20,000 रुपये से अधिक नकद लेनदेन भी वैध ऋण : सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट का फैसला रद्द किया
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में PC Hari बनाम Shine Varghese मामले में केरल हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि आयकर अधिनियम, 1961 का उल्लंघन करते हुए 20,000 रुपये से अधिक नकद लेनदेन से बना ऋण धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) के तहत “कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण” नहीं माना जा सकता जब तक कि उसके लिए संतोषजनक स्पष्टीकरण न दिया जाए।
जस्टिस पी.के. मिश्रा और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की खंडपीठ ने कहा कि यह दृष्टिकोण सुप्रीम कोर्ट के समन्वय पीठ (co-ordinate bench) द्वारा Sanjabij Tari बनाम Kishore Borcar में पहले ही गलत ठहराया जा चुका है। इसलिए हाईकोर्ट का निर्णय स्थिर नहीं रह सकता और मामले को पुनः गुण-दोष पर विचार करने के लिए हाईकोर्ट को वापस भेजा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट: आयकर कानून का उल्लंघन लेनदेन को अवैध नहीं बनाता
Sanjabij Tari मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि—
धारा 269SS, आयकर अधिनियम केवल नकद लेनदेनों की सीमा निर्धारित करती है,
इसका उल्लंघन धारा 271D के तहत पेनल्टी को आकर्षित करता है,
लेकिन इससे लेनदेन न अवैध (illegal) होता है, न शून्य (void) और न ही एनआई एक्ट के तहत अप्रामाण्य।
अदालत ने कहा:
“धारा 269SS का उल्लंघन लेनदेन को अवैध या अप्रवर्तनीय नहीं बनाता। इसलिए ऐसे लेनदेन पर आधारित चेक वापसी मामलों में धारा 138 NI Act की कार्यवाही जारी रहेगी और धारा 118 व 139 की वैधानिक उपधारणाएं अपरिवर्तित रहेंगी।”
केरल हाईकोर्ट का निष्कर्ष त्रुटिपूर्ण
केरल हाईकोर्ट ने माना था कि—
20,000 रुपये से अधिक नकद भुगतान आयकर अधिनियम का उल्लंघन है,
इसलिए बाद में दिए गए चेक पर आपराधिक कार्रवाई नहीं की जा सकती,
और बिना उचित स्पष्टीकरण के ऐसे लेनदेन “अवैध” माने जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए कहा कि आयकर अधिनियम द्वारा तय की गई पेनल्टी को बढ़ाकर लेनदेन को अवैध मानना न्यायिक अतिरेक (judicial overreach) है और इससे दो विशेष अधिनियमों के बीच सामंजस्य भी बिगड़ता है।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता ने आरोपी को 9 लाख रुपये नकद दिए।
आरोपी ने इसकी भरपाई हेतु चेक जारी किया, जो बाद में अपर्याप्त निधि के कारण dishonour हो गया।
ट्रायल कोर्ट और अपीलीय अदालत ने आरोपी को दोषी ठहराया।
हाईकोर्ट ने धारा 269SS के उल्लंघन के आधार पर दोषसिद्धि रद्द कर दी।
शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और तर्क दिया कि—
प्रतिबंध राशि स्वीकार करने वाले पर लागू होता है, न कि उधार देने वाले पर,
लेनदेन स्वयं वैध है,
दंड पहले से ही आयकर अधिनियम में मौजूद है,
और NI Act में देनदारी समाप्त करने जैसा कोई परिणाम नहीं जुड़ा है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
20,000 रुपये से अधिक नकद लेनदेन को अवैध या अप्रामाण्य मानने का दृष्टिकोण गलत है,
ऐसे लेनदेन धारा 138 NI Act के लिए “legally enforceable debt” बने रहेंगे,
हाईकोर्ट का निर्णय कानून के अनुरूप नहीं है।
मामला अब हाईकोर्ट को पुनः विचार के लिए भेजा गया है।