समझिये भारतीय संविधान के अंतर्गत विधान-परिषद् का गठन, इसकी उपयोगिता एवं संरचना का पूरा गणित
पिछले वर्ष सितम्बर के महीने में ओडिशा में नवीन पटनायक सरकार ने अपने विधायी ढांचे में राज्य विधान परिषद (SLC) की स्थापना की संसदीय प्रक्रिया शुरू की है। राज्य में एक विधान परिषद के गठन के लिए संविधान के अनुच्छेद 169 (1) के तहत राज्य सरकार के संसदीय कार्य मंत्री बिक्रम केशरी अरुखा द्वारा इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पारित किया गया और विधान सभा के 104 सदस्यों ने अपने मतों को इस प्रस्ताव के पक्ष में दर्ज किया था।
ओडिशा सरकार का यह प्रस्ताव 35 करोड़ के वार्षिक परिव्यय के साथ 49-सदस्यीय विधान परिषद् स्थापित करने का उद्देश्य रखता है। राज्य द्वारा एकपक्षीय से द्विसदनीय प्रणाली में परिवर्तित होने के इस प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों को बहुमत से मंजूरी मिलने के बाद भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकारने की आवश्यकता होगी।
जैसा की हम जानते हैं कि भारत में एक द्विसदनीय प्रणाली है, यानी देश में संसद के दो सदन का अस्तित्व है। जहाँ राज्य स्तर पर, लोकसभा के समतुल्य विधान सभा होती है; वहीँ राज्यसभा के समतुल्य विधान-परिषद को देखा जाता है। विधायिका के इस दूसरे सदन को दो कारणों से महत्वपूर्ण माना जाता है: एक, लोकप्रिय निर्वाचित सदन द्वारा जल्दबाजी में कार्रवाई करने पर अंकुश लगाया जा सके और दो, यह सुनिश्चित किया जा सके की जो लोग प्रत्यक्ष तौर पर चुनाव के जरिये विधायी प्रक्रिया में योगदान नहीं कर सकते, उन्हें अप्रत्यक्ष तौर पर इस प्रक्रिया में शामिल होने का मौका मिल सके
हम इसकी उपयोगिता, ढाँचे इतिहास और इसकी जरुरत पर इस लेख में बात करेंगे। चलिए समझते हैं विधान-परिषद् के बारे में आवश्यक बातें।
दूसरी विधायिका का इतिहास
भारत सरकार के अधिनियम, 1919 के तहत भारत एकपक्षीय से द्विसदनीय विधायिका की ओरे अग्रसर हुआ। 1919 के इस अधिनियम ने वर्ष 1921 में राज्य परिषद (अब राज्यसभा) की स्थापना के द्वार खोले। मोंताग्यु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट, जिसने केंद्र में उच्च सदन (राज्यसभा) के गठन की परिकल्पना की। इस रिपोर्ट ने ही प्रांतों (मौजूदा राज्यों) में ऊपरी सदन (विधान-परिषद्) की नीव रखी।
इसका मकसद विधायी उद्देश्यों को प्राप्त करना नहीं, बल्कि निचले सदन (मौजूदा विधानसभा) द्वारा विलंबित या विफल किए गए कानूनों को पारित करना या कम से कम उनपर पुनर्विचार करना था।
प्रांतों (मौजूदा राज्यों) में उच्च सदन (विधान परिषद्) के बारे में शंकाएं वर्ष 1919 के सुधारों के साथ ही शुरू हो गयी थी। इसके द्वारा मुख्य रूप से भूमि और धन के हितों का प्रतिनिधित्व करने और कानून पारित करने में देरी का कारण बनने की आशंका थी। साइमन कमीशन ने वर्ष 1927 में इसकी जटिलता और खर्च का हवाला देते हुए इसकी व्यवहार्यता के बारे शंका जाहिर की थी।
आयोग के अनुसार, इसकी भूमिका विधेयकों की समीक्षा करने और विशेष शक्तियों के राज्यपाल के अभ्यास का समर्थन करने की थी। एक श्वेत पत्र द्वारा, एक संयुक्त चयन समिति ने और बाद में भारत सरकार बिल, 1935 में, ब्रिटिश राज ने वर्ष 1937 के मध्य में बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार, बॉम्बे, मद्रास और असम में ऊपरी सदनों की स्थापना की।
