एच कार्तिक सेशाद्री
परिचय
एक रोचक संघर्ष जारी है। इसका कानूनी पेशे की प्रगति के तरीके पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ना तय है। दिल्ली बार काउंसिल ने मार्च 2019 में चार बड़ी ऑडिट फर्मों को एक नोटिस जारी किया था, जिसमें उन्हें अपने यहां काम कर रहे अधिवक्ताओं की एक सूची देने का निर्देश दिया गया था, और निर्देश दिया गया था कि वे कानून के किसी भी अभ्यास में लिप्त न रहें। बाद में भी उन्हें कानून के अभ्यास से रोक भी दिया गया था। [2]
कानूनी पेशेवरों और अन्य पेशेवरों जैसे कि चार्टर्ड अकाउंटेंट और कंपनी सेक्रेटरी के बीच का अंतर धुंधला पड़ता जा रहा है। कारण सरल है। उन पेशेवरों की व्यावसायिक योग्यता में भी कई कानूनी विषय शामिल हैं। क्या यह उन्हें कानून का अभ्यास करने का अधिकार देगा? यह बहस का सवाल है। कानून के अभ्यास के अधिकार का मूल्यांकन न्याय वितरण प्रणाली के बड़े पैमाने पर ट्रिब्यूनलाइज़ेशन के परिप्रेक्ष्य से किया जाना है। मौजूदा दौर में, कार्यपालिका, ट्रिब्यूनलों की अध्यक्षता गैर-न्यायिक व्यक्तियों को सौंपने का नियम बनाकर ट्रिब्यूनलों को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है, जबकि यह एक ऐसी प्रथा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार खत्म किया है। [3]।
वकीलों की भूमिका: ऐतिहासिक विश्लेषण
भारत में नवाबों/ राजाओं के दौर में अप्रशिक्षित रिश्तेदारों द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता था। बाद में 1726 में महापौर न्यायालयों के निर्माण के साथ ही कानूनी पेशेवरों की आवश्यकता महसूस की गई। बाद में, कई भारतीयों ने कानून की योग्यता अर्जित की, अंग्रेजी भाषा और अदालती कामकाज में खुद को दक्ष बनाया। [4] स्वतंत्रता के बाद, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 बना, जिसमें कानूनी पेशेवर की केवल एक ही श्रेणी है- अधिवक्ता। वकालत की प्रैक्टिस का लाइसेंस प्राप्त व्यक्ति ही वकालत कर सकता है। वकीलों ने समाज के विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका की पारस्परिक क्रियाओं में महत्वपूर्ण कड़ी का कार्य किया है। उन्होंने कानूनी व्यवस्था और न्याय वितरण प्रणाली की शुद्धता बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार माना है कि संविधान की मूलभूत और बुनियादी संरचना में से एक स्वतंत्र और निर्भय न्यायपालिका है [5]। सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के लिए संविधान में किए गए संशोधन को भी रद्द कर चुका है। स्वतंत्र न्यायपालिका को प्रतिबंधित अर्थों में नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि एक स्वतंत्र और निर्भय बार के रूप में देखा और सराहा जाना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 124 (3) में यह कह कर एक वकील को विशेष पद पर रखा गया है कि एक व्यक्ति को भारत के सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के लिए योग्य नहीं माना जाएगा, जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो और - कम से कम दस साल तक हाईकोर्ट का वकील रहा हो या लगातार दो या अधिक ऐसे न्यायालयों का वकील रहा हो। इसी प्रकार, अनुच्छेद 217 (2) के तहत प्रावधान किया गया है कि एक व्यक्ति को हाईकोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति नहीं किया जाएगा, जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो और कम से कम दस वर्ष तक हाईकोर्ट का अधिवक्ता रहा हो या लगातार में दो या अधिक ऐसे न्यायालयों में प्रैक्टिस न कर चुका हो।
