हरि किशन
हरियाणा ने 11 मई, 2020 को एक अधिसूचना जारी कर कहा कि राज्य के सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में 'हिंदी' का उपयोग किया जाना चाहिए। राज्य सरकार ने हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1969 की धारा 3 में संशोधन किया। इस अधिनियम को अब हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2020 कहा जाता है।
हरियाणा मंत्रिमंडल ने इससे पहले मई के पहले सप्ताह में अधीनस्थ न्यायालयों में हिंदी भाषा की शुरुआत को मंजूरी दी थी। विधानसभा ने फैसले के कार्यान्वयन के लिए एक विधेयक पारित किया था। 78 विधायकों, महाधिवक्ता और सैकड़ों अधिवक्ताओं ने अदालतों में इस्तेमाल के लिए हिंदी भाषा को अधिकृत करने में अपनी रुचि दिखाई थी, ताकि हरियाणा के नागरिक पूरी न्यायिक प्रक्रिया को समझ सकें क्योंकि यह उनकी अपनी भाषा में होगा। और ऐसा होने पर वह भी आसानी से न्यायालयों के सामने अपने विचार रख पाएंगे।
संशोधन के महत्वपर्ण हिस्से-
हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1969 की धारा 3 के बाद, निम्नलिखित अनुभाग शामिल किया जाएगा:
"3-ए- न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में हिंदी का उपयोग: - (1) हरियाणा में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के अधीनस्थ सभी सिविल न्यायालय और आपराधिक न्यायालय, सभी राजस्व न्यायालय और रेंट ट्रिब्यूनल्स या राज्य सरकार द्वारा गठित अन्य न्यायालय या न्यायाधिकरण हिंदी भाषा में काम करेंगे।
(2) राज्य सरकार हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2020 के प्रारंभ होने के छह महीने के भीतर अपेक्षित बुनियादी ढांचा और कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करेगी।
स्पष्टीकरण: -इस खंड के लिए, 'सिविल कोर्ट' और 'क्रिमिनल कोर्ट' शब्द वही होंगे, जिन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का केंद्रीय अधिनियम 5) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का केंद्रीय अधिनियम 2) के तहत निर्धारित किया गया है।"
हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1969 की धारा 3 इस प्रकार है-
धारा 3. राज्य के आधिकारिक उद्देश्यों के लिए आधिकारिक भाषा: - (1) इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन, हिंदी नियत दिन से, हरियाणा राज्य के सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाने वाली पहली भाषा होग, उन अपवादित उद्देश्यों को छोड़कर, जिन्हें हारियाणा सरकार अधिसूचना के जरिए निर्दिष्ट कर सकती है और नियत दिन से पहले ऐसे अपवादित उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाने वाली भाषा को ऐसे उद्देश्यों के लिए आधिकारिक भाषा के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
(2) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, निर्दिष्ट कर सकती है कि पंजाबी ऐसी सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए, जिन्हें राज्य सरकार उचित समझे, इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी भाषा होगी।
यह सही है कि राज्य के पास अधिकार है कि वह न्यायिक कार्यवाहियों सहित अपने सभी आधिकारिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाली भाषा को अपनाए। यहां तक कि सिविल और क्रिमिनल कोड यह भी बताता है कि राज्य उच्च न्यायालय को छोड़कर सभी अदालतों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को तय कर सकता है। न्यायिक कार्य में हिंदी का उपयोग करने के पक्ष में हरियाणा का तर्क यह है कि अधिकांश वादकर्ता अंग्रेजी नहीं समझ सकते हैं और वे न्यायिक कार्यवाही के दौरान मूकदर्शक बने रहते हैं, जो उनके हितों के लिए उचित नहीं है।
