S. 482 CrPC | हाईकोर्ट कर्ज या देनदारी की प्री-ट्रायल जांच करके चेक बाउंस मामलों को रद्द नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

19 Dec 2025 7:47 PM IST

  • S. 482 CrPC | हाईकोर्ट कर्ज या देनदारी की प्री-ट्रायल जांच करके चेक बाउंस मामलों को रद्द नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (19 दिसंबर) को कहा कि हाईकोर्ट के लिए विवादित तथ्यों की प्री-ट्रायल जांच करके चेक डिसऑनर की कार्यवाही रद्द करना गलत है, खासकर जब नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (NI Act) की धारा 139 के तहत एक कानूनी अनुमान शिकायतकर्ता के पक्ष में काम करता हो।

    जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने पटना हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए यह बात कही, जिसमें हाईकोर्ट ने CrPC की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए चेक डिसऑनर की शिकायत रद्द कर दी थी।

    बेंच ने कहा,

    “हमारी राय में हाईकोर्ट ने प्री-ट्रायल स्टेज पर कर्ज या देनदारी चुकाने के लिए जारी किए गए चेक के संबंध में एक विस्तृत जांच करके गलती की। हमारी राय में कोड की धारा 482 के तहत शक्ति का इस्तेमाल करते हुए ऐसा करना सही नहीं था, खासकर जब शिकायत के आरोपों से पता चलता है कि चेक देनदारी चुकाने के लिए जारी किया गया। चूंकि NI Act की धारा 138 की ज़रूरी शर्तें शिकायत के आरोपों से पहली नज़र में पूरी होती हैं। हमारी राय में हाईकोर्ट प्री-ट्रायल स्टेज पर न तो समन आदेश और न ही शिकायत रद्द कर सकता है।”

    कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट कानून की स्थापित स्थिति को लागू करने में विफल रहा कि जब किसी शिकायत से पहली नज़र में मामला बनता है तो विवादित तथ्यों की विस्तृत जांच करके मामला रद्द करना गलत है, जिसके लिए ट्रायल में फैसला ज़रूरी है।

    कोर्ट ने दोहराया,

    “कानून यह अच्छी तरह से स्थापित है कि आपराधिक शिकायत और उसके बाद की कार्यवाही को शुरुआती दौर में रद्द करने की प्रार्थना पर विचार करते समय कोर्ट को यह जांचना होता है कि शिकायत में लगाए गए आरोप और उसके समर्थन में मौजूद सामग्री से आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पहली नज़र में मामला बनता है या नहीं। यदि शिकायत के आरोपों को पढ़ने और उसके समर्थन में दायर सामग्री को देखने पर आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पहली नज़र में मामला बनता है तो शिकायत को रद्द नहीं किया जा सकता है, खासकर रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों/सामग्री का मूल्यांकन करके, क्योंकि ऐसे मूल्यांकन का स्टेज ट्रायल होता है।”

    कानून को लागू करते हुए जस्टिस मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में यह कहा गया:

    “हालांकि, हाईकोर्ट ने धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र में यह जांच की कि क्या चेक किसी कर्ज या दूसरी देनदारी को पूरी तरह या आंशिक रूप से चुकाने के लिए जारी किया गया था। हमारी राय में ऐसी जांच की कोई ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि NI Act की धारा 139 के तहत यह माना जाता है कि चेक धारक को धारा 138 में बताए गए नेचर का चेक किसी कर्ज या दूसरी देनदारी को पूरी तरह या आंशिक रूप से चुकाने के लिए मिला है। इस अनुमान को ट्रायल में पेश किए गए सबूतों से चुनौती दी जा सकती थी। इसलिए इस मुद्दे पर सही फैसला या तो ट्रायल के दौरान, या बाद में ट्रायल खत्म होने पर अपीलीय/रिवीजनल कोर्ट द्वारा किया जा सकता था।”

    इसके अनुसार, अपील मंजूर कर ली गई और संबंधित आपराधिक शिकायत को संबंधित मजिस्ट्रेट की फाइल में बहाल कर दिया गया। साथ ही कानून के अनुसार कार्रवाई करने का आदेश दिया गया।

    Cause Title: M/S SRI OM SALES VERSUS ABHAY KUMAR @ ABHAY PATEL & ANR.

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