'इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक और आदेश जिससे हम निराश हैं': सजा निलंबन संबंधी कानून की अनदेखी पर सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-08-08 05:06 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश पर फिर से नाराजगी व्यक्त की, जिसमें सजा निलंबन पर कानून की स्थापित स्थिति को लागू किए बिना निश्चित अवधि की सजा को निलंबित करने से इनकार कर दिया गया।

न्यायालय ने हाईकोर्ट का आदेश यह कहते हुए रद्द कर दिया कि वह निश्चित अवधि की सजा में सजा निलंबन से इनकार करने को उचित ठहराने वाली परिस्थितियों का उचित आकलन करने में विफल रहा है, जैसा कि भगवान राम शिंदे गोसाई एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य, (1999) 4 एससीसी 421 मामले में कानून स्थापित है, जिसमें कहा गया कि जब किसी व्यक्ति को निश्चित अवधि की सजा सुनाई जाती है और जब वह किसी वैधानिक अधिकार के तहत अपील दायर करता है तो अपीलीय न्यायालय को सजा के निलंबन पर उदारतापूर्वक विचार करना चाहिए, जब तक कि कोई असाधारण परिस्थितियां न हों।

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने कहा,

"आलोचना आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक और आदेश है जिससे हम निराश हैं।"

अदालत ने आगे कहा,

“हम एक बार फिर यह कहने के लिए विवश हैं कि हाईकोर्ट के स्तर पर ऐसी त्रुटियां इसलिए होती हैं, क्योंकि इस विषय पर स्थापित कानूनी सिद्धांतों को सही ढंग से लागू नहीं किया जाता। सबसे पहले विषय-वस्तु पर गौर करना बहुत ज़रूरी है। इसके बाद अदालत को संबंधित मुद्दे पर गौर करना चाहिए। अंत में अदालत को वादी की दलील पर गौर करना चाहिए और फिर कानून के सही सिद्धांतों को लागू करना चाहिए।”

खंडपीठ दोषी द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जहां उसे POCSO Act की धारा 7 और 8, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354, 354ए, 323 और 504 तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) की धारा 3(1)(10) के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था। निचली अदालत ने उसे 4 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई, जिसकी सजाएं साथ-साथ चलेंगी।

दंड प्रक्रिया संहिता (IPC) की धारा 389 के तहत सज़ा निलंबित करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट में आवेदन दायर किया गया, लेकिन स्थापित कानूनी सिद्धांतों के आलोक में याचिका का मूल्यांकन किए बिना केवल इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अपराध जघन्य था।

इस दृष्टिकोण से व्यथित होकर दोषी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

अदालत ने कहा,

"यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाईकोर्ट ने उक्त आदेश पारित करते समय निश्चित अवधि के लिए सज़ा निलंबित करने की याचिका को नियंत्रित करने वाले कानून के सुस्थापित सिद्धांतों पर विचार नहीं किया। हाईकोर्ट ने अभियोजन पक्ष के पूरे मामले और रिकॉर्ड में दर्ज मौखिक साक्ष्य को दोहराया।"

अदालत ने आगे कहा,

"उपर्युक्त परिस्थितियों में हम विवादित आदेश को रद्द करते हैं और अपीलकर्ता की याचिका पर नए सिरे से विचार करने के लिए मामले को हाईकोर्ट को वापस भेजते हैं - यहां हम पूर्वोक्त विधि के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए मूल सजा के आदेश को निलंबित करने का अनुरोध करते हैं। हाईकोर्ट को यह ध्यान रखना चाहिए कि सजा एक निश्चित अवधि, अर्थात 4 वर्ष, के लिए है। केवल तभी न्यायालय तदनुसार आदेश दे सकता है, जब अभिलेखों में ऐसी कोई बाध्यकारी परिस्थितियां हों, जो यह दर्शाती हों कि अपीलकर्ता की रिहाई जनहित में नहीं होगी।"

तदनुसार, हाईकोर्ट को अपीलकर्ता द्वारा दायर आवेदन पर यथाशीघ्र पुनः सुनवाई करने और आज से 15 दिनों के भीतर उचित आदेश पारित करने का निर्देश दिया गया।

उल्लेखनीय है कि कुछ ही दिन पहले इसी खंडपीठ ने एक अलग मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के खिलाफ कड़ा आदेश जारी किया था, जिसमें हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया गया कि वे संबंधित जज को आपराधिक मामले न सौंपें, जिन्होंने आपराधिक मामले को इस दोषपूर्ण तर्क के आधार पर खारिज करने से इनकार कर दिया कि संबंधित सिविल मुकदमा अप्रभावी है।

Cause Title: AASIF @ PASHA VERSUS THE STATE OF U.P. & ORS.

Tags:    

Similar News