एक देहाती हरियाणवी के रूप में (जहाँ शुद्ध हिंदी बोलना भी बड़ी मेहनत का काम है) और दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय के एक पूर्व छात्र के रूप में, (जहां केवल अंग्रेजी में ही कानून पढ़ाया जाता है), मैंने हिंदी और अंग्रेजी के संघर्ष बीच यह आलेख लिखने की हिम्मत की है।
हरियाणा की अदालतों में हिंदी/अंग्रेजी के उपयोग की जटिलता को समझने से पहले, भारत के टॉप लॉ स्कूलों में पढ़ने वाले हिंदी पट्टी के सामान्य लॉ स्टूडेंट (टीचर की जिंदगी को भी) की जिंदगी को समझना आवश्यक है, विशेषकर हरियाणा के छात्र के जीवन को।
कानूनी शिक्षा के क्षेत्र में अपने बहु-भाषाई और बहु-सांस्कृतिक दृष्टिकोण के कारण, दिल्ली विश्वविद्यालय का फैकल्टी ऑफ लॉ प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता रहा है। इस संस्थान में सभी राज्यों और सभी वर्गों (भारत सरकार की आरक्षण नीति का शुक्रिया) के छात्र दाखिल लेते हैं।
हालांकि बहु-भाषाई चेहरे के बाद भी, यह संस्थान अंग्रेजी और हिंदी, दो माध्यम के छात्रों के दो समूहों में बंटा हुआ है। कानून तर्क और परिस्थितियों के विश्लेषण की विषयवस्तु है, इसलिए इसमें भाषा कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। ज्ञान और भाषा का प्रत्यक्ष संबंध भी नहीं है।
हरियाणा सरकार की अधिसूचना के बाद, जिसमें हिंदी को न्यायिक कार्यों की अनिवार्य भाषा बना दिया गया है, मैंने लोगों में मिश्रित प्रतिक्रियाओं देंखी। कानूनी बिरादरी के बाहर का हरियाणवी समाज, कई को छोड़कर, आम तौर पर खुश लग रहा है। उन्हें लग रहा है कि अब वादकरों के लिए मुकदमों में भागीदारी अधिक सच्ची हो पाएगी। जबकि हरियाणा की कानूनी बिरादरी का मत दो पक्षों में विभाजित है, पहला पक्ष में वो लोग हैं, जो अंग्रेजी का इस्तेमाल धड़ल्ले से करत हैं या प्रतिष्ठित कानून संस्थानों में पढ़ें हैं और दूसरे पक्ष में वो हैं, जिन्हें अंग्रेजी का इस्तेमाल करने में हिचकिचाहट होती है। अंग्रेजी बोलने वाले वकीलों (जिनकी संख्या हरियाणा की अधीनस्थ अदालतों में बहुत कम हैं) ने राज्य सरकार के फैसले की आलोचना की है।
आइए उस समूह की प्रतिक्रिया और मनोदशा की चर्चा करते हैं, जिन्होंने हरियाणा सरकार के फैसले का पक्ष लिया है। जब लेखक ने इस समूह से बात कि तो ये लगा कि सरकार के फैसल का पक्ष और विपक्ष विशुद्ध रूप से निहित स्वार्थों पर आधारित है, और शायद ही कोई ऐसा है जो समाज के हितों के लिए संतुलित दृष्टिकोण के सााथ बात कर है।
हरियाणा की आम जनता:
यह सच है कि हरियाण आर्थिक आधार पर भारत के अगड़ राज्यों की कतार में शामिल है और गोवा के बाद प्रति व्यक्ति आय में दूसरे पायदान पर है। हालांकि यह भी उतना ही सच है कि यह राज्य सामाजिक रूप से पिछड़ा है। हरियाणा में पले-बढ़े हर हरियाणवी का अंग्रेजी के साथ बहुत ही रुखा रिश्ता है। (शुक्रिया राज्य के सरकारी स्कूलों का!) अगर वह ऑक्सफोर्ड या हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से भी पढ़ ले तब भी उसके उच्चारणों में हरियाणवी बोली का प्रभाव नहीं जाता। (गुड़गांव या फरीदाबाद शहरों को छोड़ दीजिए।)
