आपराधिक अभियोजन को निपटाने का कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता; बॉम्बे हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट के फैसले से नाराजगी जताई, जांच अधिकारी और एपीपी के खिलाफ जांच का आदेश दिया [निर्णय पढ़ें]
हाल के एक फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 277 (लापरवाही से गाड़ी चलाने), धारा 337 और धारा 304A के तहत एक आरोपी को बरी किए जाने के फैसले पर नाराजगी जाहिर करते हुए इस मामले की दुबारा सुनवाई का आदेश दिया है।
नागपुर खंडपीठ के न्यायमूर्ति जेडए हक़ ने मजिस्ट्रेट के उस फैसले की आलोचना की और आरोपी को बरी करने के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि “मजिस्ट्रेट आपराधिक न्याय दिलाने के अपने कर्तव्य में विफल रहा है”।
अदालत ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि शीर्षक सहित यह फैसला साढ़े चार पृष्ठ का है जबकि इसमें जो कारण रिकॉर्ड किए गए हैं वह सिर्फ ढाई पृष्ठ में हैं।
पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, शिकायतकर्ता मधुकर काकाडे की पत्नी, एक अन्य महिला विमलाबाई, उनकी बेटी शोभा और एक और लड़की बाली खेत में जा रही थीं जब एक तेज रफ्तार जीप ने शोभा को ठोकर मार दिया। उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। दुर्घटना के समय आरोपी मजीदखान पठान जीप चला रहा था।
मुकदमे की सुनवाई के बाद मजिस्ट्रेट ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया है की जिस समय दुर्घटना हुई उस समय जीप को लापरवाही से चलाया जा रहा था और इस आधार पर उसने आरोपी को बरी कर दिया।
निर्णय
न्यायमूर्ति हक ने कहा,
“मेरे विचार में, अभियोजन पक्ष के साथ-साथ मजिस्ट्रेट भी न्याय करने के अपने कर्तव्यों को पूरा करने असफल रहा है। हालांकि अभियोजन पक्ष ने पांच प्रत्यक्षदर्शी गवाहों का हवाला दिया था, लेकिन किसी भी गवाह से पूछताछ नहीं की गई। एपीपी ने कहा कि हालांकि गवाहों (प्रत्यक्षदर्शी गवाहों सहित) के खिलाफ जमानती वारंट जारी किया गया था, लेकिन इस बात का कोई रेकॉर्ड नहीं है की इस जमानती वारंट की तामील हुई। "
अदालत ने जांच अधिकारी, और अतिरिक्त लोक अभियोजक के आचरण पर सवाल उठाया -
“… यह स्पष्ट है कि कार्यवाही केवल आरोपी को बरी करने के उद्देश्य से की जाती है। यह न केवल जांच अधिकारी (अभियोजन पक्ष) के कर्तव्यच्युत होने का शानदार मामला है, बल्कि अतिरिक्त लोक अभियोजक का भी है जिसने मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियोजक की भूमिका में हैं”।
मजिस्ट्रेट असहाय नहीं होता और न ही वह अभियोजक की दया पर ही निर्भर होता है। मजिस्ट्रेट को इतना अधिकार मिला हुआ है कि वह गवाहों को अदालत में पेश होने के लिए मजबूर कर सकता है। यह देखना उसका काम है कि पीड़ित को निराश होकर मन में यह एहसास लेकर अदालत से बाहर न जाना पड़े कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ। इस प्रसिद्ध कहावत को ध्यान में रखना जरूरी है कि “न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि यह दिखना भी चाहिए कि न्याय हो रहा है”।
इस प्रकार, अदालत ने इस मामले को अमरावती के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास सुनवाई के लिए भेज दिया और छः महीनों के भीतर इसकी सुनवाई पूरी करने का आदेश दिया। इसके अलावा, पुलिस आयुक्त, अमरावती और अभियोजन पक्ष के निदेशक को जांच अधिकारी और अतिरिक्त लोक अभियोजक के खिलाफ जांच का निर्देश दिया।
अंत में, रजिस्ट्रार (न्यायिक) को निर्देश दिया गया कि वह यह फैसला और आरोपी को बरी करने के मजिस्ट्रेट के फैसले को रजिस्ट्रार जनरल को भेज दे जो उसे बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रख सकता है।