'धर्मनिरपेक्षता हमेशा संविधान का हिस्सा रही है:' प्रस्तावना में संशोधन के खिलाफ याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-10-21 08:11 GMT

धर्मनिरपेक्षता हमेशा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रही है, सुप्रीम कोर्ट ने 42वें संशोधन के अनुसार संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मौखिक रूप से कहा।

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ मामले की सुनवाई कर रही थी।

जस्टिस खन्ना ने मौखिक रूप से कहा,

"इस न्यायालय के कई निर्णय हैं, जो मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता हमेशा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रही है। अगर संविधान में इस्तेमाल किए गए समानता और बंधुत्व शब्द के साथ-साथ भाग III के तहत अधिकारों को देखें तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता माना गया।"

जज ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी मॉडल के विपरीत भारत ने धर्मनिरपेक्षता का एक नया मॉडल अपनाया है।

पीठ बलराम सिंह सीनियर BJP नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा प्रस्तावना में संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।

सुनवाई के दौरान जस्टिस खन्ना ने याचिकाकर्ताओं से पूछा,

"आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष हो?"

याचिकाकर्ता बलराम सिंह के एडवोकेट विष्णु शंकर जैन ने जवाब दिया,

"हम यह नहीं कह रहे हैं कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं है। हम इस संशोधन को चुनौती दे रहे हैं।"

जैन ने आगे कहा कि डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि "समाजवाद" शब्द को शामिल करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगेगा।

इसके जवाब में जस्टिस खन्ना ने कहा,

"समाजवाद का अर्थ यह भी हो सकता है कि अवसर की समानता हो और देश की संपत्ति समान रूप से वितरित की जाए...हम पश्चिमी अर्थ नहीं लेते।"

दूसरी ओर, एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने जोर देकर कहा कि भारत अनादि काल से धर्मनिरपेक्ष रहा है।

डॉ. स्वामी ने कहा कि प्रस्तावना 26 नवंबर, 1949 को की गई एक घोषणा थी। इसलिए बाद में संशोधन के माध्यम से इसमें और शब्द जोड़ना मनमाना था। उन्होंने कहा कि यह दर्शाना गलत है कि वर्तमान प्रस्तावना के अनुसार, भारतीय लोगों ने 26 नवंबर, 1949 को भारत को समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाने पर सहमति व्यक्त की थी।

इसके जवाब में जस्टिस खन्ना ने कहा कि संशोधन द्वारा जोड़े गए शब्दों को अलग से कोष्ठक द्वारा चिह्नित किया गया था। इसलिए यह सभी के लिए स्पष्ट है कि उन्हें 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया था। न्यायाधीश ने आगे बताया कि राष्ट्र की "एकता" और "अखंडता" जैसे शब्द भी संशोधन द्वारा जोड़े गए।

इसके बाद उपाध्याय ने तर्क दिया कि यदि इस तरह के संशोधन को मंजूरी दी जाती है तो इसका मतलब यह हो सकता है कि भविष्य में प्रस्तावना में लोकतांत्रिक जैसे शब्दों को हटाने के लिए संशोधन किया जा सकता है।

अंततः मामले को 18 नवंबर से शुरू होने वाले सप्ताह में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया।

केस टाइटल: बलराम सिंह बनाम भारत संघ, डब्ल्यू.पी.(सी) संख्या 645/2020, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ, डब्ल्यू.पी.(सी) संख्या 1467/2020 और अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ, एमए 835/2024

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