ऑस्ट्रेलिया में "लॉयर" शब्द का उपयोग बैरिस्टर और सॉलिसिटर (निजी प्रैक्टिस में हों या कॉर्पोरेट इन-हाउस काउंसल के रूप में प्रैक्टिस कर रहे हों) दोनों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। कनाडा में, "लॉयर" शब्द का उपयोग केवल उन लोगों के लिए किया जाता है, जिन्हें बार में बुलाया गया है या क्यूबेक प्रांत में सिविल लॉ नोटरी के रूप में योग्यता प्राप्त कर ली है। कनाडा में कॉमल लॉ के लायर्स को "बैरिस्टर और सॉलिसिटर" के रूप में भी जाना जा सकता है, हालांकि उन्हें "एटॉर्नी" के रूप में संदर्भित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि उस शब्द का कनाडा में अलग अर्थ है। हालांकि, क्यूबेक में सिविल लॉ एडवोकेट्स (या फ्रेंच में एवोकैट्स) खुद को अक्सर "एटॉर्नी" और कभी-कभी "बैरिस्टर और सॉलिसिटर" कहते हैं।
इंग्लैंड और वेल्स में, "लॉयर्स" का उपयोग व्यापक रूप से कानून-प्रशिक्षित व्यक्तियों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। इसमें बैरिस्टर, सॉलिसिटर, लीगल एग्जिक्युटिव और लाइसेंस प्राप्त कंन्वेंअसर्स और ऐसे लोग शामिल हैं जो कानून से जुड़े हैं, लेकिन व्यक्तिगत क्लाइंट्स की ओर से प्रैक्टिस नहीं करते, जैसे जज, कोर्ट क्लर्क, और कानून के ड्राफ्टर्स आदि।
स्कॉटलैंड में, "लॉयर्स" शब्द कानूनी रूप से प्रशिक्षित लोगों के एक अधिक विशिष्ट समूह को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। इसमें विशेष रूप से एडवोकेट्स और सॉलीसिटर्स शामिल हैं। एक सामान्य अर्थ में, इसमें न्यायाधीश और कानून-प्रशिक्षित सहायक कर्मचारी भी शामिल हो सकते हैं। अमेरिका में, यह शब्द आम तौर पर उन एटॉर्नी को संदर्भित करता है जो कानून की प्रैक्टिस कर सकते हैं; इसका उपयोग कभी भी पेटेंट एजेंटों या पैरालीगल्स को संदर्भित करने के लिए नहीं किया जाता है।
अन्य राष्ट्रों में सादृश्य अवधारणओं के लिए तुलनीय शब्द हैं। भारत में, "लॉयर या वकील" शब्द अक्सर बोलचाल में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन आधिकारिक शब्द "एडवोकेट या अधिवक्ता" है जैसा कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत निर्धारित है। 1953 में ऑल इंडिया बार कमेटी की सिफारिशों के आधार पर अधिवक्ता अधिनियम, 1961 बनाया किया गया था। अधिनियम का मुख्य उद्देश्य एडवोकेट्स के रूप में जाने जाने वाले कानूनी प्रैक्टिसकर्ता के एक एकल वर्ग के बार को एकीकृत करना था और प्रवेश के लिए एक समान योग्यता का कार्यक्रम, प्रैक्टिस का अधिकार और अधिवक्ताओं का अनुशासन तय करना था। [6]
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में स्टेट बार काउंसिल और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के निर्माण की परिकल्पना की गई है। स्टेट बार काउंसिल का कार्य निम्न है-
-अपने रोल पर अधिवक्ता के रूप में स्वीकार करना;
-रोल तैयार करना और बनाए रखना;
-रोल पर मौजूद अधिवक्ताओं के खिलाफ कदाचार के मामलों पर विचार करना और निर्धारण करना;
-अपने रोल पर मौजूदा अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना;
-कल्याणकारी योजनाओं के प्रभावी कार्यान्वयन के प्रयोजनों के लिए बार एसोसिएशनों के विकास को बढ़ावा देना;
-कानूनी सुधार को बढ़ावा देने और समर्थन करने के लिए;
-कानूनी सहायता आदि का आयोजन
बार काउंसिल ऑफ इंडिया, स्टेट बार काउंसिलों पर सामान्य पर्यवेक्षण और नियंत्रण रखती है, अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण और शिष्टाचार के मानकों को निर्धारित करती है, अपनी अनुशासनात्मक समिति और प्रत्येक राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति द्वारा पालन करने के लिए प्रक्रिया तय करती है, एक पारस्परिक आधार पर भारत के बाहर से प्राप्त की गई कानून की विदेशी योग्यता को मान्यता देती है, कानूनी शिक्षा को बढ़ावा देती है, और भारत में विश्वविद्यालयों आदि के परामर्श से ऐसी शिक्षा के मानकों को पूरा करने के लिए कार्य करती है।
