कुछ मामलों पर पीआईएल के रूप में विचार करने पर लगी रोक कोर्ट को लोकहित में अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने से नहीं रोकती : उत्तराखंड हाईकोर्ट
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह फैसला सुनाया है कि भले ही कुछ मामलों पर जनहित याचिका के रूप में विचार करने पर रोक लगाई गई है, लेकिन न्यायालय के पास अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग के लिए हमेशा विवेक या अधिकार उपलब्ध है।
मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने यह भी कहा है कि हाईकोर्ट के नियमों के तहत जिन व्यक्तियों को जनहित याचिका दायर करने से रोका गया है या वंचित किया गया है,उनकी तरफ से भी दायर उस जनहित याचिका पर विचार किया जा सकता है,जो एक सरकारी सहायता प्राप्त कॉलेज में सार्वजनिक धन के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए दायर की गई है। जिसे राज्य सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फंड मिलते हैं।
इस मामले में, याचिकाकर्ता ने न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान किया था ताकि उत्तराखंड राज्य को निर्देश दिया जा सकें कि वह 28 मार्च 2017 को दर्ज प्राथमिकी की जांच आगे बढ़ाए। यह प्राथमिकी छठे प्रतिवादी, कॉलेज के प्रभारी प्राचार्य और पांचवें प्रतिवादी, कॉलेज की सोसायटी के सचिव के खिलाफ दर्ज की गई थी। यह भी मांग की गई थी कि उत्तराखंड राज्य को परमादेश दिया जाए कि उस अतिरिक्त राशि को पांचवे व छठे प्रतिवादी के व्यक्तिगत खातों से वसूला जाए,जिसके बारे में ऑडिट करने के बाद कम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटरन जनरल और उत्तराखंड राज्य के ऑडिटर्स ने बताया है। प्रतिवादी नंबर छह उस समय कॉलेज के कार्यवाहक प्राचार्य थे जबकि प्रतिवादी नंबर पांच एम.के.पी सोसायटी के सचिव थे।
वहीं पुलिस महानिदेशक को भी निर्देश दिया जाए कि वह ऑडिट रिपोर्ट में इंगित किए गए तथ्यों के आधार पर प्रतिवादी कॉलेज में वर्तमान में चल रहे भ्रष्ट आचरणों की जांच के लिए एक विशेष जांच दल का गठन करे। साथ ही उन कारणों का पता लगाया जाए कि वर्ष 2017 में दर्ज की गई प्राथमिकी के मामले में अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई है।
डिवीजन बेंच का विचार था कि राज्य सरकार की ओर से दायर जवाबी हलफनामे में गंभीर आरोप लगाए गए हैं। इसलिए व्यापक जनहित को देखते हुए इस मामले में जांच करवाने और कार्रवाई करने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सकें कि सार्वजनिक धन का गलत उपयोग न किया जाए।
पीठ ने कहा कि-
'' यह मामला सार्वजनिक हित का है। इसलिए यह तथ्य बहुत कम मायने रखता है कि इस मामले को अदालत के संज्ञान में कौन लेकर आया है। भले ही याचिकाकर्ता और पांचवें प्रतिवादी के बीच व्यक्तिगत दुश्मनी के बारे में आरोप लगाए गए हैं या यह आरोप लगाया गया है कि दूसरों के इशारे पर याचिकाकर्ता ने यह रिट याचिका प्रतिवादी नंबर पांच के खिलाफ दायर की है। परंतु यह तथ्य हमें नहीं रोक सकते है क्योंकि यह अदालत इन आरोपों की जांच कर सकती है। इसके लिए कोर्ट भले ही याचिकाकर्ता के मामले पर विचार न करें परंतु उस रिट याचिका पर स्वतःसंज्ञान ले सकती है।''