आम आदमी अदालत की कार्यवाही सहित दिन-प्रतिदिन के आधिकारिक कार्यों में अपनी भागीदारी चाहता हैं। यह भागीदारी वास्तविक नहीं हो पाता यदि वे दस्तावेजों में प्रयुक्त भाषा से परिचित नहीं होता है। हरियाणा में साक्षरता दर लगभग 80 प्रतिशत है, लेकिन उनमें से अधिकांश अंग्रेजी पढ़ना, बोलना या समझना नहीं जानते हैं। ऐसे में आम आदमी की शासन में भागीदारी की उम्मीद करना हास्यास्पद है। अदालत में एक आवेदन दाखिल करने के लिए, उन्हें मोटी रकम का भुगतान करने के बाद भी वकीलों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
हिंदी के पक्ष में आम लोगों का तर्क यह है कि अगर हिंदी को कार्यालयों के कामकाज की भाषा बनाया जाता है तो वे अपने ही देश में पराया महसूस नहीं करेंगे।
जिला अदालत, झज्जर (हरियाणा का एक जिला) में एक किसान और वादी रमेश ढाका ने अपना दर्द यूं बयां किया, "मैं टेन प्लस टू पास हूं, लेकिन अंग्रेजी समझ या पढ़ नहीं सकता। सभी समन, आवेदन, वकालतनामा अंग्रेजी में आते हैं जिन्हें मैं पढ़ नहीं पाता। उन्हें समझने के लिए मुझे या तो किसी वकील के पास जाना पड़ता है या गांव के किसी पढ़े-लिखे आदमी के पास। अगर ये हिंदी में होते तो मैं खुद इन्हें पढ़ लेता।"
अगर हिंदी को न्यायालयों की भाषा बना दिया जाए तो इससे आम लोगों को काफी हद तक मदद मिल सकती है। अदालतों में अंग्रेजी भाषा के कारण हरियाणा राज्य में वादकारों कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है-
1. वे शिकायतों या अन्य दस्तावेजों में क्या लिखा है, समझ नहीं पाते। उन्हें पूरी तरह से अपने वकीलों पर निर्भर रहना पड़ता है।
2. अदालती कार्यवाही के दौरान, वे यह समझ नहीं पाते कि रिकॉर्ड पर दर्ज सबूत उनके पक्ष में हैं या खिलाफ हैं।
3. आपराधिक कार्यवाहियों में सीआरपीसी की धारा 273 में, जहां अभियुक्त की उपस्थिति में साक्ष्य लिए जाने का प्रावधान है, निरर्थक हो जाता है, जब अभियुक्त यह नहीं समझ पाता कि उसके खिलाफ किस प्रकार के साक्ष्य दर्ज किए गए हैं।
4. अंग्रेजी भाषा न समझ पाने के कारण, वादकार, एक वकील के साथ पूरी तरह से भरोसे के आधार पर डील करने के लिए मजबूर हो जाता है। वो उन वकालतनामों या हलफनामों को पढ़ नहीं पाता, जिन्हें उसे वकील के निर्देशों के अनुसार साइन करना होता है। बार काउंसिल में पास वकीलों के कदाचार के कई मामले लंबित हैं।
5. वादियों के लिए तब और मुश्किल हो जाती है जब वकील कोर्ट रूम (हालांकि हरियाणा में शायद ही कभी ऐसा होता हो) में अंग्रेजी में बहस करते हैं। तब वादियों के पास मूक रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता।
6. फैसले और आदेश की प्रतियां अंग्रेजी में होती हैं, इसलिए वे फैसले या आदेशों के तर्क या कारण को समझने में विफल रहते हैं। इसलिए भी उन्हें अधिवक्ताओं पर निर्भर रहना पड़ता है।
7. भाषा के कारण गवाह को भी परेशान होना पड़ता है, क्योंकि उनमें से अधिकांश अंग्रेजी नहीं जानते हैं।
8. हिंदी के दस्तावेज को रिकॉर्ड में लेने के लिए अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है। यदि सभी न्यायिक कार्यों के लिए हिंदी भाषा को अपनाया जाए तो यह कवायद नहीं करना पड़ेगी।
अधीनस्थ न्यायालयों के वकीलों की राय:
जब मैंने अदालत में भाषाई परिवर्तन की चर्चा हरियाणा के वकीलों से की तो तो अधिकांश ने हिंदी के पक्ष में राय दी और कहाकि उच्च न्यायालय में भी ऐसा होना चाहिए।
रोहतक जिला अदालत के एक वकील रोहताश मलिक ने कहा,