अधिवक्ता अधिनियम अधिवक्ताओं के दो वर्गों को मान्यता देता है- अधिवक्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता। एक अधिवक्ता को, उसकी सहमति से, वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया जा सकता है, अगर सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालय की राय है कि अपनी क्षमता के आधार पर, बार में स्थिति या विशेष ज्ञान या कानून में अनुभव के आधार पर, वह इस प्रकार की पदवी के योग्य है। यह "प्री-ऑडियंस के अधिकार" की अवधारणा को भी मान्यता देता है।
"राइट टू प्रैक्टिस" अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अध्याय IV द्वारा शासित है। धारा 29 में मान्यता है कि कानून के पेशे की प्रैक्टिस केवल एक ही वर्ग का व्यक्ति करेगा, अर्थात अधिवक्ता। धारा 32 में कहा गया है कि कोई भी न्यायालय, प्राधिकरण या व्यक्ति, किसी व्यक्ति, किसी विशेष मामले में, कोर्ट के समक्ष या किसी व्यक्ति के लिए उपस्थित होने को अनुमति दे सकता है, जो इस अधिनियम के तहत अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं है।
धारा 33 में कहा गया है, "जैसा इस अधिनियम में तय किया गया है या तत्कालीन स्थिति में प्रभावी किसी अन्य कानून को छोड़कर, कोई भी व्यक्ति, नियत दिन पर या उसके बाद, किसी भी अदालत में या किसी भी प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष प्रैक्टिस का हकदार नहीं होगा, जब तक कि वह इस अधिनियम के तहत एक अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं है"
वकीलों के मुख्य कर्तव्य:
एक वकील के पास कई कर्तव्य और जिम्मेदारियां होती हैं जो निम्नानुसार हैं:
कई पारंपरिक साहित्य छह पारंपरिक "मूल कर्तव्यों" की पहचान करते हैं [7] -
-मुकदमेबाजी की निष्पक्षता;
-क्षमता;
-वफादारी;
-गोपनीयता;
-उचित शुल्क; और
-सार्वजनिक सेवा
एक वकील के प्राथमिक कर्तव्यों के रूप में, यह मध्ययुगीन इंग्लैंड में मौजूद था, और आज तक पेशे का आधार है। ये मुख्य कर्तव्य हैं, जिस पर आधुनिक वकील काम करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि न्यायालयों द्वारा न्याय को सुचारू रूप से चलाया जा सके। न्यायालय और वकील इसलिए न्याय वितरण प्रणाली का एक अभिन्न अंग हैं।
इन पारंपरिक कर्तव्यों को अब "व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानक" शीर्षक के तहत अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (सी) के तहत बने बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के अध्याय II में जगह मिली है।
कानून की प्रैक्टिस क्या है?
बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों का भाग IV कानूनी शिक्षा के नियम प्रदान करता है और नियम 2 कानून की प्रैक्टिस निम्नानुसार परिभाषित करता है:
"नियम 2 (xx) 'कानून की प्रैक्टिस का अर्थ है और इसमें शामिल हैं-
(a) कोर्ट, ट्रिब्यूनल, प्राधिकरण, नियामक, प्रशासनिक निकाय या अधिकारी और किसी भी अर्ध न्यायिक और प्रशासनिक निकाय के समक्ष प्रैक्टिस करना;
(b) व्यक्तिगत रूप से या कानूनी रूप से या लिखित रूप से किसी कानूनी फर्म से कानूनी सलाह देना;
(c) किसी भी सरकार, अंतर्राष्ट्रीय निकाय को कानूनी सलाह देना या अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सहित किसी भी अंतरराष्ट्रीय विवाद समाधान निकायों का प्रतिनिधित्व करना; और
(d) कानूनी मसौदा तैयार करने और किसी भी कानूनी कार्यवाही में भाग लेने में संलग्न; और