उत्तराखंड हाईकोर्ट पी.आई.एल. रूल्स 2010 के नियम 3 (4) (सी) के तहत यह कहा गया है कि जो मामले या मैटर्स सीधे तौर पर आपराधिक या सिविल क्षेत्राधिकार के तहत आते हैं और व्यक्तियों के बीच विवाद से संबंधित हैं या इसी तरह की प्रकृति का गठन करते हैं, उन पर पीआईएल के तौर पर विचार नहीं किया जाएगा।
पीठ ने कहा कि
''रूल्स 2010 के नियम 3 (4) (सी) के तहत यह बताया गया है कि जो रिट याचिका आपराधिक क्षेत्राधिकार के क्षेत्र में आती हैं और व्यक्तिगत विवादों से संबंधित है,उस पर हाईकोर्ट जनहित याचिका क्षेत्राधिकार के तहत विचार नहीं कर सकती है। परंतु वर्तमान मामला एक सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान के प्रभारियों द्वारा सार्वजनिक धन का गलत उपयोग करने से संबंधित है। इसलिए यह आपराधिक क्षेत्राधिकार में आने वाले व्यक्तिगत विवादों से संबंधित नहीं है।''
न्यायालय ने दोहराया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट ने जिस अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया है, वह संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है। चूंकि न्यायिक समीक्षा की शक्ति मूल संरचना का हिस्सा है, इसलिए संविधान में संशोधन के द्वारा भी इस शक्ति को कम नहीं किया जा सकता है, कानून द्वारा भी बहुत कम ऐसा किया जा सकता है।
पीठ ने माना कि-
" उत्तराखंड हाईकोर्ट पी.आई.एल रूल्स 2010 इसलिए बनाए गए हैं ताकि यह हाईकोर्ट का मार्गदर्शन कर सकें कि जनहित याचिका के अधिकार क्षेत्र के तहत किन याचिकाओं पर विचार करना चाहिए। परंतु यह नियम उन मामलों पर विचार करने के कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर अंकुश नहीं लगाते हैं, जहां कोर्ट इस बात से संतुष्ट है कि अगर उसने हस्तक्षेप नहीं किया जो बड़े स्तर पर सार्वजनिक हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। जैसा कि उपरोक्त मामले में लगाए गए आरोप गंभीर हैं और उनको इस तरह नहीं छोड़ा जा सकता है। इसलिए हम इस बात से संतुष्ट हैं कि इन आरोपों की जांच होनी चाहिए, और कानून के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए।''
पीठ ने कहा कि वर्तमान मामला सार्वजनिक फंड के गलत या दुरूपयोग से संबंधित है- इसलिए न्यायालय इस मामलों को उसको लिखे एक पत्र की तरह या समाचार पत्रों की रिपोर्ट या दायर की गई जनहित याचिका के तौर पर मान सकता है।
''चूंकि इस मामले में पहले एक आपराधिक जांच हुई है और जांच अधिकारी द्वारा एक अंतिम रिपोर्ट दायर की गई है,सिर्फ इस आधार पर इन गंभीर आरोपों की जांच न करवाना उचित नहीं है।''
न्यायालय ने कहा है कि भले ही उत्तराखंड ऑडिट एक्ट, 2012 उस सोसाइटी पर लागू नहीं होते है, जिसका प्रतिवादी नंबर पांच सचिव है। तब भी सार्वजनिक निधियों का गलत उपयोग, निस्संदेह, एक जांच का विषय है और उसकी जांच करवाने की आवश्कता है। जिसमें कानून के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए।
पीठ ने कहा कि-
''उत्तराखंड ऑडिट एक्ट, 2012 या अन्य किसी कानून के तहत एक विशिष्ट प्रावधान के अभाव में, कोई भी जांच नहीं रूक सकती है। जिससे ऐसे व्यक्तियों को धन का दुरूपयोग करने का मौका मिल जाए जो सार्वजनिक धन प्राप्त करने वाले संस्थानों के प्रभारी हैं और फिर जांच व उनके खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई से प्रतिरक्षा का दावा कर सकें।''
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