जस्टिस अभय श्रीनिवास ओक की न्यायिक यात्रा: बॉम्बे हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक जस्टिस ओक का सिद्धांतवादी सफर
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा (Early Life and Education)
जस्टिस अभय श्रीनिवास ओक का जन्म 25 मई 1960 को हुआ था। उन्होंने पहले विज्ञान (Bachelor of Science) में स्नातक की पढ़ाई की और फिर बॉम्बे यूनिवर्सिटी (University of Bombay) से कानून में स्नातकोत्तर (Master of Laws - LL.M.) की डिग्री प्राप्त की। यह मजबूत शैक्षणिक आधार उनके न्यायिक जीवन की नींव बना।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 28 जून 1983 को अधिवक्ता (Advocate) के रूप में पंजीकरण कराया और ठाणे जिला न्यायालय (Thane District Court) में अपने पिता श्रीनिवास डब्ल्यू. ओक के साथ काम शुरू किया, जो स्वयं एक प्रतिष्ठित वकील थे।
इसके बाद 1985–86 में उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट (Bombay High Court) के पूर्व न्यायाधीश और पूर्व लोकायुक्त (Lokayukta) वी. पी. टिपनीस के चेम्बर में काम किया। यहां उन्होंने सिविल (Civil), संवैधानिक (Constitutional), और सेवा मामलों (Service Matters) के साथ-साथ जनहित याचिकाओं (Public Interest Litigations - PILs) पर भी काम किया, जो आगे चलकर उनके न्यायिक दृष्टिकोण की दिशा तय करने वाले थे।
वकालत की शुरुआत (Initial Foray into Legal Practice)
1980 और 1990 के दशक में ओक ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक अनुशासित और सैद्धांतिक अधिवक्ता के रूप में पहचान बनाई। वह नागरिक विवादों, संवैधानिक याचिकाओं और सेवा संबंधी मामलों में विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्होंने कई ऐसे मामलों में पैरवी की जो जनहित और नीति निर्माण से संबंधित थे, विशेषकर उन मामलों में जो गरीबों के अधिकारों और राज्य की शक्ति पर नियंत्रण से संबंधित थे।
उनका काम कानून के प्रति गहरी समझ और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता था। जनहित याचिकाओं में उनकी सक्रियता ने यह दिखाया कि वह कानून को समाज सुधार और कल्याण के एक उपकरण (Instrument) के रूप में देखते हैं।
बॉम्बे हाई कोर्ट में नियुक्ति (Elevation to the Bombay High Court)
लगभग 20 वर्षों तक सफल वकालत करने के बाद, उन्हें 29 अगस्त 2003 को बॉम्बे हाईकोर्ट में अतिरिक्त न्यायाधीश (Additional Judge) के रूप में नियुक्त किया गया। इसके दो साल बाद, 12 नवंबर 2005 को वह स्थायी न्यायाधीश (Permanent Judge) बने और 13 वर्षों तक इस पद पर कार्य किया।
बॉम्बे हाई कोर्ट में उनके कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए जो व्यक्तिगत अधिकारों और राज्य की शक्तियों के बीच संतुलन बनाते थे। उदाहरण के लिए:
• महाराष्ट्र बीफ बैन (Beef Ban) मामला (2016): उन्होंने गोहत्या पर राज्य की रोक को बरकरार रखते हुए इस कानून के उस हिस्से को खारिज कर दिया जो दूसरे राज्यों से लाए गए बीफ के रखने को अपराध बनाता था। उन्होंने इसे निजता के अधिकार (Right to Privacy under Article 21) का उल्लंघन माना।
• नास्तिकता की घोषणा (2014): उन्होंने यह निर्णय दिया कि संविधान का अनुच्छेद 25 (Article 25 - Freedom of Conscience) नास्तिकता को अपनाने का अधिकार देता है और सरकार को ऐसे व्यक्तियों को राजपत्र में परिवर्तन का अधिकार देना चाहिए।
• कैदी सुधार निर्देश (2017): उन्होंने जेलों में सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार सुधारों को लागू करने के निर्देश दिए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कैदियों की गरिमा (Dignity) बनी रहे।
कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में कार्यकाल (Tenure as Chief Justice of the Karnataka High Court)
लगभग 16 वर्षों तक बॉम्बे हाईकोर्ट में सेवा देने के बाद जस्टिस ओक को 30 अप्रैल 2019 को कर्नाटक हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस (Chief Justice of Karnataka High Court) नियुक्त किया गया और उन्होंने 10 मई 2019 को पदभार ग्रहण किया।
उनका कार्यकाल कोविड-19 महामारी के समय से जुड़ा रहा, जहां उन्होंने अदालत की कार्यप्रणाली को निरंतर बनाए रखा, वर्चुअल सुनवाइयों (Virtual Hearings) के माध्यम से न्यायिक प्रक्रिया जारी रखी और महामारी से जुड़े कई जनहित याचिका मामलों पर निर्णय दिए।
महत्वपूर्ण फैसले इस प्रकार हैं:
• सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण (Encroachment on Public Spaces - 2021): उन्होंने कहा कि फुटपाथों और सड़कों पर अवैध कब्जा (जैसे अवैध पार्किंग) नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार (Article 21 - Right to Life and Liberty) का उल्लंघन है। उन्होंने ऐसे अतिक्रमणों को हटाने के निर्देश दिए।
