'बिना सुनवाई और तर्कसंगत आदेश के न्यायिक रिमांड को 60 दिनों से अधिक बढ़ाना अवैध': बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2025-10-13 13:47 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 187(3) के तहत निर्धारित 60 दिनों की अवधि से अधिक न्यायिक रिमांड को अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना और तर्कसंगत आदेश पारित किए बिना बढ़ाना कानून के विरुद्ध है और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।

जस्टिस सचिन एस. देशमुख भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 316(2), 318(2), 318(4) सहपठित धारा 3(5) और महाराष्ट्र जमाकर्ताओं के हितों का संरक्षण (वित्तीय प्रतिष्ठानों में) अधिनियम, 1999 की धारा 3 के तहत अपराधों के आरोपी दो व्यक्तियों द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। जांच अधिकारी द्वारा निर्धारित 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रहने के बाद याचिकाकर्ताओं ने BNSS की धारा 187(3) के तहत डिफ़ॉल्ट ज़मानत की मांग की थी।

अभियोजन पक्ष ने BNS की धारा 316(5) के आधार पर तर्क दिया कि आजीवन कारावास की सज़ा वाले अपराध को जोड़ने से आरोप पत्र की अवधि स्वतः ही 90 दिनों की हो जाती है। मजिस्ट्रेट ने रिमांड बढ़ाने का कोई तर्कसंगत आदेश पारित किए बिना आवेदन पर केवल "देखा गया" चिह्न लगा दिया। इस अनुमोदन के आधार पर सेशन कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की डिफ़ॉल्ट ज़मानत की अर्ज़ी खारिज कर दी।

अदालत ने कहा कि डिफ़ॉल्ट ज़मानत का दावा करने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निहित है। यदि कोई अतिरिक्त सामग्री पाई जाती है, जो नए या अतिरिक्त अपराधों का गठन करती है तो अभियोजन अधिकारी का यह दायित्व है कि वह संबंधित कोर्ट में नया रिमांड आवेदन प्रस्तुत करने से पहले अभियुक्त को नोटिस जारी करे।

कोर्ट ने कहा:

"यह प्रक्रिया अनिवार्य है... जांच के दौरान एकत्रित नई सामग्री के आधार पर अतिरिक्त अपराधों के संबंध में ऐसी उचित प्रक्रिया अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा करती है। अभियुक्तों की हिरासत या अभिरक्षा पर न्यायिक नियंत्रण सुनिश्चित करती है।"

कोर्ट ने कहा कि BNSS की धारा 187(3) मजिस्ट्रेट के लिए सुनवाई का अवसर प्रदान करने के बाद स्पष्ट और तर्कपूर्ण आदेश देना अनिवार्य बनाती है। कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायिक हिरासत केवल एक औपचारिकता नहीं है। इसे प्रक्रियात्मक और वैधानिक आवश्यकताओं के सख्त अनुपालन में किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा,

“…जब कोर्ट अभियुक्त की हिरासत अवधि को कानून के तहत निर्धारित अवधि से आगे बढ़ाता है तो कोर्ट के लिए यह अनिवार्य है कि वह सुनवाई का अवसर प्रदान करने के बाद एक तर्कपूर्ण और तार्किक आदेश दे।”

कोर्ट ने माना कि BNSS की धारा 187(3) अनिवार्य प्रकृति की है। वैधानिक आदेश से ज़रा भी विचलन व्यक्ति के स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को कमज़ोर कर सकता है, जिससे याचिकाकर्ताओं के लिए डिफ़ॉल्ट ज़मानत का दावा करने का एक अपूरणीय अधिकार बन जाता है।

तदनुसार, कोर्ट ने सेशन कोर्ट का 9 सितंबर, 2025 का आदेश रद्द किया और याचिका स्वीकार की। साथ ही निर्देश दिया कि याचिकाकर्ताओं को ज़मानत प्रस्तुत करने पर डिफ़ॉल्ट ज़मानत पर रिहा किया जाए।

Case Title: Ranganth Tulshiram Galande & Anr. v. State of Maharashtra [Criminal Writ Petition No. 1299 of 2025]

Tags:    

Similar News