"चाहे जैसी भी दलील या कानूनी तर्क हम दे लें, हमे हाईकोर्ट के वकीलों से केवल इसलिए अलग रखा जाता है कि क्योंकि हम अंग्रेजी में बहस नहीं कर सकते। यह भाषा के आधार पर भेदभाव है और असंवैधानिक है।"
कई ऐसे वकील हैं, जिन्होंने मुकदमेबाजी में लंबा समय दिया है, अंग्रेजी में अपना केस फ्रेम कर लेते हैं, काम करते-करते वो अंग्रेजी के साथ सहज हो चुके हैं।
परेशानी युवा और नए वकीलों को आती है। उन्हें किसी मामले के कानूनी या तकनीकी को समझने से पहले मुकदमे/ कार्यवाही की भाषा को समझना पड़ता है। हालांकि, हरियाणा में अधिकांश लॉ कॉलेज अंग्रेजी माध्यम में एलएलबी की डिग्री प्रदान करते हैं, लेकिन लेक्चर और शिक्षक-छात्रों की बातचीत हिंदी में होती है। वे हिंदी के साथ अधिक सहज महसूस करते हैं। ऐसे कॉलेजों के छात्रों पर पर भी अंग्रेजी का अदृश्य दबाव देखा जा सकता है। यह दबाव हीन भावना को आमंत्रित करता है।
कई बार, मैं सोशल मीडिया पर लोगों को पूछते देखता हूं कि क्या हिंदी माध्यम का छात्र राज्य न्यायिक परीक्षा पास कर सकता है। ऐसे प्रश्न केवल अंग्रेजी भाषा से डर के कारण पैदा होता है और उनकी यह स्वीकृति कि अंग्रेजी बोलने वाले वकील दूसरों की तुलना में बेहतर होते हैं। (हालांकि यह सच नहीं है)।
हिंदी भाषी वकीलों को अदालतों की भाषा अंग्रेजी होने के कारण निम्न परेशानियों का सामना करना पड़ता है-
1. हरियाणा के लॉ कॉलेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, लेकिन शिक्षण हरियाणवी मिश्रित हिंदी में होता है। छात्र अंग्रेजी समझ सकते हैं, लेकिन बोलने में संकोच करते हैं, जिसके चलते उनके करियर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
2. हरियाणा के कई छात्र राजस्थान के अल्पज्ञात लॉ कॉलेजों से कानून की डिग्री प्राप्त करते हैं, जहां शिक्षा का माध्यम हिंदी है। कानूनी शिक्षा में, कुछ शब्दों का अर्थ अलग-अलग भाषाओं में में काफी अलग होता है, इसलिए एक दूसरे के लिए उनका उपयोग मुश्किल होता है।
उदाहरण के लिए 'Res-Judicata' और 'injuction' को हिंदी में क्रमशः 'पुर्वनिर्णियत' और 'परमादेश' कहा जाता है। हिंदी माध्यम का का एक छात्र अपने स्नातक के वर्षों मे जो सीखता है, वकालत करते हुए उसे भूलाना पड़ता है।
नई भाषा अपनाने की यह मजबूर युवा वकीलों को निराश कर देती है, जिनका एकमात्र दोष यह होता है कि उन्हें विदेशी भाषा सीखने का अवसर नहीं मिल पाया।
3. ऐसे न्यायालयों में नए वकील अपने कानूनी कौशल को निखरने में विफल रहते हैं, क्योंकि उन्हें ज्यादातर समय अंग्रेजी में सीखने में देना पड़ता है।
4. ज्यादातर न्यायिक अधिकारी तीन चरणों की "हरियाणा न्यायिक सेवा परीक्षा" पास करने के बाद न्यायिक सेवा में शामिल होते हैं। यह परीक्षा अंग्रेजी में होती है। साक्षात्कार की भाषा अंग्रेजी होती है। इसका मतलब है, सभी न्यायिक अधिकारी (उनमें से एक हिस्सा दूसरे राज्य का भी होता है) सेवा में तभी प्रवेश कर पाते हैं, जब वे अंग्रेजी में निपुण होते हैं। अदालत में कार्यवाही के दौरान, न्यायिक अधिकारी हिंदी बोलने वाले याचिकाकर्ताओं के दर्द को समझने में विफल रहते हैं और वकील न्यायिक अधिकारियों की सहानुभूति हासिल करने में समान रूप से विफल होते हैं।
5. एक और मुद्दा जो लेखक ने हिंदी माध्यम के वकीलों के साथ बात करते हुए पाया, वह उनके जज बनने का सपना होता है।
