क्या है राष्ट्रपति और राज्यपालों की क्षमादान की शक्ति, क्या कहता है संविधान
शादाब सलीम
भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पाक्सो एक्ट के दोषियों को क्षमा याचना का अधिकार दिए जाने पर आपत्ति जतायी है और विधायिका से यह आशा की है कि विधायिका इस पर विधान बनाकर पॉक्सो एक्ट के सिद्धदोष अपराधियों को दिए जाने वाले दया याचिका के अधिकार को समाप्त कर दे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपालों को दंड के 'लघुकरण' 'परिहार' 'विराम' और 'प्रविलम्ब' का अधिकार दिया गया है। इसे राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा दंड का क्षमादान कहा जाता है। राष्ट्रपति को किसी भी दंडादेश को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है,राष्ट्रपति कोर्ट मार्शल के दंडादेश को क्षमादान का भी अधिकार रखता है।राज्यपाल केवल मृत्यु दंडादेश पर क्षमादान का अधिकार रखता है।यह संघ की कार्यपालिका शक्ति है और संघ की कार्यपालिका की शक्तियों में एक बड़ी शक्ति है जिसका प्रयोग बहुत कम मामलों में किया जाता है।
क्या है लघुकरण
लघुकरण का अर्थ है- एक के बदले दूसरा दंड। बड़े दंड को छोटा दंड करना। कठोर से साधारण कारावास करना। जैसे फांसी को बदल कर आजीवन कारावास करना। लघुकरण दंड की अवधि को छोटा करना नहीं है अपितु इसका दंड के स्तर में अर्थ परिवर्तन करना है, जैसे आजीवन कारावास को चौदह वर्ष का कारावास कर देना।
परिहार
परिहार का अर्थ है-दंड को कम करना।एक वर्ष से छः मास का दंड करना।यह शुद्ध रूप से दंड को कम करने के प्रावधान को कहा जाता है। राष्ट्रपति इस विधि का कम ही प्रयोग करते है और इस प्रावधान के अंतर्गत राष्ट्रपति के पास बहुत कम याचिकाएं आती है।इसके अंतर्गत दंड को कम कर दिया जाता है,दस वर्ष के दंड को तीन वर्ष भी किया जा सकता है।
क्षमादान की शक्ति अनियंत्रित नहीं
क्षमादान की शक्ति को नियंत्रित किया जा सकता है यह अनियंत्रित नहीं है। प्रज्ञावान तरीके से विवेक के साथ इस शक्ति का प्रयोग किया जाए। 'मारू बनाम भारत संघ' के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि क्षमादान की शक्ति का प्रयोग दंड प्रकिया सहिंता की धारा 433 (क) में निहित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग मनमर्जी से नहीं करेंगे।
दया याचिका अधिकार नहीं अपितु अनुग्रह है-
राष्ट्रपति को दया याचिका सिद्धदोष ठहराए गए व्यक्ति का अधिकार नहीं है,सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में यह भी माना है कि दया याचिका अगर कोई अधिकार नहीं है तो यह किसी सिद्धदोष पर कोई उपकार भी नहीं है और इसे उपकार नहीं माना जाए,यह केवल संघ की कार्यपालिका शक्ति मात्र है,ऐसी शक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को अपने फेडरल अधिकार क्षेत्र में भी प्राप्त है।सिद्धदोष व्यक्ति इस याचिका को अधिकार की तरह प्रयोग में नहीं ला सकता है यह केवल एक अनुग्रह है।
क्षमादान की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद72 और अनुच्छेद161 के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है,इस फैसले को अंतिम नहीं माना जा सकता है।जाति धर्म और राजनीतिक प्रयोग के मामले में राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमादान को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।आंध्रप्रदेश का एक मामला उच्चतम न्यायालय गया था जहां एक राजनीतिक दल तेलगु देशम के व्यक्ति को मृत्युदंड दिया गया था और आंध्रप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री शिंदे ने क्षमादान प्रदान कर दिया।उच्चतम न्यायालय ने व्यथित पक्षकारों की अर्ज़ी पर इस क्षमादान को अविधिमान्य घोषित कर दिया एवं इस क्षमादान को राजनीतिक प्रेरित निर्णय माना गया था।
दया याचिका में अधिकांश दंड के लघुकरण के लिए राष्ट्रपति को याचिका प्रेषित की जाती है। मृत्यु दंडादेश को परिवर्तित कर आजीवन कारावास कर दिया जा सकता है। राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद के परामर्श से करता है। किसी नियमावली से राष्ट्रपति की इस शक्ति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है और न ही अनुच्छेद में कहीं भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद के परामर्श को मानने के लिए बाध्य घोषित किया गया है परंतु उच्चतम न्यायालय ने अपने न्याय निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया है कि राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग साम्य, प्रज्ञा और विवेक के साथ ही करेगा और कहीं भी याचिका राजनीति धार्मिक और जातिगत मामले पर आधारित नहीं होना चाहिए।
लेखक मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में अधिवक्ता हैंं