(e) मध्यस्थता की कार्यवाही या कानून द्वारा अनुमोदित किसी अन्य एडीआर में प्रतिनिधित्व। "
इसलिए, उपरोक्त नियमों को पढ़ने मात्र से यह स्पष्ट है कि न्यायालयों, न्यायाधिकरणों और व्यक्तियों के समक्ष प्रैक्टिस करने के अलावा, अन्य पहलू भी हैं जो 'कानून की प्रैक्टिस' की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं। निस्संदेह, अधिवक्ता अधिनियम 'कानून की प्रैक्टिस', वह मुकदमे से संबंधित हो या नहीं, को नियमित और नियंत्रित करता है। धारा 33 के तहत अधिनियम प्रदान करत है कि एक व्यक्ति जो एक वकील के रूप में नामांकित नहीं है, न्यायालय के समक्ष या किसी भी प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष प्रैक्टिस करने का हकदार नहीं है। एके बालाजी [8] में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है,
"कानूनी पेशे की नैतिकता न केवल तब लागू होती है जब एक अधिवक्ता अदालत के समक्ष पेश होता है। यह भी अदालत के बाहर प्रैक्टिसको विनियमित करने के लिए भी लागू होता है। इस तरह की नैतिकता का पालन करना न्याय प्रशासन का अभिन्न अंग है। समय-समय पर निर्धारित पेशेवर मानक हैं। इसका पालन करने की आवश्यकता है। इस प्रकार, हम इस विचार को बरकरार रखते हैं कि कानून की प्रैक्टिसमें मुकदमेबाजी के साथ-साथ गैर मुकदमेबाजी भी शामिल है।"
"हम पहले ही यह मान चुके हैं कि कानून की प्रैक्टिसमें न केवल अदालतों में उपस्थिति, बल्कि राय देना, उपकरणों का मसौदा तैयार करना, कानूनी चर्चा से जुड़े सम्मेलनों में भाग लेना भी शामिल है। ये गैर-मुकदमेबाजी प्रथा के अंग हैं जो कानून की प्रैक्टिसका हिस्सा है। अधिवक्ता अधिनियम के अध्याय- IV की योजना यह स्पष्ट करती है कि बार काउंसिल के साथ नामांकित अधिवक्ता केवल कानून की प्रैक्टिसकरने के हकदार हैं, सिवाए, किसी अन्य कानून में प्रदान किए गए प्रावधानों के अन्यथा।
अन्य सभी केवल अदालत, प्राधिकरण या व्यक्ति की अनुमति से प्रकट हो सकते हैं, जिनके समक्ष कार्यवाही लंबित है। अधिवक्ताओं के आचरण के लिए विनियामक तंत्र गैर-मुकदमेबाजी के काम पर भी लागू होता है। भारत में किसी भी व्यक्ति के लिए लागू निषेध, अधिवक्ता अधिनियम के तहत नामांकित वकील के अलावा, निश्चित रूप से किसी भी विदेशी के लिए भी लागू होता है।"
पेशे में अतिक्रमण
विभिन्न न्यायाधिकरणों के निर्माण के आधार पर, जो अनिवार्य रूप से अर्ध न्यायिक और प्रशासनिक निकायों की प्रकृति के हैं (जैसे) ऋण वसूली न्यायाधिकरण; (बी) नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल / नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल; (सी) बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड; (डी) प्रतिभूति अपीलीय ट्रिब्यूनल; (ई) राज्य प्रशासनिक अधिकरण; (एफ) आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण; (जी) उपभोक्ता मंचों और राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम (एच) राष्ट्रीय हरित अधिकरण; ये चंद नाम भर हैं। न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के बीच का अंतर धीरे-धीरे खत्म होने लगा है।
कुछ न्यायाधिकरण ऐसे कार्य करते हैं जैसे कि वे अर्ध-न्यायिक निकाय हैं, जबकि कुछ अन्य ऐसे कार्य करते हैं जैसे कि वे न्यायालयों के स्थानापन्न हैं। उन्हें जिस कानून के जरिए बनाया गया है, उनमें अपीलीय न्यायाधिकरण के गठन सहित अपीलीय उपायों के लिए प्रावधान हैं। इन सभी अपीलीय न्यायाधिकरणों को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जजों द्वारा संचालित किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट भी इनमें से कुछ न्यायाधिकरणों की शक्तियों और कर्तव्यों का निस्तारण करता है और पाया है कि इनमें से कुछ न्यायाधिकरण अर्ध न्यायिक निकाय हैं (उदाहरण के लिए ऋण वसूली न्यायाधिकरण) और कुछ अन्य न्यायिक निकाय हैं (उदाहरण के लिए प्रतिस्पर्धा आयोग अपीलीय न्यायाधिकरण) )।
