कॉमन कॉज बनाम भारत संघ की जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने गरिमा के साथ मृत्यु को एक मौलिक अधिकार मानते हुए अनिवारक/अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु को संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल माना है और इसको वैध बताया है। अपनी आसन्न मृत्यु की स्थिति में जिन्दगी को अनावश्यक रूप से लंबा करने के लिए कृत्रिम चिकित्सकीय सहायता को मना करने वाली वसीयत को भी इस फैसले में वैधता प्रदान की गयी है। इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित मैनेजमेंट ऑफ़ पेशेंट विद टर्मिनल इलनेस, विड्रावल ऑफ़ मेडिकल लाइफ सपोर्ट विधेयक का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशानिर्देश भी जारी किये हैं।
जस्टिस काटजू ने 2011 में अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ मामले में अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु की अनुमति दिए जाने पर सहमति व्यक्त की थी लेकिन इस पर व्यापक विचार विमर्श की आवश्यकता पर भी जोर दिया था। उसी क्रम में उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त निर्णय दिया है।
दरअसल पी. रथीराम बनाम भारत संघ (1994) में आत्महत्या को अपराध घोषित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्यु वरण को जीवन के अधिकार में शामिल माना था तथा आपवादिक स्थिति में न्यायालय की कड़ी निगरानी में इसकी अनुमति देने का मंतव्य व्यक्त किया था जिस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी और इसका काफी विरोध हुआ था। और तो और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हेलमेट को अनिवार्य करने वाले ट्रैफिक नियम की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि जब आत्महत्या करना अधिकार है तब ऐसे नियम बेमानी हैं। इसी के तुरंत बाद ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) में रथीराम के निर्णय को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु को असंवैधानिक करार दिया। पांच जजों की संविधान पीठ ने यह राय प्रकट की थी कि मृत्यु वरण का अधिकार जीवन के अधिकार का प्रतिलोमी है तथा जीवन के नैसर्गिक अंत तक गरिमा के साथ जीवन का अधिकार ही अनुच्छेद 21 में अनुमन्य है।
विश्व के कई देशों में इच्छा मृत्यु की अनुमति है। स्विट्ज़रलैंड में तो बाकायदा ऐसे नर्सिंग होम हैं जो लोगों को शांति से मरने की व्यवस्था का वादा करते हैं। जीवन की सांध्य वेला में कई लोग ऐसी व्यवस्था का स्वागत करते हैं तथा परम शांति से महाप्रयाण करते हैं। भारतीय मनीषा में भी सन्यास का प्रावधान है जब लोग सांसारिक क्रिया कलापों से अपने को मुक्त करके घर-परिवार छोड़ जाते हैं। जैन धर्म में 'संथारा" जैसी परिपाटी प्रचलित है जब लोग आसन्न मृत्यु का आलिंगन करने के लिए भोजन-पानी छोड़ कर संसार से विदा लेने के लिए उद्दत होते हैं। विनोबा भावे ने भी इसी प्रकार से अपना शरीर छोड़ा था। "संथारा" को असंवैधानिक परिपाटी घोषित करनेवाले राजस्थान हाई कोर्ट के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है। सद्य निर्णय से उसका वैधानीकरण हो गया है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि संविधान सहित सारे क़ानून न केवल जीवित लोगों के लिए हैं बल्कि गरिमा के साथ जीवन यापन करने के लिए आधार/वातावरण तैयार करते हैं। लेकिन यह भी सही है कि कई बार ऐसी व्याधियां हो जाती हैं कि जीवन दूभर ही नहीं असहनीय बोझ हो जाता है। परिवार तथा संबंधियों से सहायता नहीं मिलती तथा तिल-तिल कर मरने की अपेक्षा मृत्यु वरण ही एकमात्र विकल्प होता है। लेकिन कानून इसकी अनुमति नहीं देता। इस प्रसंग में वेंकटेश प्रकरण का स्मरण करके सिहरन होती है जब एक नवयुवक को असाध्य बीमारी के कारण धीरे-धीरे मरते हुए देख रही माँ ने आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट से अनुमति चाही थी कि उसके बेटे को इच्छा मृत्यु दे दी जाये तथा उसकी आँखों तथा अन्य उपयोगी अंगों को ज़रूरतमंदों को दे दिया जाए। लेकिन न्यायालय ने उनकी अपील ठुकरा दी। यदि अनुमति दी गयी होती तो वेंकटेश आज भी जिन्दा होता!
सद्य प्रकरण पर बहस करते हुए यह भी आशंका व्यक्त की गयी थी कि ऐसी अनुमति का दुरुपयोग हो सकता है। समाचार पत्रों में अक्सर सुर्खियाँ दिखलाई पड़ती हैं जब संपत्ति/अनुकम्पा नियुक्ति आदि के लिए पिता तक की हत्या कर दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ दुरूपयोग की आशंका के आधार पर अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु को अवैध घोषित करने से मना कर दिया, तथा अन्य देशों के उदाहरण को आत्मसात करते हुए इससे सहमति व्यक्त की है। अभी क्रियात्मक इच्छा मृत्यु की अनुमति नहीं दी गयी है।
उपरोक्त के साथ ही जीवित व्यक्तियों द्वारा आसन्न मृत्यु की स्थिति में जिंदगी को अनावश्यक खीचने वाले कृत्रिम उपायों से विरत रहने की इच्छा व्यक्त करने वाली वसीयत को भी वैधता प्रदान कर दी है हालाँकि इसके लिए विशिष्ट दिशानिर्देश भी जारी किये हैं। अभी जटिल प्रक्रिया वाले ऑपरेशनों आदि में रोगी या उसके परिजनों से जोखिम की अनुमति वाला फॉर्म भरवाया जाता है लेकिन पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति द्वारा अपने बारे में की गयी ऐसी वसीयत मान्य नहीं थी। यूं तो मेडिकल साइंस काफी उन्नति कर चुकी है तथा कईयों ने अपने असाध्य रोग से पीड़ित शरीर को इस आशा के साथ फ्रीज़ करा लिया है कि शायद किसी दिन उस रोग का इलाज निकल आये और वे फिर से सामान्य जीवन जीने लायक हो जाएँ। लेकिन मृत्यु एक अटल सत्य है तथा सारे क़ानून मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रियाओं को सामान्य मान कर ही बनाये गए हैं, अतः गरिमा के साथ मृत्यु वरण के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए आईपीसी की धारा 309 सहित कई अन्य प्रावधानों को क़ानून के अनुरूप बना अनिवार्य होगा। इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए भी आवश्यक व्यवस्था करनी होगी। मानव अंग प्रत्यारोपण के वाणिज्यिक उपयोग को रोकने वाले कानून को लागू करने में आ रही दिक्कतों के उदाहरण दृष्टव्य हैं जब बड़े नामी-गरामी अस्पतालों से विचलित करने वाले किस्से प्रायः रोज़ ही सुनने को मिल रहे हैं।
(प्राचार्या, भगवानदीन आर्य कन्या पी. जी. कॉलेज , लखीमपुर–खीरी)