विक्टिमोलॉजी, पीड़ित और पुनर्वासन

Update: 2022-06-03 14:36 GMT

"Justice should not only be done but should manifestly and undoubtedly be seen to be done."

विक्टिमोलॉजी (पीड़ितविज्ञान) यह पीड़ितों पर अपराध के मनोवैज्ञानिक प्रभाव की जांच है तथा पीड़ितों और अपराधियों, न्याय प्रणाली, और सुधार अधिकारियों के मध्य संबंधों का अध्ययन है। इसमें मूल रुप से व्यक्ति के प्रताड़ना (victimization) से शिकार होने से लेकर के सुधार तक की प्रक्रिया वर्णित है। साधारण अर्थों में यदि देखा जाए तो यह ऐसा विज्ञान हैं जिसमें प्रताड़ना की प्रक्रिया, दर, घटना, प्रभाव और व्यापकता का अध्ययन शामिल है इसलिए इसे विक्टिमोलॉजी कहा जाता है।

पीड़ितविज्ञान (victimology) और अपराधशास्त्र(Criminology) के अनुसार अपराध से पीड़ित, एक पहचान योग्य व्यक्ति (identified person) होना चाहिए, जिसे मात्र अपराधी द्वारा प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत रूप से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक हानि पहुंचाई गई हों न की सम्पूर्ण समाज के किसी वर्ग द्वारा। इसलिए स्पष्ट है कि अपराध का परिणाम ही व्यक्ति का विक्टिम बनना है।

Sebba,L.(1996).Third Parties, Victims and criminal justice system. Ohio State University press, Columbus के अध्ययन में इन्हीं परिणामों की चर्चा करते हुए निष्कर्ष निकाला गया कि अपराध का मुख कारण "इमोशनल डिस्ट्रेस"है। यही ही भावनात्मक वेदना अपराधियों को भी अपना विक्टिम बना लेती है और इसके अनुसरण में किए कृत्य से प्रभावित व्यक्ति भी पीड़ित बन जाता है।

कुल पीड़ितों में से 3/4 पीड़ित व्यक्तियों को प्रभावित करने वाली सबसे आम समस्याएं मनोवैज्ञानिक समस्याएं थीं, जिनमें शामिल हैं: भय , चिंता , घबराहट, आत्म-दोष , क्रोध , शर्म और सोने में कठिनाई। इन समस्याओं के परिणामस्वरूप अक्सर क्रॉनिक पोस्ट-ट्रॉमेटिक डिस्ट्रेस स्टेट डिसऑर्डर (PTSD) विकसित हो जाता है।

पीड़ितों को निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं का अनुभव हो सकता है:-

1. व्यक्तिगत भेद्यता (Vulnerability) की प्राप्ति में वृद्धि ।

2. दुनिया को अर्थहीन समझने की धारणा।

3. खुद को एक नकारात्मक रोशनी में देखना।

4. समाज का प्रतिकूल दृष्टिकोण, इत्यादि।

• पीड़ित के पुनर्वासन (Rehabilitation) की व्यवस्था-

ऐसी मनोवैज्ञानिक भावनाएं पीड़ितों को स्वयं अपराधी बनने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। पीड़ित को अपराधी बनने से रोकने हेतु आवश्यक है कि स्टेट द्वारा उन्हें व्यापक अनुतोष प्रदान किया जाना चाहिए तथा साथ ही उनके लिए पुनर्वासन (Victim facilitation) की व्यवस्था भी करनी चाहिए।

हमारे आपराधिक न्यायिक तंत्र में कुल 5 प्रकार के तत्त्वों की चर्चा की गई है, जो कि निम्नलिखित हैं-

1. प्रवर्तनीय विधि

2. न्यायालय

3. अभियोजन (prosecution)

4. अभिरक्षा (Defense)

5. दंड

इसमें पीड़ित के उपचार और अधिकारों के विषय में कोई बात अभिलिखित नहीं हैं। जबकि यह तो स्टेट का मुख्य कर्तव्य होना चाहिए। आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसे प्रावधान तो हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में भी मिलते हैं।