• दिव्यांगजन के लिए वैक्सीन प्राथमिकता (Vaccination for Persons with Disabilities): उन्होंने यह ऐतिहासिक फैसला दिया कि दिव्यांग व्यक्तियों को टीकाकरण (Vaccination) में प्राथमिकता दी जानी चाहिए और सरकार को इसके लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश (Procedural Guidelines) तैयार करने चाहिए।
इन फैसलों से यह स्पष्ट होता है कि वह न्यायपालिका को एक अधिकार रक्षक (Protector of Rights), विशेषकर वंचित वर्गों के लिए, मानते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति (Elevation to the Supreme Court of India)
31 अगस्त 2021 को, उन्हें भारत के सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। यह उनके न्यायिक करियर की चरम उपलब्धि थी। उनके कार्यकाल की समाप्ति 24 मई 2025 को होनी है जब वह 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होंगे, जैसा कि संविधान में निर्धारित है।
सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने ऐसे मामलों में भाग लिया जिनका राष्ट्रीय महत्व था, जिनमें संवैधानिक व्याख्या (Constitutional Interpretation) से लेकर सामाजिक नीतियों (Social Policies) से संबंधित मुद्दे शामिल थे।
सुप्रीम कोर्ट में प्रमुख फैसले (Landmark Judgments in the Supreme Court)
• पवना डिब्बूर बनाम प्रवर्तन निदेशालय (Pavana Dibbur v. Directorate of Enforcement): इस फैसले में जस्टिस ओक और जस्टिस पंकज मिथल ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code - IPC) की धारा 120-B के तहत आपराधिक साजिश (Criminal Conspiracy) को तभी PMLA (Prevention of Money Laundering Act) के तहत अनुसूचित अपराध (Scheduled Offence) माना जाएगा, जब वह साजिश किसी विशेष रूप से उल्लिखित अपराध के लिए हो। यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि कानून का दायरा अधिक व्यापक रूप से लागू न हो और विधायी मंशा (Legislative Intent) का सम्मान हो।
• दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार का अधिकार: जस्टिस ओक एक संविधान पीठ (Constitution Bench) का हिस्सा थे जिसने यह प्रश्न एक बड़ी पीठ को सौंपा कि क्या धार्मिक समूहों को अपने सदस्यों को बहिष्कृत करने का पूर्ण अधिकार है। यह मामला धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25) और समानता व अभिव्यक्ति के अधिकारों (Articles 14 and 19) के बीच संतुलन से जुड़ा हुआ है।
• आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए ग्रेच्युटी अधिकार (Gratuity Rights of Anganwadi Workers): उन्होंने यह फैसला दिया कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भुगतान ग्रेच्युटी अधिनियम, 1972 (Payment of Gratuity Act, 1972) के तहत लाभ के अधिकारी हैं। यह सामाजिक सुरक्षा (Social Security) को मजबूत करता है।
• ऑल इंडिया बार परीक्षा की वैधता (All India Bar Examination - AIBE): उन्होंने यह पुष्टि की कि AIBE को पेशेवर मानकों (Professional Standards) को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना जा सकता है।
न्यायिक दृष्टिकोण और विरासत (Judicial Philosophy and Legacy)
जस्टिस ओका का न्यायिक दृष्टिकोण उदारवादी (Liberal Outlook) रहा है। उन्होंने बार-बार यह दर्शाया कि राज्य की शक्ति की तुलना में व्यक्ति के अधिकार (Individual Rights) अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके फैसलों में निजता (Privacy), गरिमा (Dignity), और समानता (Equality) के सिद्धांत प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं।
उन्होंने विशेषकर उन वर्गों के अधिकारों की रक्षा की जो आम तौर पर न्याय व्यवस्था से उपेक्षित रहते हैं—जैसे कैदी, दिव्यांगजन, धार्मिक अल्पसंख्यक (Religious Minorities), और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता। उन्होंने कानून की व्याख्या करते समय शब्दशः (Textual) और उद्देश्यपरक (Purposive) दोनों दृष्टिकोणों का उपयोग किया, जिससे भारतीय न्यायशास्त्र (Indian Jurisprudence) को नए आयाम मिले।
ठाणे के एक युवा अधिवक्ता से लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश तक, जस्टिस अभय एस. ओका की यात्रा कानून और संविधान के प्रति समर्पण का प्रतीक है। उनके हर फैसले में न्यायिक ईमानदारी (Judicial Integrity), संवैधानिक मूल्यों (Constitutional Values), और सामाजिक न्याय (Social Justice) के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई देती है।
जैसे-जैसे वे मई 2025 में सेवानिवृत्ति के निकट पहुंचते हैं, उनके फैसले और दृष्टिकोण भारतीय न्याय प्रणाली में प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे। उनकी विरासत न्यायपालिका की उस भूमिका को और अधिक मजबूती देती है, जो हर नागरिक के अधिकारों की रक्षा में निहित है।