मजिस्ट्रेट अपना दिमाग लगाएं, अभियोजन पर आंख बंद करके भरोसा करने की जरूरत नहीं हैः जस्टिस मदन बी लोकुर
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा है, "मजिस्ट्रेट को अपने दिमाग लगाने की जरूरत है और अभियोजन पर आंख बंद करके भरोसा करने की जरूरत नहीं है।"
उन्होंने यह बात लाइवलॉ की ओर से आयोजित एक ई-सेमिनार में कही है, जिसका विषय था, "शूटिंग दी मैसेंजरः दी चिलिंग इफेक्ट ऑफ क्रिमिनालाइजिंग जर्नलिस्म।"
उन्होंने कहा, "पुलिस अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर ना जाए, न्यायपालिका को यह पहरेदारी करनी पड़ती। एफआईआर की जांच करें, केस डायरी की जांच करें ... पता करें कि क्या हो रहा है, और व्यक्ति को पुलिस या न्यायिक हिरासत में तभी भेजें, जब आवश्यक हो।"
ई-सेमिनार में जस्टिस मदन बी लोकुर, सीनियर एडवोकेट डॉ कॉलिन गोंसाल्विस, और पत्रकार/ लेखिका सीमा चिश्ती मुख्या वक्ता थे। कार्यक्रम को एडवोकेट मालविका प्रसाद ने संचालित किया।
कार्यक्रम की शुरुआत देश भर के पत्रकारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए और 188 जैसे संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराधों के तहत दर्ज एफआईआर पर चर्चा से हुई। इन मामलों में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदत्त प्रेस की स्वतंत्रता की गरंटी को खतरे में डालने की क्षमता है।
इस संदर्भ में, प्रसाद ने जस्टिस लोकुर से पूछा किया अदालतों को प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिए।
न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली को समग्र रूप से देखा जाना चाहिए और इसमें कुछ बदलाव किए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, जांच की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है, जो दुर्भाग्य से हाल ही में सामने आए मामलों में खतरे में रही है।
तमिलनाडु की हाल कि कस्टोडियल मौतों का जिक्र करते हुए, जिसमें लॉकडाउन के कथित उल्लंघन के आरोप में हिरासत में लिए गए पिता और पुत्र को पुलिसकर्मियों ने लॉकअप में मौत के घाट उतार दिया। जिस्टिस लोकुर ने इस तथ्य पर अफसोस जताया कि पुलिस ने घटना को छुपाने की कोशिश की।
"पुलिस ने कहा कि आरोपियों को दिल की बीमारी थी। आज यह पता चला है कि कुछ सबूत भी हटा दिए गए थे। ऐसी चीजों के होने पर पुलिस और जांच पर भरोसा करना मुश्किल है।"
ऐसी घटनाएं होने के साथ, न्यायमूर्ति लोकुर ने जांच की निष्पक्षता में पत्रकारों के दुर्बल विश्वास को व्यक्त किया। उन्होंने आगे पत्रकारों के अधिकारों को रोकने के लिए कानून के संभावित दुरुपयोग पर टिप्पणी की। उदाहरण के लिए, देशद्रोह के मामलों में, जांच इस तरीके से की जाती है ताकि यह दर्शाया जा सके कि देशद्रोही कृत्य किया गया है।
"सिर्फ इसलिए कि पुलिस कहती है कि देशद्रोह किया गया है, मजिस्ट्रेट को यह नहीं कहना चाहिए कि देशद्रोह किया गया है और व्यक्ति को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में डाल दिया जाए। दिमाग का इस्तेमाल भी करना चाहिए।"
जांच के चरण में और चार्जशीट दाखिल करते हुए कानून की गलत व्याखय होने के बावजूद, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह उस पर लगाम लगाए।
"सवाल यह है कि अदालत की भूमिका क्या है? मजिस्ट्रेट को बहुत सावधान रहना होगा और देखना चाहिए कि क्या प्रथम दृष्टया मामला बनता है। तमिलनाडु में हाल के मामले में, ऐसा लगता है कि मजिस्ट्रेट ने भी नहीं पिता और पुत्र को नहीं देखा! यह ऐसा नहीं हो सकता। वे आंख बंद करके अभियोजन पर भरोसा नहीं कर सकते। दिमाग का स्पष्ट इस्तेमाल होना चाहिए।"
जस्टिस लोकुर ने आगे कहा कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत मामलों में, "गैरकानूनी गतिविधियों" का उल्लेख मात्र मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को मामले पर कार्रवाई नहीं करने या अपने हाथों खड़े करने का अधिकार नहीं देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णय दिए हैं, जिसमें कहा गया है कि धारा 43 डी (5) के तहत जमानत देने से इनकार करने के लिए प्रथम दृष्टया एक मामला बनाया जाना है।
"मजिस्ट्रेट को बहुत सावधान रहना होगा और देखना होगा कि क्या प्रथम दृष्टया अपराध बनता है..क्या एफआईआर में दम है, केस डायरी में दम है, और उसके बाद ही मजिस्ट्रेट को चीजों को आगे ले जाना चाहिए .."
अंत में, जस्टिस लोकुर ने कहा कि यह सुनिश्चित करना कि पुलिस अपने अधिकार क्षेत्र से आगे न जाए, मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य है। मजिस्ट्रेट को एफआईआर और केस डायरी की जांच करने की आवश्यकता है और फिर आगे बढ़ना है। मजिस्ट्रेटों की भूमिका महत्वपूर्ण है और इसलिए, उन्हें प्रोटोकॉल का पालन करना निर्विवाद रूप से आवश्यक है।
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