जस्टिस एचआर खन्नाः ‌‌जिन्होंने चीफ ज‌स्टिस का पद पाने के बजाय संविधान बचाना जरूरी समझा

Update: 2020-04-28 09:07 GMT

स्वप्‍निल त्रिपाठी

[यह आलेख केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए ऐतिहास‌िक फैसले के 47 वर्ष पूरा होने के अवसर पर आयोजित विशेष सीरीज़ का हिस्सा है। उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' का ‌निर्धारण किया था।]

अप्रैल 1976 में, जब भारत में कुख्यात आपातकाल लागू हुआ, न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत की सुप्रीम कोर्ट के एक जज की तारीफ में एक आलेख लिखा। जज की तारीफ कारण एक फैसले में दर्ज उनकी असहमतियां थीं। 'फेडिंग होप इन इंडिया' शीर्षक से प्रकाश‌ित आलेख में जस्टिस एचआर खन्ना की तारीफ, एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, (1976) 2 एससीसी 521 मामले में दर्ज उनकी असहमतियों के कारण हुइ थी। वह फैसला आज से 44 साल पहले दिया गया था।

एडीएम जबलपुर का मामला आपातकाल (1975-1977) के दौर में  उठा। अनुच्छेद 359 ( यानी आपात स्थिति में मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करके राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया था, जिसके तहत नागरिकों को अनुच्छेद 21 (यानी जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अदालतों से संपर्क करने का अधिकार निलंबित कर दिया गया था। आपातकाल में व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया था। विपक्ष के अध‌िकांश प्रमुख नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था।

हिरासत में लिए गए नेताओं ने संबंध‌ित उच्च न्यायालयों का दरवाजा खटखटाया और अधिकांश न्यायालयों ने कहा नागरिकों को अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के खिलाफ न्यायालयों से संपर्क करने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो। सरकार ने हाईकोर्ट के आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। मामले की सुनवाई 5 जजों की एक संविधान पीठ ने की।

माना जाता है कि भारत के अटॉर्नी जनरल श्री नरेन डे, जो पहले कई विवादास्पद मामलों में सरकार की ओर से पेश हो चुके थे, सरकार के इस रुख का बचाव करने के लिए तैयार नहीं थे कि आपातकाल में जीवन के अधिकार को निलंबित किया जा सकता है।

हालांकि, सरकार ने डे की अदालत में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें धमकी दी कि उनकी ब्रिटिश पत्नी के निवास अधिकारों को रद्द कर दिया जाएगा। डे ने बाद में दावा किया था कि उन्होंने अपने दलीलें ऐसी रखीं कि जज सरकार के बचाव को खारिज कर दें।

सुनवाई के दौरान, जस्टिस खन्ना ने डे से पूछा, 'अगर एक पुलिसकर्मी अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी को मार दे तो अपकी दलीलों के मुताबिक, क्या ऐसी स्थिति के लिए कोई कानूनी उपचार मौजूद है। डे ने जवाब दिया, 'जब तक आपातकाल मौजूद है, ऐसे मामले के लिए कोई न्यायिक उपचार मौजूद नहीं है।'

उन्होंने आगे कहा, "यह आपकी अंतंरात्मा को झटका दे सकता है, मेरी अंतरात्मा को झटका दे सकता है, लेकिन ऐसे मामले में न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।" ऐसा माना जाता है कि डे ने तर्क दिया था कि आपातकाल के दौरान जज की मौजूदगी में भी यदि एक व्यक्ति को सुरक्षा बल मार देते हैं, वह कुछ नहीं कर पाएंगे।" 

जज के बहुमत ने (4: 1) कुख्यात रूप से माना था कि राष्ट्रपति के आदेश की रोशनी में, आपातकाल की स्थिति में नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्‍थति में न्यायालयों से संपर्क करने कोई अधिकार नहीं है। वस्तुतः अदालत ने अपने फैसले से हिरासत में बंद व्यक्तियों को असहाय छोड़ दिया था, जब तक कि आपातकाल हटा नहीं लिया जाता।

5 जजों की पीठ की ओर से 4:1 से पारित आदेश में, जिस एकमात्र जज ने अपनी असहमति रखी थी, वह जस्टिस एचआर खन्ना ‌थे। उन्होंने माना था कि जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार कार्यपालिका की दया पर निर्भर नहीं रहा सकता है और कानून का शासन सरकार को बिना मुकदमे के किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने की अनुमति नहीं देता है। जस्टिस खन्ना ने माना था कि अदालतों से संपर्क करने का एक नागरिक का अधिकार आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।

जस्टिस खन्ना की यह असहमत‌ि स्वतंत्रता समर्थक दृष्टिकोण के कारण ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उन परिस्थितियों के कारण भी महत्वपूर्ण था, जिनमें इन्हें व्यक्त किया गया था। श्रीमती इंद‌िरा गांधी का शासन सरकार के खिलाफ किसी विरोध का कुचलने के लिए जाना जाता था।

