्टिस ओक ने राज्य की ओर से पेश एडवोकेट स्वाति घिल्डियाल से कहा,
"कृपया कविता देखें। (हाई) कोर्ट ने कविता के अर्थ को नहीं समझा है। यह अंततः एक कविता है।"
जस्टिस ओक ने कहा,
"यह अंततः एक कविता है। यह किसी धर्म के खिलाफ नहीं है। यह कविता अप्रत्यक्ष रूप से कहती है कि भले ही कोई हिंसा में लिप्त हो, हम हिंसा में लिप्त नहीं होंगे। कविता यही संदेश देती है। यह किसी विशेष समुदाय के खिलाफ नहीं है।"
याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा,
"न्यायाधीश ने कानून के साथ हिंसा की है। यही मेरी चिंता है।"
राज्य के वकील के अनुरोध पर खंडपीठ ने अंततः मामले को तीन सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया।
जस्टिस ओक ने मामला स्थगित करते हुए राज्य के वकील से कहा,
"कृपया कविता पर अपना ध्यान लगाएं। आखिरकार, रचनात्मकता भी महत्वपूर्ण है।"
इससे पहले, न्यायालय ने FIR के अनुसरण में आगे की सभी कार्यवाही रोककर याचिकाकर्ता को अंतरिम राहत दी थी। FIR इंस्टाग्राम पोस्ट पर दर्ज की गई, जिसमें बैकग्राउंड में "ऐ खून के प्यासे बात सुनो" कविता के साथ एक वीडियो क्लिप थी।
FIR सिटी ए-डिवीजन पुलिस स्टेशन, जामनगर द्वारा दर्ज की गई। प्रतापगढ़ी द्वारा प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाने वाली कविता कथित तौर पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 196, 197, 299, 302 और 57 का उल्लंघन करती है। धारा 196 धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने और सद्भाव बनाए रखने के लिए हानिकारक कार्य करने से संबंधित है।
गुजरात हाईकोर्ट ने 17 जनवरी, 2025 को FIR रद्द करने से इनकार कर दिया। आगे की जांच की आवश्यकता पर जोर दिया और अपने फैसले में प्रतापगढ़ी द्वारा जांच प्रक्रिया में असहयोग को एक कारक के रूप में उद्धृत किया।
हाईकोर्ट ने कहा कि कविता के स्वर से सिंहासन के बारे में कुछ संकेत मिलता है। पोस्ट पर कमेंट्स से सामाजिक सद्भाव में संभावित गड़बड़ी का संकेत मिलता है। न्यायालय ने इस अपेक्षा को रेखांकित किया कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से एक सांसद को इस तरह से व्यवहार करना चाहिए, जिससे सांप्रदायिक या सामाजिक सद्भाव बाधित न हो।
हाईकोर्ट ने कहा,
"कविता के भाव को देखते हुए यह निश्चित रूप से सिंहासन के बारे में कुछ संकेत देता है। अन्य व्यक्तियों द्वारा उक्त पोस्ट पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं से भी संकेत मिलता है कि संदेश इस तरह से पोस्ट किया गया, जो निश्चित रूप से सामाजिक सद्भाव में व्यवधान पैदा करता है। भारत के किसी भी नागरिक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसा व्यवहार करे, जिससे सांप्रदायिक सद्भाव या सामाजिक सद्भाव में व्यवधान न आए। याचिकाकर्ता, जो एक संसद सदस्य है, उससे अपेक्षा की जाती है कि वह कुछ अधिक संयमित तरीके से व्यवहार करे, क्योंकि उसे ऐसी पोस्ट के परिणामों के बारे में अधिक जानकारी होनी चाहिए।"
हाईकोर्ट ने पाया कि आगे की जांच आवश्यक है, क्योंकि प्रतापगढ़ी ने कानून को बनाए रखने की अपेक्षा रखने वाले विधायक होने के बावजूद जांच प्रक्रिया में सहयोग नहीं किया और 4 और 15 जनवरी को जारी किए गए नोटिस का जवाब देने में विफल रहे, जिसमें क्रमशः 11 और 22 जनवरी को उनकी उपस्थिति की आवश्यकता थी।
हाईकोर्ट ने आगे की जांच की आवश्यकता पर जोर दिया। पिछले मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा कि अदालत को शुरुआत में ही FIR रद्द नहीं करना चाहिए।
केस टाइटल- इमरान प्रतापगढ़ी बनाम गुजरात राज्य