जब तक संदेह करने का कोई कारण न हो, आंखों से संबंधित साक्ष्य सर्वश्रेष्ठ साक्ष्य हैः सुप्रीम कोर्ट

Update: 2021-07-27 03:30 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक मामले में एक आरोपी को बरी करने के हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए कहा कि जब तक संदेह करने के कारण न हों, तब तक आंखों से संबंधित साक्ष्य को सबसे अच्छा सबूत माना जाता है।

न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा कि आंखों से संबंधित साक्ष्य पर तभी विश्वास नहीं किया जा सकता है जब  चिकित्सा साक्ष्य और मौखिक साक्ष्य के बीच एक बड़ा विरोधाभास है और चिकित्सा साक्ष्य मौखिक गवाही को असंभव बना देता है और आंखों से संबंधित साक्ष्य के सत्य होने की सभी संभावनाओं को खारिज कर देता है।

इस मामले में, हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया था,जिसके तहत अभियुक्त को दोषी ठहराया गया था। हाईकोर्ट ने माना था कि अपराध में प्रयोग किए गए हथियारों और चोटों की प्रकृति के संबंध में चश्मदीद गवाहों के साक्ष्य चिकित्सा साक्ष्य के साथ असंगत हैं।

पीठ ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए उस दलील को संबोधित किया,जिसमें उन्हें संदेह का लाभ देने के लिए कहा गया था कि रात में पहचान संभव नहीं थी।

''घटना स्थल के पास प्रकाश की उपलब्धता के बारे में सबूत हैं। अन्यथा, अगर प्रकाश का कोई स्रोत नहीं भी था तो भी इस तथ्य को शायद ही प्रासंगिक माना जाता क्योंकि पक्षकार एक-दूसरे को पहले से जानते थे। इस देश में विकसित आपराधिक न्यायशास्त्र यह मानता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों की दृष्टि क्षमता शहर के लोगों की तुलना में कहीं बेहतर है। रात में आपस में जानने वाले व्यक्तियों के बीच पहचान को आवाज, रूपरेखा, छाया और चाल-ढाल से भी संभव माना जाता है। इसलिए, हम प्रतिवादियों की उन दलीलों में अधिक वास्तविकता नहीं पाते हैं जो उन्होंने संदेह का लाभ देने के लिए दी थी और कहा था कि रात में पहचान संभव नहीं थी।'' (नथुनी यादव बनाम बिहार राज्य, (1998) 9 एससीसी 238 का हवाला दिया)

अदालत ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने सबूतों की सराहना करते हुए त्रुटि की है और यह मान लिया कि कथित हथियार एक साधारण लोहे की छड़ थी, परंतु इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह किनारों से काफी नुकुली थी।

''17. आंखों से संबंधित साक्ष्य को सबसे अच्छा सबूत माना जाता है जब तक कि इस पर संदेह करने के कारण न हों। पीडब्ल्यू-2 और पीडब्ल्यू-10 का सबूत स्पष्ट है। अगर कोई ऐसा मामला है जहां चिकित्सा साक्ष्य और मौखिक साक्ष्य के बीच एक बड़ा विरोधाभास है और चिकित्सा साक्ष्य मौखिक गवाही को असंभव बना देता है और आंखों से संबंधित साक्ष्य के सत्य होने की सभी संभावनाओं को खारिज कर देता है, तो ऐसे में आंखों से संबंधित साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। वर्तमान मामले में, हमें आंखों से संबंधित साक्ष्य और मेडिकल साक्ष्य के बीच कोई असंगतता नहीं मिली है। हाईकोर्ट ने सबूतों की सराहना करने में त्रुटि की है और यह मान लिया कि मुदमाल नंबर 5 एक साधारण लोहे की छड़ थी, परंतु इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसके किनारे काफी नुकीले थे।''

ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज दोषसिद्धि को बहाल करते हुए, बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा बरी किया जाना सबूतों के गलत आकलन और प्रासंगिक सबूतों की अनदेखी पर आधारित है,जिससे वह गलत निष्कर्ष पर पहुंच गई।

अदालत ने कहा कि,

''18... यह ऐसा मामला नहीं है जहां दो विचार संभव हैं या गवाहों की विश्वसनीयता संदेह में है। न ही यह अपुष्ट गवाह का मामला है। इसलिए हाईकोर्ट के निष्कर्ष को विकृत और तर्कहीन माना जाता है। इसलिए बरी किए जाने को टिकाऊ/संवहनीय नहीं माना जा सकता है और इसे खारिज किया जाता है। हमले की प्रकृति में, आईपीसी की धारा 304 भाग II का कोई आवेदन नहीं है।''

पीठ ने आरोपियों को अपनी सजा की शेष अवधि पूरी करने के लिए दो सप्ताह के अंदर आत्मसमर्पण करने का भी निर्देश दिया है।

केस का शीर्षकः पृथ्वीराज जयंतीभाई वनोल बनाम दिनेश दयाभाई वाला (सीआरए 177/2014)

कोरमः जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी

उद्धरणः एलएल 2021 एससी 324

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