राजस्थान के हनुमानगढ़ के एक लोकल कॉलेज से 2017 में एलएलबी पास करने वाले ये बाते अनिल राणा का कहना है, "हम केवल मुकदमेबाजी करने के लिए एलएलबी करते हैं, हरियाणा न्यायिक सेवा की परीक्षा में बैठने के लिए शायद ही कोई विचार हमारे दिमाग में आता है, क्योंकि यह मुख्य रूप से अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के लिए आरक्षित है।"
6. कुछ बहुत ही तुच्छ लेकिन महत्वपूर्ण और व्यावहारिक मुद्दे भी हैं, जैसे कानून के लिपिकों (स्थानीय भाषा में मुंशी) का कामकाज भी अदालतों की भाषा से बहुत प्रभावित होता है। हरियाणा के अधीनस्थ न्यायालयों में, केवल कुछ मुंशी ही जानते हैं कि अंग्रेजी में दस्तावेज कैसे लिखें और इसके कारण अदालत परिसर में उनका अघोषित आधिपत्य होता है। अन्य मुंशी बिक्री अनुबंध जैसे दस्तावेज टाइप करते हैं, जिनकी भाषा वैकल्पिक होती है।
अंग्रेजी भाषी वकीलों और न्यायिक सेवा के अभ्यर्थियों की राय:
यदि कोई हिस्सा 11 मई 2020 की अधिसूचना से सबसे ज्यादा गुस्सा है, तो वह यहअंग्रेजी भाषी वकीलों (और ज्यादातर वे जो हरियाणा में न्यायिक अधिकारी के रूप में अपना भविष्य देखते हैं) का है। उनकी कई चिंताएं हैं और काफी हद तक वास्तविक भी हैं।
अंग्रेजी भाषी वकीलों की यह श्रेणी अपने को दूसरे वकीलों की तुलता में 'कुलीन' मानती है। इन्होंने भारत के शीर्ष लॉ कॉलेजों जैसे एनएलयू, जिंदल यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों जैसे स्नातक किया है। वे हरियाणा के अधीनस्थ न्यायालयों में मुकदमेबाजी में अपना करियर नहीं देखते, क्योंकि वे ऐसी अदालतों में मुकदमेबाजी को निम्नतर मानते हैं। वे इस बात से से ज्यादा परेशान नहीं हैं कि राज्य में हिंदी या अंग्रेजी भाषा आम वादियों का जीवन कैसे प्रभावित करती है। उनकी वास्तविक आशंका यह है कि न्यायिक सेवा में चयनित होने पर वे हिंदी से कैसे डील करेंगे।
इसके अलावा, वे इस तथ्य से भी परेशान हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों में भाषा का परिवर्तन अंततः परीक्षा पैटर्न (मुख्य और साक्षात्कार में वैकल्पिक भाषा के रूप में हिंदी को शामिल करना) को बदल देगा, जो प्रतियोगिता को बढ़ाएगा और उनके आधिपत्य को चुनौती देगा। ऐसे छात्र हरियाणा न्यायिक सेवाओं में चयनित होने के लिए दिल्ली में कोचिंग संस्थानों में मोटी रकम का भुगतान करते हैं।
दिल्ली न्यायिक सेवा परीक्षा के बाद, यदि कोई अन्य न्यायिक सेवा परीक्षा जो कठिन मानी जाती है, तो यह हरियाणा के अलावा और कोई नहीं है क्योंकि इसमें पूछे गए प्रश्न एप्लिकेशन बेस्ड होते हैं और उम्मीदवारों के कानूी दिमाग का परीक्षण किया जाता है। ऐसे में छात्र चाहते हैं कि अंग्रेजी अदालत की आधिकारिक भाषा बनी रहे। लेखक ने कई ऐसे वकील सह छात्रों से बात की, जिन्होंने हरियाणा में अदालत की भाषा में अचानक बदलाव के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की।
वकीलों के इस वर्ग की चिंताओं संक्षेप में नीचे दिया जा रहा हैः
1. जिन छात्रों ने अंग्रेजी में पूरा पाठ्यक्रम में पढ़ा है, उनके लिए रातोंरात अपनी भाषा बदलना आसान नहीं है। जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, कानून की भाषा विशिष्ट प्रकृति की है और विशिष्ट घटनाओं के लिए विशिष्ट शब्दों का उपयोग किया जाता है, इसलिए अन्य भाषाओं में ऐसे हजारों शब्दों को सीखना और याद रखना बहुत ही कठिन कार्य है।
2. सत्ता बदलने पर ऐसे छात्र हमेशा बलि का बकरा बनते हैं। देश में शिक्षा का ढांचा अंग्रेजी उन्मुख है। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय मौखिक दलीलों में भी हिंदी भाषा को अनुमति नहीं देते हैं। ऐसे परिदृश्य में, कोई भी छात्रों से हिंदी माध्यम में कानून की डिग्री लेने की उम्मीद कैसे कर सकता है, जबकि वो राज्य न्यायिक परीक्षा में शामिल होना चाहते हैं।