पीड़ित को पुनर्वासित करने के लिए पौराणिक काल में "दंड" की संकल्पना थी जिसका उद्देश्य अपराध से पीड़ित व्यक्तियों को हुई क्षति को कम करना था। इसके लिए राजा द्वारा प्रतिकर दिलवा कर या अन्य उचित प्रकार से पीड़ित को न्याय पूर्ति की जाती थीं। धर्मशास्त्र के अनुसार कानून तोड़ने वाले को इस तरह से दंडित किया जाना चाहिए जिससे अपराधी के चरित्र और आचरण में सुधार लाया जा सके और पीड़ित को प्रभावी न्याय मिल सके।

ऐसी ही एक बात पर टिप्पणी करते हुए अजय बंसल बनाम निर्मल जैन 7 दिसंबर, 2005 मामले में कोर्ट ने कहा- विक्टिमोलॉजी मूल रूप से पीड़ित के दृष्टिकोण से अपराध का आधुनिक अध्ययन है। यह एक विज्ञान है, जो पीड़ित को अपराध करने से बचाने के तरीकों और साधनों की जांच करता है और अपराध के कारण उसे हुए नुकसान की भरपाई करता है। लेकिन प्राचीन भारत में भी मनु स्मृति में पीड़ित संबंध में मुआवजे के भुगतान का प्रावधान मिलता हैं। यहां तक कि भारत में आदिवासी आपराधिक न्याय प्रणाली में भी उनके असंहिताबद्ध (uncodified) कानूनों में मुआवजे का प्रावधान था। इसलिए आवश्यक हैं कि पीड़ित व्यक्ति को स्टेट द्वारा प्रतिकर दिलवाया जाना चाहिए।

एक बार, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया श्री कृष्णा अय्यर ने भी कहा:

यह हमारे न्यायशास्त्र की कमजोरी है कि अपराध के शिकार लोग कानून का ध्यान आकर्षित नहीं करते हैं। वास्तव में, पीड़ित की क्षतिपूर्ति अभी भी हमारे आपराधिक कानून का लुप्त बिंदु है। यह व्यवस्था में एक कमी है जिसे विधायिका द्वारा दूर किया जाना चाहिए। इस मामले पर अधिक ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए।

• वर्तमान स्थिति-

धारा 53 भारतीय दंड संहिता (IPC) में 6 प्रकार के दंडों का प्रावधान है जिनमें में से जुर्माना भी एक है, परंतु हर मामले में मात्र जुर्माना कोई पर्याप्त उपचार नहीं होता है। कभी कभी विक्टिम को आर्थिक राहत दिलवाना भी उपकारी माना जाता है। [जुर्माना एक दंड है जिसके लिए दोषी व्यक्ति को पब्लिक ट्रीजर में विधि द्वारा तय की गई राशि का भुगतान करना होता है।]

इसके लिए समझना होगा दंड प्रक्रिया संहिता(CRPC) के अधीन पीड़ित कौन है? धारा 2 (wa)CRPC के अनुसार पीड़ित व्यक्ति वह है जिसे उस कार्य या चूक के कारण हानि या क्षति कारित हुई है जिसका आरोपी पर आरोप हैं। इसके अंतर्गत स्वयं वह व्यक्ति, उसके अभिभावक या कानूनी उत्तराधिकारी भी शामिल है।

पीड़ित की परिभाषा को व्यापक बनाते हुए CRPC में धारा 357,357A,357B,357C इत्यादि जैसे उपचारात्मक प्रावधानों को जोड़ा गया। विधायिका का मुख लक्ष्य है कि जहां अभियुक्त को सजा देना आपराधिक न्याय व्यवस्था का एक पहलू है, वही पीड़ित के लिए मुआवजे का निर्धारण एक दूसरा पहलू है।

1. धारा 357 CRPC एक स्वतंत्र प्रावधान हैं, जिसके अंतर्गत न्यायालय को यह शक्ति है कि अभियुक्त के विरुद्ध युक्तियुक्त मामला साबित हो जाने पर पीड़ित को हुई हानि की भरपाई हेतु प्रतिकर दिए जाने का उसे आदेश दिया जा सकता है। (श्रवण सिंह बनाम पंजाब राज्य 1978 AIR 1525)