इन न्यायाधिकरणों द्वारा तैयार किए गए कई नियमों में और इन न्यायाधिकरणों का गठन करने वाले कुछ क़ानूनों में, "अधिकृत प्रतिनिधियों" को न्यायाधिकरणों के समक्ष प्रस्तुत होने और मामले को पेश करने की अनुमति दी गई है। विशेष रूप से चार्टर्ड एकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी, कॉस्ट एकांउटेंट जैसे अन्य पेशेवरों को अधिकृत प्रतिनिधियों के रूप में पेश होने की अनुमति दी गई है। सवाल यह है कि क्या "एक वकील" के अलावा कोई अन्य पेशेवर "कानून के पेशे की प्रैक्टिस" करने का हकदार है।
यह उल्लेख करना उचित है कि एक चार्टर्ड एकाउंटेंट को दो व्यवसायों का अभ्यास करने पर रोक है। यदि कोई व्यक्ति चार्टर्ड अकाउंटेंट है और किसी अन्य व्यवसाय लगा हुआ है, तो वह चार्टर्ड अकाउंटेंट अधिनियम, 1949 के तहत पेशेवर कदाचार का दोषी होगा।
चार्टर्ड अकाउंटेंट अधिनियम, 1949 की पहली अनुसूची का भाग I, पेशेवर कदाचार के संबंध में है।
भाग I के खंड 11 में कहा गया है कि: "अभ्यासरत चार्टर्ड एकाउंटेंट को पेशेवर कदाचार का दोषी माना जाएगा यदि वह किसी भी व्यवसाय में संलग्न है..जब तक कि परिषद द्वारा ऐसा करने अनुमति नहीं दी जाती है।"
चार्टर्ड अकाउंटेंट अधिनियम, 1949 की धारा 21-ए अनुशासन बोर्ड से संबंधित है।
धारा 21-ए के खंड 3 में कहा गया है कि:
"जहां अनुशासन बोर्ड का मत है कि कोई सदस्य प्रथम अनुसूची में उल्लिखित किसी पेशेवर या अन्य कदाचार का दोषी है तो सदस्य को कोई भी आदेश देने से पहले सुनवाई का अवसर दिया जा सकता है। बाद में निम्नलिखित कार्यवाइयों में से एक या अधिक की जा सकती है-
a) सदस्य को फटकार;
b) रजिस्टर से सदस्य का नाम तीन महीने की अवधि तक हटा दें;
c) उचित जुर्माना, जो एक लाख रुपए तक बढ़ सकता है।
कंपनी सचिवों और कॉस्ट अकाउंटेंट के मामले में भी ऐसे ही प्रावधान उपलब्ध हैं।
एक पेशे के रूप में कानून की प्रैक्टिस के साथ जैसा कि कहा गया है, कई बहुत महत्वपूर्ण कर्तव्य जुड़े हुए हैं। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने अधिवक्ताओं के आचरण को विनियमित करने के लिए नियम बनाए हैं। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (सी) के तहत बार काउंसिल द्वारा तैयार अध्याय II, "व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानक" एक वकील के पारंपरिक कर्तव्यों से संबंधित है। उक्त नियम एक अधिवक्ता के लिए निम्नलिखित कर्तव्यों को निर्धारण करते हैं- (ए) न्यायालय के लिए कर्तव्य; (बी) ग्राहक के लिए ड्यूटी; (सी) प्रतिद्वंद्वी को ड्यूटी (डी) सहकर्मियों को ड्यूटी (ई) प्रशिक्षण प्रदान करने में ड्यूटी (एफ) अन्य रोजगार पर कानूनी सहायता (जी) प्रतिबंधों को लागू करने के लिए कर्तव्य।
अधिवक्ताओं/ वकीलों के रूप में जाने जाने वाले लोगों के एक वर्ग द्वारा कानून का अभ्यास पुराने समय से प्रचलित है। जहां तक भारत का संबंध है, लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा 1792 में किसी समय इस पेशे को विनियमित करने की मांग की गई थी। केवल इसलिए कि किसी व्यक्ति को कुछ विशिष्ट कानूनों का ज्ञान है, इसका मतलब यह नहीं है कि वे वकील हैं जो कानून के पेशे के अभ्यास में खुद को शामिल करने में सक्षम हैं। केवल ऐसे व्यक्ति, जिन्हें एक वकील के रूप में अभ्यास करने के लिए भर्ती कराया गया है, वे खुद को कानून के पेशे में शामिल कर