संविधान सभा में सदस्यों की राय, विधान परिषद होने के प्रश्न पर विभाजित थी। विधान परिषदों के पक्ष में दिए गए तर्कों में उनके ईमानदारी से काम करने के ट्रैक रिकॉर्ड, कानून में प्रासंगिक संशोधनों को सामने लाने, गैर-टकराव के उनके रवैये, गैर-विधायी विधानसभा की उनकी प्रकृति, सदन की कार्यवाही में संयम और सरकार और जनता के मामलों पर ध्यान आकर्षित करने की काबिलियत से लेकर सार्वजनिक मामलों पर ध्यान देना तक शामिल हैं।
यह भी सुझाव दिया गया था कि एक दूसरे सदन की मौजूदगी से दोनों सदनों के बीच अधिक बहस होने और काम को साझा करने की अनुमति मिल सकेगी।
अंततः पूर्णतया प्रायोगिक आधार पर हमारा संविधान विशुद्ध रूप से राज्यों के लिए उच्च सदन के प्रावधान के साथ बनाया गया। संविधान में पहले से ही कुछ राज्यों को विधान-परिषद् के गठन करके दिया गया, बाकियों को न केवल भविष्य में ऐसे सदन के निर्माण की स्वतंत्रता दी गयी बल्कि इससे छुटकारा पाने का प्रावधान भी संविधान में शामिल किया गया था।
वर्तमान में, सात राज्यों में विधान परिषदें हैं। इनके नाम जम्मू और कश्मीर, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना हैं। इनके अलावा, तमिलनाडु की तत्कालीन डीएमके सरकार ने एक परिषद का गठन करने के लिए एक कानून पारित किया था, लेकिन बाद की AIADMK सरकार ने वर्ष 2010 में सत्ता में आने के बाद इसे वापस ले लिया।
जैसे की कई मामलों में विधान-परिषद् की संरचना, राज्यसभा जैसा ही दिखती है, पर परिषदों की विधायी शक्ति सीमित है। राज्यसभा के ठीक विपरीत, जिसके पास गैर-वित्तीय कानून को आकार देने के लिए पर्याप्त शक्तियां हैं, विधान परिषदों के पास ऐसा करने के लिए संवैधानिक जनादेश का अभाव है।
इसके अलावा राज्य की विधान सभा, परिषद द्वारा एक कानून के लिए किए गए सुझावों/संशोधनों को ओवरराइड कर सकती है। यही नहीं, राज्यसभा सांसदों के विपरीत, एमएलसी (विधान परिषद् सदस्य) राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए चुनावों में मतदान नहीं कर सकते। जहाँ उपराष्ट्रपति राज्यसभा का चेयरपर्सन होता है; वहीँ एक एमएलसी परिषद् का चेयरपर्सन होता है।
अनुच्छेद 169 के तहत, एक विधान परिषद का गठन किया जा सकता है, "यदि उस राज्य की विधान सभा ने इस आशय का संकल्प विधानसभा की कुल सदस्यता संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है।" इसके पश्च्यात संसद इस आशय का एक कानून पारित कर सकती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि किसी राज्य में जिसमे विधान-परिषद् मौजूद नहीं है और वह राज्य विधान-परिषद् के गठन का विचार रखते है और ऐसे किसी राज्य में जिसमे पहले से विधान-परिषद् मौजूद है और वो राज्य विधान-परिषद को खत्म करने का आशय रखता है, दोनों ही परिस्थिति में ऊपर बताई गयी प्रक्रिया का पालन किया जायेगा।
विधायिका में बुद्धिजीवियों की भागीदारी बढ़ने के उद्देश्य से विधान परिषद् की जरुरत का आभास किया गया था। हालाँकि इस उद्देश्य को पूरा करने के बजाय, कई बार पार्टी विशेष के पदाधिकारियों को समायोजित करने के लिए इस मंच का उपयोग किया जाता है जो चुनाव द्वारा निर्वाचित होने में विफल रहते हैं। कुछ लोग का यह भी मानना है की विधान परिषद् राजकोष पर एक अनावश्यक बोझ को बढ़ता है।