3. राज्य सरकार की अधिसूचना में न्यायिक अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को न्यायिक कार्यों में हिंदी भाषा का उपयोग करने में सक्षम बनाने के लिए अनुवादकों आदि जैसे सभी संसाधन छह महीने के भीतर प्रदान करने का वादा किया गया है। हालांकि एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के लिए हिंदी में निर्णय लिखना मुश्किल नहीं है, लेकिन इसके लिए एक लंबे और निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इससे अदालत में लंबित मामलों का बोझ अनावश्यक रूप से बढ़ जाएगा।
4. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि बाजारों में उपलब्ध सभी पुस्तकें (विशेष रूप से विज्ञान और कानून) अंग्रेजी में लिखी जाती हैं। यह उम्मीद करना कठिन है कि साक्ष्य प्रक्रिया के लिए वुड्रॉफ और अमीर अली या सिविल प्रक्रिया संहिता के लिए मुल्ला हिंदी में उपलब्ध होगी। एक वकील या जज को कानून अंग्रेजी में पढ़ना होगा और फिर इसे अपनी दलीलों या निर्णयों में शामिल करने के लिए हिंदी में अनुवाद करना होगा। कानून की व्याख्या में, एक 'अल्पविराम' या एक शब्द पूरे कानून के अर्थ को बदलने के लिए पर्याप्त है। इसलिए इससे न्यायिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
5. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में न्यायिक कार्य अभी भी अंग्रेजी में है। अधीनस्थ न्यायालयों के विभिन्न आदेशों और निर्णयों को इन न्यायालयों में चुनौती दी जाती है। उन परिस्थितियों में, इन आदेशों या निर्णयों का फिर से अनुवाद किया जाता है। अनुवाद की अपनी कमियां हैं और विभिन्न अवसरों पर कानून के दो फोरम के बीच भ्रम पैदा करता है।
हरियाणा के वाणिज्यिक जिलों में वकील और वादकारों की राय:
हरियाणा में, फरीदाबाद और गुड़गांव जिलों का अत्यधिक व्यवसायीकृत हैं। व्यावसायीकरण का यह उछाल 1991 के बाद आया, जब भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया के लिए खोल दी गई। हरियाणा के इन दो शहरों ने इस अवधि में नए सिरे से आकार लिया और अब उन्होंने खुद को विश्व मानचित्र पर स्थापित कर लिया है। गुड़गांव भारत की मिलेनियल सिटी हे, जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हजारों आधिकारिक मुख्यालय हैं। वहां अक्सर वाणिज्य हितों के टकराव कारण विवाद पैदा होते हैं और ये मामले अदालतों के पास आते हैं। ऐसी स्थिति में जहां पक्ष अदालतों में अलग-अलग देशों के पक्ष शामिल हों, कामकाज की भाषा हिंदी करना उल्टा भेदभाव पैदा करेगा।
अब तक, हरियाणा सरकार ने इन दोनों जिलों के लिए कोई अपवाद नियम नहीं जारी किया है। इसलिए इन परिस्थितियों में, यह माना जा सकता है कि गुड़गांव और फरीदाबाद की अदालतों में भी हिंदी के अनिवार्य उपयोग का संशोधन लागू होगा। इन दोंनों शहरों की अदालतों में हिंदी भाषी वादकारों और वकीलों की मुश्किलें एक जैसी हैं।
एक और चिंता है, जिसे राज्य सरकार ने ठीक से संबोधित नहीं किया, वह है अन्य राज्यों के वकीलों / वादकारों पर भाषा परिवर्तन का प्रभाव। हरियाणा के सभी जिलों और विशेष रूप से गुड़गांव और फरीदाबाद का, बड़ी संख्या में प्रवासी कर्मचारी (कुशल या अकुशल) दौरा करते हैं। कई वकील भी इन अदालतों में आते हैं। वे इस बदलाव से कैसे निपटेंगे? गुड़गांव की एक सॉफ्टवेयर फर्म में काम करने वाले तमिलनाडु के एक वकील या कर्मचारी को हरियाणा की अदालत में नई चुनौती का सामना करना पड़ेगा। इसलिए राज्य सरकार के इस जल्दबाजी के फैसले से अन्य राज्यों के वादकारों या वकीलों को खुशी नहीं हो सकती।