सकते हैं। गैर वकील इसलिए कंपनी अधिनियम, 2013 जैसे अन्य अधिनियमों के प्रावधानों का लाभ नहीं उठा सकते हैं जब तक कि वे खुद को कानून के पेशे में शामिल नहीं करते हैं, जब तक कि वे खुद को एक वकील के रूप में अर्हता प्राप्त नहीं करते हैं और अधिवक्ता अधिनियम द्वारा खुद को विधिवत पंजीकृत और विनियमित करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में चार्टर्ड अकाउंटेंट्स, प्रैक्टिसिंग कंपनी सेक्रेटरी, कॉस्ट अकाउंटेंट्स ने बड़े पैमाने पर जनता को कानूनी सलाह देना शुरू कर दिया है। यह एक ऐसा मामला है जो गंभीर परिणामों को जन्म दे सकता है और आगे बढ़ने के लिए उत्तरदायी होगा। ये पेशेवर बार काउंसिल के नियमों और / या एक वकील के पारंपरिक कर्तव्यों द्वारा शासित नहीं होते हैं। न तो विशेषाधिकार और न ही एक वकील को नियंत्रित करने वाले कर्तव्य इन व्यवसायों को नियंत्रित करते हैं। इन व्यवसायों को उनके स्वयं के नियमों और आचरण द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह स्पष्ट रूप से केवल उन पेशेवरों के उपयोग के लिए है और उन्हें "कानून के पेशे के अभ्यास" में शामिल करने की अनुमति देने के लिए इसका मतलब नहीं निकाला जा सकता है।
भारत में अभ्यास का हकदार होने की प्रक्रिया दोगुनी है। सर्वप्रथम, आवेदक भारत में किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से (या यूनाइटेड किंगडम में चार मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों में से एक से) कानून की डिग्री का धारक होना चाहिए और दूसरा, उस राज्य की बार काउंसिल की नामांकन योग्यता को उत्तीर्ण करना चाहिए, जहां वह दाखिला लेना चाहता/चाहती है।
इस प्रयोजन के लिए, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पास एक आंतरिक समिति है, जिसका कार्य कानून की डिग्री प्रदाता विभिन्न संस्थानों की देखरेख और जांच करना है और आवश्यक मानकों को पूरा करने के बाद इन संस्थानों को मान्यता प्रदान करना है। इस तरीके से बार काउंसिल ऑफ इंडिया यह सुनिश्चित करता है कि भारत में अभ्यास के लिए आवश्यक शिक्षा के मानक को पूरा किया जाए। जैसा कि राज्य बार काउंसिल के साथ नामांकन के लिए योग्यता का संबंध है, वास्तविक औपचारिकताएं एक राज्य से दूसरे राज्य में भिन्न हो सकती हैं, फिर भी मुख्य रूप से वे यह सुनिश्चित करते हैं कि आवेदक दिवालिया / अपराधी न रहा हो और आम तौर पर कानून के पेशे का अभ्यास करने के लिए उपयुक्त हो।
बार काउंसिल के साथ नामांकन का मतलब यह भी है कि कानून की डिग्री धारक को एक वकील के रूप में मान्यता प्राप्त है और उसे सर्वदा एक निश्चित मानक और आचरण को का अनुपालन करना आवश्यक है, वह काम पर हो या न हो। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ग्राहकों के साथ बातचीत करने और अदालतों में अन्यथा अनुकरण के लिए अधिवक्ताओं के लिए "आचरण के नियम" भी निर्धारित करती है। वर्ष 2010 के बाद से अधिवक्ता के रूप में अर्हता प्राप्त करने और अदालतों में अभ्यास करने के लिए एआईबीई (ऑल इंडिया बार एग्जाम) नामक मूल्यांकन परीक्षा बनाई गई है।
2015 के बाद से, बार काउंसिल ने निम्नलिखित पर ध्यान दिया है, सर्टिफिकेट ऑफ प्रेक्टिस एंड प्लेस ऑफ प्रैक्टिस (सत्यापन) नियम, 2015 पास किया है:
"कानूनी पेशा सम्माननीय है और नागरिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सच्चे और स्वस्थ लोकतंत्र को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए एक स्वतंत्र और निर्भय बार महत्वपूर्ण है। जो बार बाहरी शक्तियों के हेरफेर और प्रभाव के अधीन है, वह कितना भी शक्तिशाली और सम्मानित हो क्यों न हो, वो कानूनी पेशे और कानून के शासन के साथ न्याय नहीं कर सकता है।