1973 में उनकी सरकार ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति से संबंध‌ित वरिष्ठता की परंपरा को भंग कर दिया था। उन्होंने न्यायमूर्ति एएन रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों को अधिक्रमित कर दिया था। अधिक्रमण की यह कवायद कथित रूप से इसलिए की गई थी, क्योंकि उन तीन जजों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ निर्णय दिया था, जबकि जस्टिस रे ने सरकार का पक्ष लिया था। ज‌स्टिस एचआर खन्ना वरिष्ठता के अनुसार मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में थे। इसलिए, सरकार के खिलाफ निर्णय देने का गंभीर परिणाम होना तय था और उन्हे चीफ जस्टिस का पद गंवाना पड़ सकता था।

जस्टिस खन्ना ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, कि फैसला सुनाए जाने से पहले वह अपने परिवार के साथ हरिद्वार गए थे। गंगा नदी के तट पर बैठे हुए उन्होंने अपनी बहन से कहा था, 'मैंने फैसला तैयार कर लिया है, इससे मुझे भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद गंवाना पड़ सकता है।'

फैसला सुनाए जाने के बाद जस्टिस खन्ना ने उनके प्रति सरकार के रवैये में एक अवधारणात्मक परिवर्तन पाया। उन्हें सरकार द्वारा आयोजित विदेशी प्रतिनिधियों के लिए आधिकारिक रात्रिभोजों में और और अन्य औपचारिक कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाना बंद कर दिया गया, जबकि अन्य जजों को बुलाया जाता रहा। और उनका अनुमान भी सही रहा। उनकी असहमति के कारण उन्हें भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और जस्टिस एमएच बेग यह पद दिया गया, जो कि उनसे जूनियर थे।

जस्टिस खन्ना ने अपनी जीवनी में इस घटना की व्याख्या की। उन्होंने लिखा कि 28 जनवरी 1977 को वह हमेशा की तरह कोर्ट गए। उन्हें लग रहा था कि कोर्ट में यह उनका आखिरी दिन होगा। रेडियो पर शाम 5 बजे, उन्होंने जस्टिस एमएच बेग को चीफ जस्टिस नियुक्ति किए जाने की खबर सुनी। उन्होंने तुरंत राष्ट्रपति को अपना त्याग पत्र भेज दिया।

हालांकि एडीएम जबलपुर मामले में असंतोष जाहिर करने के कारण जस्टिस खन्ना को चीफ जस्टिस का पद गंवाना पड़ा, लेकिन इसने उन्हें कुछ और दिया। आपातकाल के दौर में अपनी निडर असहमतियों के कारण वह अमर हो गए और उन्हें दुनिया भर में सम्मान मिला।

श्री नानी पालखीवाला ने उचित ही कहा था कि जस्टिस खन्ना जैसे कद वाले व्यक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश का पद कुछ भी नहीं था।

अक्सर यह कहा जाता है कि एडीएम जबलपुर मामले में, जजों ने संविधान की रक्षा और भय और प्रेम के बिना अपना कर्तव्य निभाने की संवैधानिक शपथ का त्याग कर दिया था। वर्षों बाद, एडीएम जबलपुर में अपने फैसले पर खेद जताते हुए उसी बेंच के एक जज ने कहा था कि आपातकाल एक भयावह दौर था और हर कोई डर गया था। एकमात्र जज, जिन्होंने भय या पक्षपात को अपने संवैधानिक शपथ के रास्ते में नहीं आने दिया वह थे महान न्यायमूर्ति एचआर खन्ना थे।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने उचित ही लिखा था,

'यदि भारत आजादी और लोकतंत्र के रास्ते पर दोबारा लौटा,...तो निश्चित रूप से न्यायमूर्ति एचआर खन्ना के लिए एक स्मारक बनाएगा।'

यह स्मारक वास्तव में बनाया गया और आज सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नंबर 2 में एक चित्र के रूप में लगा हुआ है।

(पोस्ट स्‍क्रिप्ट: 2017 में, केएस पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, जिसे राइट टू प्राइवेसी जजमेंट के रूप में जाना जाता है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एडीएम जबलपुर का कानूनसम्‍मत नहीं था और उसे रद्द कर दिया।]  

(लेखक नई दिल्ली में वकील हैं। यह आलेख उनके निजी ब्लॉग "द बेसिक 'स्ट्रक्चर" पर प्रकाशित हो चुका है। आलेख का उद्देश्य कानून बिरादरी के किसी भी सदस्य को आहत करना नहीं है। आलेख में ‌‌दिए गए तथ्य और घटनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्‍ध हैं।)

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