'प्रोसेस का सबसे गलत इस्तेमाल': सुप्रीम कोर्ट ने कॉन्स्टिट्यूशन बेंच के फैसले के खिलाफ रिट याचिका दायर करने पर ₹1 लाख का जुर्माना लगाया
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक NGO पर ₹1 लाख का जुर्माना लगाया, जिसने आर्टिकल 32 के तहत रिट याचिका दायर की थी। इस याचिका में 2014 के कॉन्स्टिट्यूशन बेंच के फैसले को चुनौती देने की मांग की गई। इस फैसले में माइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन को बच्चों के फ्री और कम्पलसरी एजुकेशन एक्ट, 2009 से छूट दी गई।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने याचिका खारिज की और याचिका को प्रोसेस का सबसे बड़ा गलत इस्तेमाल बताया।
कोर्ट ने कहा,
"सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ कोई भी रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। यह कानून और कोर्ट के प्रोसेस का सबसे बड़ा गलत इस्तेमाल है। हम इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज कमेटी को देने वाले 1 लाख रुपये के खर्च के साथ खारिज करते हैं। हम याचिकाकर्ता को किसी भी कंटेम्प्ट प्रोसीडिंग्स के संबंध में कोई नोटिस जारी करने से खुद को रोकते हैं।"
याचिकाकर्ता और उसके वकील की बुराई करते हुए जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि इस तरह की याचिका कोर्ट के प्रोसेस को तोड़ देगी और आखिर में ज्यूडिशियरी को खत्म कर देगी। उन्होंने कहा कि वकीलों को ऐसी सलाह नहीं देनी चाहिए, जिससे इस तरह की याचिका को बढ़ावा मिले और कहा कि कोर्ट को गलत सलाह के लिए सज़ा देना शुरू करना होगा। उन्होंने कहा कि अगर ऐसी फाइलिंग पर विचार किया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट का कोई भी ऑर्डर फाइनल नहीं रहेगा।
उन्होंने कहा,
"यह प्रोसेस का सबसे बड़ा गलत इस्तेमाल है। इससे इस कोर्ट का प्रोसेस टूट जाएगा और आखिर में ज्यूडिशियरी खत्म हो जाएगी। इस कोर्ट का कोई भी ऑर्डर फाइनल नहीं होगा। वकील किस तरह की सलाह दे रहे हैं? हमें गलत सलाह के लिए सज़ा देना शुरू करना होगा।"
जब याचिकाकर्ता की तरफ से पेश वकील ने याचिका वापस लेने की इजाज़त मांगी तो बेंच ने मना कर दिया। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि यह मामला रिकॉर्ड में रहना चाहिए ताकि दूसरों को सबक मिले जो ऐसी रिट याचिका दायर करने की कोशिश करते हैं। उन्होंने कहा कि यह काम देश में ज्यूडिशियरी के पूरे सिस्टम के खिलाफ है और कहा कि याचिकाकर्ता मामले की गंभीरता को नहीं समझता। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को ऐसे केस फाइल करके ज्यूडिशियरी को नीचा नहीं दिखाना चाहिए।
उन्होंने कहा,
"नहीं। यह उन सभी लोगों के लिए एक सबक होना चाहिए, जो सुप्रीम कोर्ट के साथ ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं। यह इस देश में ज्यूडिशियरी के पूरे सिस्टम के खिलाफ है। अगर आप ऐसे केस फाइल करना शुरू करते हैं तो आपको अपने केस की सीरियसनेस का पता नहीं है। ऐसे केस फाइल करके इस देश में ज्यूडिशियरी को नीचा न दिखाएं।"
2 दिसंबर, 2025 को फाइल की गई रिट याचिका में तीन डायरेक्शन मांगे गए। इसमें यह डिक्लेयर करने की मांग की गई कि माइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन को बच्चों के फ्री और कम्पलसरी एजुकेशन एक्ट, 2009 से छूट, जैसा कि प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2014) में बरकरार रखा गया, इस हद तक अनकॉन्स्टिट्यूशनल थी कि यह RTE ऑब्लिगेशन से पूरी तरह इम्युनिटी देती थी।
इसमें सभी माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन, चाहे उन्हें मदद मिले या न मिले, उसको RTE Act, 2009 की धारा 12(1)(c) का पालन करने का निर्देश देने की भी मांग की गई। इसके अलावा, इसमें एक एक्सपर्ट कमिटी बनाने की भी मांग की गई, जो एक ऐसा फ्रेमवर्क सुझाए जो आर्टिकल 30 के अधिकारों को आर्टिकल 21A की ज़िम्मेदारियों के साथ मिलाए।
यह रिट याचिका तब फाइल की गई, जब जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की बेंच ने प्रमति जजमेंट पर शक जताया और इस मामले को एक बड़ी बेंच को भेज दिया। उस बेंच ने कहा कि माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन को RTE Act से छूट देने से "कॉमन स्कूलिंग का विज़न टूटता है और आर्टिकल 21A में सोचे गए इनक्लूसिविटी और यूनिवर्सलिटी का आइडिया कमज़ोर होता है।"
Case Title – United Voice for Education Forum v. Union of India