अधिवक्ताओं का राज्य बार काउंसिल को जानकारी दिए बिना अन्य व्यवसायों / सेवाओं / व्यवसाय पर की ओर जाना चिंताजनक स्तर तक पहुंच गया है। यह प्रवृत्ति कानूनी पेशे को पूरी तरह से खतरे में डाल रही है। इसने इसकी पवित्रता और मानकों में भी सेंध लगा दी है। ऐसे अधिवक्ताओं के नामों को, बार एसोसिएशन और स्टेट बार काउंसिल की और से बनाए जा रहे "रोल ऑफ एडवोकेट्स" में शामिल किया जाना जारी है, इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने कानूनी पेशे को छोड़ दिया है या उनकी मृत्यु हो गई है।
इन परिस्थितियों में यह अनिश्चित प्रवृत्ति दिखाई दे रही है कि अधिवक्ता अधिनियम के तहत बार एसोसिएशनों और अन्य निर्वाचित निकायों का नियंत्रण कानून का अभ्यास करने वाले अधिवक्ताओं के हाथों से फिसल रहा है।
यह भी अनुभव किया जा रहा है कि एक अधिवक्ता को नामांकन का प्रमाण पत्र जारी किए जाने के बाद, उसके और परिषद के बीच, व्यावहारिक रूप से कोई संप्रेषणीय और सतत संपर्क नहीं रहता है। मौजूदा परिस्थितियों के तहत, कानूनी पेशे के स्तर में सुधार में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों / टिप्पणियों के बाद पेश की गई ऑल इंडिया बार परीक्षा भी अपने उद्देश्य को पूरी तरह से प्राप्त करने में विफल रही है। स्टेट बार काउंसिल में नामांकित अधिवक्ता "प्रोविजनल सर्टिफिकेट ऑफ प्रैक्टिस" (2 साल के लिए वैध) प्राप्त करते हैं और उसके बाद उनमें से ज्यादातर ऑल इंडिया बार एग्जामिनेशन के लिए उपस्थित होने और इसे पास करने की परवाह किए बिना लॉ की प्रैक्टिस करते रहते हैं। भारत में अधिवक्ताओं के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं लागू की गई हैं, जिन्हें विभिन्न स्टेट बार काउंसिलों और बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने लागू किया हैं, हालांकि इनका लाभ ऐसे लोग ले रहे हैं, जिन्होंने इस पेशे को छोड़ दिया है।
बार काउंसिल को यह भी पता चला है कि कई फर्जी व्यक्ति (बिना किसी लॉ डिग्री या नामांकन प्रमाण पत्र के) कानूनी अभ्यास में लिप्त हैं और वादकारी, अदालतों और अन्य हितधारकों को धोखा दे रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि परिषद के संज्ञान में आया है कि कुछ स्थानों पर बार एसोसिएशनों के पदाधिकारी या मत-खोजी, जानबूझकर ऐसे लोगों को बार एसोसिएशन या बार काउंसिल के चुनावों में वोट पाने के मकसद से सदस्य बनाते हैं। इसी प्रकार, कई व्यक्ति, किसी राज्य बार काउंसिल में एडवोकेट के रूप में नामांकित होने के बाद संपत्ति-सौदे, अनुबंध या किसी अन्य व्यवसाय, पेशे या नौकरी में शामिल हो जाते हैं और कानूनी पेशे की कोई चिंता नहीं करते हैं। "
लोकतांत्रिक समाजों में, वकील निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिन्हें कोई अन्य पेशेवर नहीं निभाता है: वकील कानून के शासन का संरक्षक है, आदर्श यह है कि सभी लोग कानून के समक्ष समान हैं...। उभरते लोकतंत्रों में, वकीलों के लिए यह भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिनके पास शक्तिशाली और कम के बीच महान स्तर का खिलाड़ी बनने की क्षमता है। आपराधिक मामलों में वकील के अधिकार की गारंटी, गरीबों के लिए सरकार द्वारा वित्त पोषित कानूनी सहायता (जैसा कि यह सीमित है), और निजी वकीलों की निशुल्क गतिविधियां, यह सभी मिलकर तय करते हैं कि गरीब और शक्तिहीन को प्रभावित करने वाले मामलों में वकीलों और कानूनी पेशेवरों की भूमिका महत्वपूर्ण है।