निष्कर्ष
हरियाणा मुख्य रूप से हिंदी भाषी राज्य है, जिसकी 100% आबादी हिंदी बोलती या समझती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने सही ही कहा था कि लोकतंत्र लोगों का है, लोगों के लिए और लोगों से है। लोकतंत्र कोई संस्था नहीं है, बल्कि यह संस्थानों के समूह का सुचारू कामकाज है।
न्यायालय ऐसे संस्थानों में से एक हैं, जो समग्र रूप में किसी भी लोकतंत्र का बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हिस्सा है। यह समझना उचित होगा कि अदालतें लोगों के लिए होती हैं और लोग अदालतों के लिए नहीं होते हैं। न तो अदालतें वकीलों के लिए हैं और न ही न्यायाधीशों या मजिस्ट्रेटों के लिए। अदालतें समाज के हित में और जनता के लिए न्याय का माध्यम हैं। वकील और जज न्याय का माध्यम हो सकते हैं न कि खुद न्याय। इसलिए अदालतों के लिए, जनता का हित सर्वोच्च और सर्वोपरि होना चाहिए। हरियाणा में, यदि न्यायिक कार्य की भाषा हिंदी होना अनिवार्य है, तो आम जनता के हित को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वकीलों और जजों के हितों की दलील निरर्थक है।
हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य समूहों द्वारा उठाए गए बिंदुओं का मतलब नहीं है। कुछ लोग राज्य सरकार को दोषी ठहरा सकते हैं कि उच्च न्यायालय के परामर्श के बिना जल्दबाजी में निर्णय लिया गया है। यह सच है कि हमारे सिस्टम में बहुत सारी कमिया और अड़चनें मौजूद हैं। यह देखने की बात है कि सरकार के इस फैसले को कितनी प्रभावी तरीके से लागू किया जाता है और यह आम वादियों के जीवन को कैसे प्रभावित करता है। इसके अलावा, न्यायिक प्रणाली वकीलों और न्यायाधीशों पर निर्भर है, अदालतों के सुचारू संचालन के लिए उन्हें अनुकूल वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए। भाषा में अचानक बदलाव, निश्चित रूप से वकीलों और न्यायाधीशों सहित कुछ व्यक्तियों के लिए बाधा पैदा करेगा और इसलिए इन बाधाओं पर जल्द से जल्द ध्यान दिया जाना चाहिए।
लेखक का सुझाव है कि कुछ अवांछनीय सार्वजनिक अधिकारियों पर हिंदी भाषा थोपने के बजाय, बीच का रास्ता निकाला जा सकता है और हिंदी को पहले कुछ वर्षों के लिए वैकल्पिक भाषा बनाया जा सकता है। यह भी सुझाव है कि इच्छुक न्यायाधीशों और वकीलों को अंग्रेजी में काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए, लेकिन हिंदी में अनुवादित प्रतिया वादकारियों को मुफ्त में प्रदान की जा सकती हैं।
यह सुझाव भी है कि न्यायिक सेवाओं के लिए परीक्षा पैटर्न द्वि-भाषी (हिंदी और अंग्रेजी) होना चाहिए और किसी भी भाषा को दूसरों के ऊपर प्राथमिकता नहीं देना चाहिए। इससे अधिक प्रतिभाओं को मौका मिलेगा और एक स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित होगी।
अंत में, राज्य, अदालतों, वकीलों, कानून अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों के प्रयासों को जनता को गुणवत्ता और त्वरित न्याय प्रदान करने की दिशा में केंद्रित किया जाना चाहिए क्योंकि अंततः उद्देश्य जनता की सेवा है और वकीलों और जजों की नहीं।
लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।