सीआरपीसी की धारा 313 के तहत जांच महज प्रक्रियागत औपचारिकता नहीं है, ट्रायल कोर्ट को अभियुक्त से एहतियात और सावधानी से पूछताछ करनी होती है : सुप्रीम कोर्ट
"सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अभियुक्त से पूछताछ को महज प्रक्रियागत औपचारिकता के तौर पर नहीं माना जा सकता।"
सुप्रीम कोर्ट ने कल जारी एक आदेश में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 के तहत बहुत ही लापरवाह और सरसरी तरीके से बयान रिकॉर्ड कराये जाने को लेकर अपनी चिंता जतायी।
मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की बेंच ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 313 के तहत किसी अभियुक्त से पूछताछ को महज प्रक्रियागत औपचारिकता के रूप में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि यह निष्पक्षता के मौलिक सिद्धांत पर आधारित है।
कोर्ट ने कहा कि यह (धारा) अभियुक्त से एहतियात और सावधानीपूर्वक पूछताछ करने का (ट्रायल) कोर्ट को दायित्व प्रदान करता है।
कोर्ट ने उस अभियुक्त द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 304(बी) के तहत दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को आईपीसी की धाराओं 304-बी और 306 में निहित अपराधों के लिए दोषी ठहराया था और आईपीसी की धारा 304(बी) के तहत सजा वाले अपराध के लिए सात साल सश्रम कारावास की सजा और आईपीसी की धारा 306 के तहत सजा वाले अपराध के लिए पांच साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी थी। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था।
20. यह गम्भीर चिंता का विषय है कि अक्सर ट्रायल कोर्ट सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अभियुक्त का बयान उसके बचाव के बारे में विशेष रूप से पूछताछ किए बिना ही, बहुत ही लापरवाह तरीके से और सरसरी तौर पर रिकॉर्ड करते हैं। इसे भी अंकित किया जाना चाहिए कि सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अभियुक्त से पूछताछ को केवल प्रक्रियागत औपचारिकता के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह निष्पक्षता के मौलिक सिद्धांत पर आधारित है। इसके प्रावधान में प्राकृतिक न्याय का बहुमूल्य सिद्धांत 'ऑडी अल्ट्रम पार्टेम' ( निर्णय सुनाने से पहले दूसरे का पक्ष भी सुनने का सिद्धांत) निहित हैं, क्योंकि यह अभियुक्त को उसके खिलाफ पेश किये गये आपत्तिजनक सामग्रियों के लिए स्पष्टीकरण का मौका सुनिश्चित करता है। इसलिए यह अभियुक्त से एहतियात और सावधानी पूर्वक निष्पक्ष पूछताछ का दायित्व भी कोर्ट पर डालता है। कोर्ट को निश्चित तौर पर अभियुक्त के समक्ष उन आपत्तिजनक परिस्थितियों का जिक्र करना चाहिए और उसका जवाब मांगना चाहिए। अभियुक्त के वकील पर भी एक दायित्व होता है कि वह साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी के साथ पढ़ी जाने वाली आईपीसी की धारा 304-बी की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ट्रायल शुरू होने के समय से ही अपने मुवक्किल के बचाव की तैयारी करे।
कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 232 का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि,
"अभियोजन के लिए साक्ष्य लेने, अभियुक्त से पूछताछ करने और उन बिंदुओं पर अभियोजन एवं बचाव पक्ष की दलीलें सुनने के बाद यदि जज यह मानता है कि अभियुक्त द्वारा अपराध करने का कोई साक्ष्य नहीं है तो वह बरी करने का आदेश दर्ज करेगा।"
कोर्ट ने कहा,
"एकबारगी ट्रायल कोर्ट यह निर्णय करता है कि अभियुक्त सीआरपीसी की धारा 232 के प्रावधानों के तहत बरी किये जाने योग्य नहीं है तो उसे निश्चित रूप से आगे बढ़ना चाहिए और बचाव पक्ष की गवाही के लिए सुनवाई की तारीख मुकर्रर करनी चाहिए तथा अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 233 के तहत उपलब्ध प्रक्रिया के अनुसार अपने बचाव के लिए बुलाया जाना चाहिए। यह धारा भी अभियुक्त को बचाव के लिए दिया जाने वाला बहुमूल्य अधिकार है। इस तरह के प्रक्रियागत अधिकार का अस्तित्व साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी के तहत प्रदान किये गये खंडन योग्य धारणा के साथ मिलाजुला होता है।"
केस : सतबीर सिंह बनाम हरियाणा सरकार [सीआरए 1735-1736/2010]
कोरम : सीजेआई एन वी रमना, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 260
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