धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान को दरकिनार करते हुए सभी नागरिकों के लिए तलाक के आधार एक समान होंं, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर केंद्र को निर्देश देने की मांग

Plea In SC Seeks Direction To The Centre For Uniform Grounds Of Divorce For All Citizens Regardless Of Religion, Race, Caste, Sex, Place Of Birth

Update: 2020-08-16 16:39 GMT

सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर मांग की गई है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि तलाक के आधारों की विसंगतियों को दूर करने के लिए उचित कदम उठाएं। वहीं इनको अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और संविधान के अनुच्छेद 14,15,21,44 की मूल भावना के तहत धर्म, वंश,जाति, लिंग या स्थान के आधार पर पक्षपात किए बिना ही सभी नागरिकों के लिए एक समान बनाया जाए।

यह जनहित याचिका भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की तरफ से दायर की गई है इस याचिका में वैकल्पिक मांग करते हुए कहा गया है कि कोर्ट को संविधान की संरक्षक और मौलिक अधिकारों की रक्षक होने के नाते यह भी घोषणा कर देनी चाहिए कि तलाक के भेदभावपूर्ण आधार असंवैधानिक हैं। वहीं तलाक के विभिन्न कानूनों, सभी धर्मों और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की सर्वोत्तम प्रथाओं पर विचार करते हुए सभी नागरिकों के लिए 'यूनिफॉर्म ग्राउंड ऑफ तलाक' बनाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।

दलील दी गई है कि-

''13.09.2019 को इस कार्रवाई के कारण बने और उसके बाद वह जारी रहे क्योंकि जोस पाउलो कॉटिन्हो केस में माननीय न्यायालय ने एक बार फिर समान नागरिक कानून की आवश्यकता पर जोर दिया और इसके लिए गोवा का उदाहरण भी दिया। परंतु केंद्र तलाक के समान आधार प्रदान करने में भी विफल रहा है।''

याचिका में कहा गया है कि-

''संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण की गारंटी दी जाती है। अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है और राज्य को महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान बनाने में सक्षम बनाता है। अनुच्छेद 16 के तहत अवसर की समानता की गारंटी दी जाती है और अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 25 स्पष्ट करता है कि अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म में आस्था, उसका पालन और प्रचार का अधिकार पूर्ण नहीं है और यह अधिकार लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन आता है। अनुच्छेद 38 राज्य को स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को समाप्त करने का निर्देश देता है।

अनुच्छेद 39 राज्य को निर्देश देता है कि वह अपनी नीति के तहत यह सुनिश्चित करे कि पुरुषों-महिलाओं को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार मिल सकें। अनुच्छेद 44 राज्य को सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 46 कमजोर वर्गों के आर्थिक हित को बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाने का निर्देश देता है।

इसके अलावा, अनुच्छेद 51 ए के तहत राज्य सभी नागरिकों के बीच समान भाईचारे के सद्भाव और भावना को बढ़ावा देने,धार्मिक भाषाई परिवर्तन, क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताएं पार करना, महिलाओं की गरिमा का अपमान करने वाली प्रथाओं का त्याग करने, और वैज्ञानिक स्वभाव ,मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करने के लिए बाध्य है। इसके अलावा, 26 नवम्बर 1949 को, हम भारतीयों ने भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का संकल्प लिया हैः जिसमें न्याय, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक, विचारों की स्वतंत्रता,अभिव्यक्ति, विश्वास, विचारधारा और पूजा की स्वतंत्रता, स्थिति और अवसर की समानता, और व्यक्तिगत गरिमा का आश्वासन देने के लिए उनके बीच बिरादरी को बढ़ावा देने और राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखना आदि शामिल हैं।''

यह भी कहा गया कि संविधान में अच्छी तरह से व्यक्त किए गए इन प्रावधानों के बावजूद, केंद्र सरकार भारत के सभी क्षेत्रों में सभी नागरिकों के लिए ''यूनिफॉर्म ग्राउंड ऑफ तलाक'' प्रदान करने में विफल रही है।

याचिका में कहा गया है कि-

''जनता को होने वाली क्षति काफी बड़ी है क्योंकि तलाक पुरुषों और महिलाओं के लिए सबसे दर्दनाक दुर्भाग्य है लेकिन आजादी के 73 साल बाद भी तलाक की प्रक्रिया बहुत जटिल है ,जो न तो लिंग तटस्थ है और न ही धर्म तटस्थ।''

इतना ही नहीं हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत तलाक लेना होता है। जबकि मुस्लिम, ईसाई और पारसी के अपने निजी कानून हैं। विभिन्न धर्मों से संबंधित जोड़ों को विशेष विवाह अधिनियम, 1956 के तहत तलाक लेना होता है। यदि दोनों में से कोई एक विदेशी नागरिक है तो विदेशी विवाह अधिनियम 1969 लागू होता है। इसलिए, तलाक का आधार न तो लिंग तटस्थ है और न ही धर्म तटस्थ है।

याचिका में बताया गया है कि

''उदाहरण के लिए व्यभिचार हिंदुओं, ईसाइयों और पारसियों में तलाक का आधार है, लेकिन यह आधार मुसलमानों के लिए नहीं है। लाइलाज कुष्ठ रोग हिंदुओं और ईसाइयों के लिए तलाक का आधार है, लेकिन पारसियों और मुसलमानों के लिए नहीं। नपुंसकता हिंदू-मुस्लिमों के लिए तलाक का एक आधार है लेकिन क्रिश्चियन-पारसियों के लिए नहीं। कम उम्र में शादी करना हिंदुओं के लिए तलाक का आधार है, लेकिन ईसाईयों, पारसियों और मुस्लिमों के लिए नहीं।''

इसी तरह, तलाक के कई अन्य आधार न तो लिंग-तटस्थ हैं और न ही धर्म-तटस्थ हैं, हालांकि इक्विटी, समानता और समान अवसर हमारे जैसे समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की पहचान हैं।

दलील दी गई कि

''उक्त चल रहा भेद पितृसत्ता और रूढ़ियों पर आधारित है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, यह महिलाओं के प्रति असमानता और वास्तव में पाप है और वैश्विक रूझानों के खिलाफ है।''

''भेदभाव के लिए जिम्मेदार''वैधानिक प्रावधान भी बताए गए। जिनमें भारतीय तलाक अधिनियम 1869 की धारा 10, हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13,विशेष विवाह अधिनियम 1954 की धारा 27, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 की धारा 32, मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 की धारा 2 आदि शामिल हैं।

तीसरी वैकल्पिक राहत के रूप में याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि भारत के विधि आयोग को निर्देश दिया जाए कि वह तीन माह के अंदर तलाक से संबंधित कानूनों की जांच करें और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 44 की मूल भावना के तहत सभी नागरिकों के लिए 'यूनिफॉर्म ग्राउंड ऑफ तलाक 'का सुझाव दें।

याचिका की काॅपी डाउनलोड करें।



Tags:    

Similar News