एक अधिवक्ता होने के साथ जुड़े कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को देखते हुए, वे प्रावधान जो किसी भी रूप में कानून के पेशे के अभ्यास के कमजोर पड़ने की अनुमति देते हैं, को संविधान के बहुत बुनियादी ढांचे के विपरीत, मनमाना, अवैध और विपरीत होने के रूप में खारिज किया जा सकता है। (कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 432) (अन्य संज्ञानात्मक क़ानून / नियम जो इस तरह के प्रतिनिधित्व की अनुमति देते हैं)
यह सम्मानपूर्वक कहा जाता है कि यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक नियम बनाए जाएं कि चार्टर्ड अकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी और कॉस्ट अकाउंटेंट जैसे अन्य व्यवसायों की योग्यता रखने वाले और अभ्यास करने वालों को कानून के अभ्यास में शामिल होने से प्रतिबंधित किया जाए। ट्रिब्यूनल आज विवाद समाधान केंद्र हैं। वे किसी भी मामले में अंतिम निर्णय की नींव रखते हैं। यदि व्यक्तियों को कानून में अर्हता प्राप्त नहीं है और कानून का अभ्यास करने की पात्रता नहीं है, और उन्हें विभिन्न न्यायाधिकरणों के समक्ष मामलों की सुनवाई में शामिल होने कानून का अभ्यास करने की अनुमति दी जाती है तो यह वकीलों और वादियों के लिए मुश्किल पैदा करता है। यह एक निष्पक्ष और पारदर्शी कानूनी प्रणाली के मूल आधार को नष्ट कर देता है और अंततः न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी।
एके बालाजी का मामला भारत में कानून का अभ्यास करने के लिए विदेशी वकीलों के अधिकार से संबंधित है। यहां भारत में हमारे पास गैर-वकील हैं जो कानून का अभ्यास करते हैं और कानूनी पेशे ने इस मौन आक्रमण को ध्यान नहीं दिया है। यह जरूरी है कि इस आक्रमण को रोकने के लिए तुरंत कदम उठाए जाएं और इसे तुरंत रोकने के लिए एक प्रयास किय जाए। सुप्रीम कोर्ट ने, दिल्ली बार काउंसिल के कदम उठाने के साथ, "कानून का अभ्यास" नामक अन्यथा दुर्गम मार्ग पर प्रकाश डाला है, विभिन्न राज्यों की अन्य बार एसोसिएशनों और बार काउंसिलों के लिए यह दिल्ली बार काउंसिल जैसे ही, पेशे की इस मूक आक्रमण से रक्षा करने का समय है। कानून के शासन में कोई क्षरण न हो यह सुनिश्चित करने के लिए इसकी रक्षा करना अनिवार्य है। हाल ही में ट्रिब्यूनल, अपीलीय न्यायाधिकरण और अन्य प्राधिकरण (योग्यता, अनुभव और सदस्यों की सेवा की अन्य शर्तें) नियम, 2020 इस क्षरण का एक उदाहरण है।
मद्रास बार एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इन नियमों को चुनौती दी है। ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रैक्टिस करने वालों और ट्रिब्यूनल में मुद्दों को तय करने वालों के लिए इस क्षरण को रोकना अत्यावश्यक है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कानून के शासन और कानूनी पेशे में कोई और गड़बड़ी और क्षरण न हो।
[1] एच कार्तिक सेशाद्री एडवोकेट हैं और मद्रास हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। उनकी ईमेल आईडी javani73@gmail.com और ट्विटर हैंडल @advkarthiksesh
हैं।
[2]https://www.businesstoday.in/current/corporate/delhi-bar-council-ey-deloitte-pwc-kpmg-practising-law/story/343369.html
[3] देखें (2010) 11 SCC 1, (2014) 10 SCC 1, (2015) 8 SCC 583.
[4]देखें http://www.barcouncilofindia.org/about/about-the-legal-profession/history-of-the-legal-profession/
[5]सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया; (2015) 6 SCC 408
[6](1973) 1 SCC 261
[7] कैरोल राइस एड्रंयूज , "स्टैंडर्ड ऑफ कंडक्ट फॉर लायर्स : एन 800 इअर इवोल्यूशन", एसएमयू लॉ रिव्यू , वॉल्यूम 57, पृष्ठ 1385
[8]बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम एके बालाजी (2018) 5 SCC 379