अंडर ट्रायल के तौर पर जेल में गुजारे वक्त पर कैदी को धारा 428 के तहत रिहा किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2017-11-08 10:13 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम त्रिभुवन केस में कहा है कि किसी दोषी के विचाराधीन कैदी के तौर पर और दोषी के तौर पर काटी गई जेल की सजा को उसे दी गई सजा के तौर पर माना जा सकता है और CrPC के धारा 428 के तहत इसका लाभ देते हुए उसे रिहा किया जा सकता है।

दरअसल राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले को सामने रखा था जिसमें उसने एक आरोपी की IPC के सेक्शन 325 और 149 के तहत दोषसिद्धी को बरकरार रखा थी लेकिन उसे दी गई चार साल की सजा को रद्द कर दिया था। इसके बदले में उस पर दस हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया था।

सुप्रीम कोर्ट में दलील दी गई कि आरोपी जेसे ही IPC के सेक्शन 325 के तहत सात साल की सजा तक का प्रावधान है और दोषी करार देते ही इसमें जेल और जुर्माना, दोनों प्रावधान अनिवार्य हैं।

मुख्य दलील ये थी कि हाईकोर्ट अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सजा को कम से कम चार साल तक कर सकता है लेकिन वो इस पूरी जेल की सजा को रद्द नहीं कर सकता और इसके बदलने में दस हजार रुपये जुर्माना नहीं लगा सकता।

जस्टिस आरके अग्रवाल और जस्टिस ए एम सपरे की बेंच ने राज्य सरकार की इस दलील के माना कि हाईकोर्ट को सेशन कोर्ट के द्वारा दी गई गई चार साल की जेल को बरकरार रखना था या  किसी भी वाजिब वक्त तक कम करना था लेकिन उसके पास ये अधिकार नहीं है कि वो पूरी सजा को खत्म कर उसके बदले में दस हजार रुपये का जुर्माना लगाए।

हालांकि बेंच ने महाराष्ट्र सरकार बनाम नजाकत आलिया मुबारक अली मामले को रैफर करते हुए   टिप्पणी की कि दोषी पहले ही विचाराधीन कैदी और सजायाफ्ता के तौर पर 40 दिनों की सजा पूरी कर चुका है। ऐसे में IPC 325 के तहत दी गई जेल की सजा को पूरा माना जा सकता है और उसे CrPC के धारा 428 के तहत इसका लाभ देते हुए उसे रिहा किया जा सकता है।

इसके बाद बेंच ने दोषी को 40 दिनों की सजा सुनाई लेकिन कहा चूंकि वो विचाराधीन कैदी और दोषी के तौर पर ये सजा काट चुका है इसलिए उसे और जेल की सजा काटने की जरूरत नहीं है।


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