''पर्सनल लॉ को आर्टिकल 14,15,21 के समक्ष टेस्ट नहीं किया जा सकता है'': ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तलाक के लिए एक समान आधार की मांग करने वाली जनहित याचिका में पक्षकार बनने की मांग की
तलाक के एक समान आधार की मांग करने वाली जनहित याचिका की प्रार्थना पर सवाल उठाते हुए, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने खुद को पक्षकार बनाने की मांग करते एक आवेदन दायर किया है जिसमें कहा गया है कि पर्सनल लॉ के मामलों में धार्मिक संप्रदाय का टेस्ट भारतीय संविधान के ''आर्टिकल 14, 15, 21, और 25'' के समक्ष नहीं किया जा सकता है।
एक वकील और भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय की तरफ से दायर जनहित याचिका के मामले में इस आवेदन को अधिवक्ता एम आर शमशाद के माध्यम से दायर किया गया है। इस जनहित याचिका में संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21 और 25 के साथ ही अन्य अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत भारत के सभी क्षेत्रों में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए तलाक के एक समान आधार बनाने की मांग की गई है।
जनहित याचिका पर 16 दिसंबर 2020 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमण्यन की पीठ ने नोटिस जारी किया था।
याचिका में दिए गए आधारों का विरोध करने के लिए आवेदक ने प्राथमिक दलील यह दी है कि आर्टिकल 13 के तहत ''रिवाज और आचरण'' की अभिव्यक्ति में पर्सनल लाॅ में अंतर्निहित धार्मिक संप्रदाय का विश्वास शामिल नहीं है और इसलिए, पर्सनल लाॅ को आर्टिकल 13 के दायरे से बाहर रखा गया है।
आवेदन में कहा गया है कि,''इस प्रकार, यदि पर्सनल लाॅ को आर्टिकल 13 के तहत 'लाॅ इन फोर्स' की परिभाषा से बाहर रखा गया है, तो ऐसे में विश्वास के सभी मामलों का धार्मिक संप्रदाय से सीधा संबंध होने के नाते, पर्सनल लाॅ को भारत के संविधान के आर्टिकल 14, 15,21 व 25 के समक्ष टेस्ट नहीं किया जा सकता है।''
इसके अलावा, आवेदन में यह भी कहा गया है कि हिंदुओं के बीच विवाह और तलाक से संबंधित कानून भी एक समान नहीं हैं और इस प्रकार ऐसे रिवाजों और प्रथाओं को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में धारा 29 (2) को जोड़कर संरक्षित किया गया है।
उक्त जनहित याचिका दायर करने में याचिकाकर्ता के निहित स्वार्थ पर सवाल उठाते हुए, आवेदक ने कहा कि ''याचिकाकर्ता एक राजनीतिक व्यक्ति है और उसने अपने निहित स्वार्थों के साथ अधिकांश याचिकाएं अपने राजनीतिक प्रतिष्ठान में खुद को राजनीतिक रूप से स्थापित करने के लिए दायर की हैं। यह सभी याचिकाएं अनुरक्षणीय नहीं है,परंतु फिर भी इनके जरिए मीडिया कवरेज खूब मिल जाती है। इसप्रकार वह अपने राजनीतिक मकसद के लिए अदालत (हाईकोर्ट की भी) की प्रक्रिया का उपयोग कर रहे हैं।''
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पिंकी आनंद ने दलील दी थी कि ये पर्सनल लाॅ और धार्मिक प्रथाएं भारतीय संविधान के आर्टिकल 14, 15 और 25 के साथ-साथ इंटरनेशनल इन्स्ट्रमन्ट्स में प्रदत्त अन्य अधिकारों के तहत भेदभावपूर्ण हैं।
शुरुआत में ही सीजेआई के नेतृत्व वाली पीठ ने जनहित याचिका पर नोटिस जारी करते हुए टिप्पणी की थी कि ''हम बड़ी सावधानी के साथ नोटिस जारी कर रहे हैं।''
याचिकाकर्ता ने न्यायालय से निम्नलिखित निर्देश की मांग की हैः
-केंद्रीय गृह और कानून मंत्रालय को निर्देश दिया जाए कि भरण पोषण और निर्वाह-व्यय के आधारों में प्रचलित विसंगतियों को दूर करने के लिए उचित कदम उठाएं ताकि इनको आर्टिकल 14, 15, 21, 25 और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की स्पिरिट(भावना) के अनुसार धर्म ,जाति,लिंग या जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव किए बिना सभी नागरिकों के लिए समान बनाया जा सकें।
-वैकल्पिक रूप से, संविधान के संरक्षक और मौलिक अधिकारों के रक्षक होने के नाते, यह घोषणा की जाए कि भरण पोषण और निर्वाह-व्यय के भेदभावपूर्ण आधार संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21 का उल्लंघन करते हैं और सभी नागरिकों के लिए भरण पोषण और निर्वाह-व्यय से संबंधित लिंग तटस्थ व धर्म तटस्थ वाले एक समान दिशा निर्देश तय किए जाएं।
-वैकल्पिक रूप से, भारत के विधि आयोग को निर्देश दिया जाए कि वह घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की जाँच करें और आर्टिकल 14, 15, 21 और 25 व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना के तहत 3 महीने के भीतर 'भरण पोषण और निर्वाह-व्यय के एक समान आधार' पर एक रिपोर्ट तैयार करें।
-संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21, 25 व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना के तहत संविधान पूरे भारत में सभी नागरिकों के लिए 'यूनिफॉर्म ग्राउंड ऑफ डिवोर्स' की मांग करता है।