सरकारी फाइलों में सिर्फ किसी बात को दर्ज करना आतंरिक उपयोग के लिए है, इसका कोई क़ानूनी महत्त्व नहीं है : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-08-05 03:46 GMT

इस तरह की बातों को दर्ज करना या बातचीत को किसी भी समय बदला जा सकता है या उसमें संशोधन लाया जा सकता है या फिर उचित अधिकारी इसे वापस ले सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आधिकारिक फाइलों में किसी मुद्दे पर बातचीत के दौरान उससे संबंधित बातों को केवल दर्ज करना जो कि किसी व्यक्ति से संबंधित हो सकता है, आवश्यक रूप से सरकार का आतंरिक मामला होता है और इसका कोई क़ानूनी महत्त्व नहीं होता।

भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 48(1) के तहत विष्णुदेव कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी ने एक आवेदन दायर किया था। राजस्व मंत्री ने 10 जून 2004 को फाइल में नोट किया कि संबंधित भूमि को अधिग्रहण की प्रक्रिया से निकाल दिया जाए। सरकार बदल गई और नए मंत्री ने आदेश दिया कि जिन मामलों में आदेश नहीं दिए गए थे उन सभी को एक बार फिर उनके पास लाया जाए और इस बारे में संबंधित पक्ष को इत्तला कर दिया जाए ताकि इनके बारे में उचित निर्णय लिए जा सकें। इसके खिलाफ सोसाइटी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और हाईकोर्ट ने इस पर संज्ञान लेते हुए राज्य को 10 जून वाले आदेश को क्रियान्वित करने को कहा।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मामला पिंपरी चिंचवड न्यू टाउनशिप विकास प्राधिकरण बनाम विष्णुदेव कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के रूप में सुनवाई के लिए आया और उसे यह निर्णय करना था कि राजस्व मंत्री के आदेश ने भूस्वामियों के पक्ष में किसी तरह का अधिकार तो निर्मित नहीं किया कि वह राज्य से इस निर्णय को लागू किये जाने की मांग करें।

न्यायमूर्ति एएम सप्रे और न्यायमूर्ति यूयू ललित की पीठ ने कहा, “इस प्रश्न का हमारा जवाब है “नहीं”। पहला, ...सरकारी फाइलों में सिर्फ किसी व्यक्ति से जुड़े मामले के बारे में कोई बात दर्ज करना आवश्यक रूप से सरकार का आतंरिक मामला है और इसका कोई वैधानिक महत्त्व नहीं है; दूसरा,  एक बार जब इस तरह के मुद्दों पर कोई निर्णय हो जाता है और सरकारी अधिकारप्राप्त उचित अधिकारी इसका अनुमोदन कर देते हैं तब राज्य सरकार संबंधित व्यक्ति को इसकी जानकारी देता है।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह की बातों को फ़ाइल में दर्ज करने से किसी व्यक्ति के हित में किसी तरह के अधिकार का निर्माण नहीं होता है और न ही यह क़ानूनी आदेश बनता है कि कोई व्यक्ति इस तरह के आतंरिक बातचीत के आधार पर कोई दावा कर सके।

पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए कहा, “हमारी राय में राजस्व मंत्री जिसने 10 जून 2004 को आदेश दिया, को इस मामले के बारे में किसी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं था। उसने अधिनियम की धारा 48 के तहत अधिकार हड़प लिया था जबकि अधिकार उसके पास नहीं था। उसने अधिकारों का दुरुपयोग किया...”।


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