धारा 357(1) के अनुसार, जब सजा का एक भाग जुर्माना भी है, तब प्रतिकर की रकम अधिरोपित जुर्माने की रकम से संदाय की जाएगी तथा यह रकम जुर्माने की रकम से ज्यादा नहीं हो सकती, परंतु धारा357 (3) के अनुसार, जब सजा का भाग जुर्माना नहीं है, तब न्यायालय निर्णय पारित करते समय, अभियुक्त व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है वह प्रतिकर के रूप में इतनी रकम दे जितनी आदेश में लिखित है यानी उपधारा (1) वाली कोई सीमा लागू नहीं होगी, परंतु महत्वपूर्ण है कि इसके लिए अभियुक्त की आर्थिक स्थिति और पारिवारिक परिवेश देखा जायेगा, उसी के अनुरूप न्यायालय प्रतिकर की रकम निर्धारित करेगा।

धारा 421(1)(b)CRPC- यदि अभियुक्त प्रतिकर का भुगतान नहीं करता तो, वह जुर्माने के भांति कारावास की सजा भोग कर ऑल्टरनेटिव ऑप्शन नहीं चुन सकता है। उसे हर हालत में प्रतिकर का भुगतान पीड़ित को करना ही होगा।

धारा 357A CRPC, यह विशेष उपबंध 2009 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया था। इसके अधीन कोर्ट राज्य से यह अनुशंसा (Recommendation) कर सकता है कि, यदि पीड़ित को धारा 357 के अधीन दिया मुआवजा पर्याप्त नहीं हो तब उसे पुनर्वासित करने के लिए अतिरिक्त प्रतिकर दिया जाना चाहिए।

सुरेश बनाम हरियाणा राज्य, 2015 CriLJ 661 मामले में तय किया गया कि न्यायालय को इंटरिम कंपनसेशन के लिए राज्य को निर्देश देना चाहिए जब तक मामले का अन्तिम प्रतिकर निर्धारित नहीं कर लिया जाता और साथ ही अपराध की गंभीरता, विक्टिम की आवश्यकताएं तथा कारित हानि से हुआ नुकसान इत्यादि कुछ गाईडिंग फैक्टर होंगे जिन्हें प्रतिकर देते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।

2. धारा 357B और 357C CRPC-

सुप्रीम कोर्ट द्वारा लक्ष्मी बनाम भारत संघ में निर्णित बिंदुओं का ही परिणाम इन दोनों धाराओं का कोड में समावेश था। इसे वर्ष 2013 के संशोधन द्वारा जोड़ कर युक्तियुक्त प्रक्रिया का भाग बनाया गया। इसका मुख उद्देश एसिड अटैक पीड़ित और रेप पीड़ित महिला (section 226A and 376 IPC) को राज्य के निधिकोष के माध्यम से प्रतिकर दिलवाए जाने से है, जो की 357A में राज्य द्वारा दिए जाने वाले प्रतिकर के अतिरिक्त होगा। इसमें उपरोक्त पीड़िताओं का मुफ्त मेडिकल ट्रीटमेंट भी शामिल है जिसका खर्च राज्य सरकार द्वारा उठाया जाएगा।

इसके अनुसरण में सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं चलाई गई और करीबन 3,00,000 एसिड पीडितों को 1लाख मुआवजा देना स्वीकार किया। और धारा 226A व 226B IPC जैसे प्रावधानों को जोड़ कर अपराध बनाया गया।

कहना उचित होगा यह निर्णय न्यायशास्त्र के यथार्थवादी विचारधारा पर आधारित था, इसके अनुसार न्यायधीश द्वारा घोषित निर्णय के आधार पर विधि बनाई जाती है। यह न्यायालय की भूमिका दर्शाती है की न्यायपालिका का काम मात्र विधि की घोषणा करना नहीं बल्कि नई विधियों को प्रभाव देना भी शामिल है।

इसलिए निष्कर्षित कहना उचित होगा यदि न्यायपालिका और विधायिका मिलकर पीड़ितों के पुनर्वासन या उन्हें वापस समाज में जोड़ने की परियोजनाएं बनाये तो अवश्य ही इसका अच्छा प्रभाव हमारे समाज पर पड़ेगा और कानून व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहेगी।

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