'जेल तो जेल ही होती है': केरल हाईकोर्ट ने दो व्यक्तियों को झूठे मामले में फंसाने और 50 दिनों से अधिक हिरासत में रखने के लिए राज्य को 2.5-2.5 लाख रुपये मुआवजा देने को कहा

LiveLaw News Network

6 April 2022 2:45 AM GMT

  • केरल हाईकोर्ट

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    केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को राज्य सरकार से कहा है कि वह उन दो व्यक्तियों को 2.50-2.50 लाख रुपये का भुगतान करे, जिन्हें आबकारी के मामलों में झूठा फंसाया गया था और उन्हें 50 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया।

    जस्टिस पी.वी. कुन्हीकृष्णन ने कहा कि यदि बाद में यह पाया जाता है कि हिरासत अवैध थी और व्यक्ति को झूठा फंसाया गया था तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार के उल्लंघन का एक स्पष्ट मामला है और ऐसी स्थितियों में, न्यायालय को कदम उठाना चाहिए और पीड़ित को इसकी क्षतिपूर्ति करनी चाहिए।

    ''जेल में बंद व्यक्ति को ही पता होता है कि उसे किस आघात का सामना करना पड़ा है। भले ही जेल सुंदर दीवारों के साथ बनाई गई हो और इसमें एक अच्छा माहौल हो, परंतु मुआवजा तय करने के लिए इन तथ्यों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया जाता है, क्योंकि जेल हमेशा जेल ही होती है।''

    याचिकाकर्ताओं को दो अलग-अलग आबकारी मामलों के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया और 50 दिनों से अधिक समय तक जेल में रखा गया था। बाद में उन्हें निर्दाेष पाया गया और जांच एजेंसी द्वारा संबंधित अदालत के समक्ष रिपोर्ट दाखिल करने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया।

    अधिवक्ता साबू जॉर्ज और आर.रेजी याचिकाकर्ताओं के लिए उपस्थित हुए और आर्टिकल 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने के मामले में राज्य से मुआवजे दिलाने की मांग की। उन्होंने तर्क दिया कि याचिकाकर्ताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को राज्य के अधिकारियों द्वारा अवैध रूप से प्रतिबंधित किया गया था और ऐसी परिस्थितियों में, राज्य याचिकाकर्ताओं को मुआवजा देने के लिए बाध्य है।

    हालांकि, वरिष्ठ सरकारी वकील दीपा नारायणन ने जोर देकर कहा कि राज्य याचिकाकर्ताओं को मुआवजे का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार नहीं है क्योंकि यह केवल कुछ आबकारी अधिकारियों की ओर से कर्तव्य की अवहेलना करने का मामला है और उनके खिलाफ उचित अनुशासनात्मक कार्यवाही पहले ही की जा चुकी है।

    इसके अलावा, सरकारी वकील ने यह भी प्रस्तुत किया कि न्यायालय आर्टिकल 226 के तहत ऐसी याचिकाओं पर विचार नहीं कर सकता है क्योंकि राज्य अपने मामले को साबित करने के लिए सबूत पेश करने में सक्षम नहीं हो सकता है। इसलिए याचिकाकर्ताओं को सिविल कोर्ट के समक्ष एक मुकदमा दायर करना चाहिए ताकि दोनों पक्षों को सबूत पेश करने का मौका मिल सके।

    अन्य प्रतिवादियों की ओर से अधिवक्ता एच.बी.शेनॉय, मैथ्यू बी. कुरियन और सी. उन्नीकृष्णन उपस्थित हुए।

    न्यायालय ने कहा कि यह एक स्थापित स्थिति है कि जब मौलिक अधिकार का उल्लंघन स्थापित हो जाता है, तो संवैधानिक न्यायालय को केवल एक घोषणा देकर नहीं रुकना चाहिए; इसे आगे बढ़ना चाहिए और क्षतिपूर्ति की राहत प्रदान करनी चाहिए। यह राहत नुकसान के रूप में नहीं, जैसा कि एक सिविल कार्रवाई के रूप में होता है, बल्कि नागरिक के जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा नहीं करने के लिए राज्य द्वारा सार्वजनिक कर्तव्य का उल्लंघन करने के कारण किए गए गलत काम के लिए सार्वजनिक कानून के अधिकार क्षेत्र के तहत मुआवजे के रूप में दी जानी चाहिए।

    इसके अलावा, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा, 1966 (आईसीसीपीआर)के अनुच्छेद 9(5) में कहा गया है कि जो कोई भी गैरकानूनी गिरफ्तारी या नजरबंदी का शिकार हुआ है, उसे मुआवजे के लिए एक लागू करने योग्य अधिकार होगा। हालांकि भारत ने इस वाचा का समर्थन नहीं किया है, लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्णयों की एक श्रृंखला में उपरोक्त अधिकार को मंजूरी दी है।

    वर्तमान मामले में यह स्पष्ट है कि जांच अधिकारी ने याचिकाकर्ताओं को झूठा फंसाया था। ऐसी परिस्थितियों में, यह माना जाता है कि आर्टिकल 21 के उल्लंघन को निर्धारित करने के लिए किसी अन्य सबूत की आवश्यकता नहीं है।

    चूंकि यह स्पष्ट है कि इन मामलों में आर्टिकल 21 का उल्लंघन किया गया था, जस्टिस कुन्हीकृष्णन ने कहा कि राज्य याचिकाकर्ताओं को मुआवजे का भुगतान करने के लिए बाध्य है और इस राशि को अवैध कारावास के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों से वसूल किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि कर देने वाले नागरिक इस दायित्व के बोझ तले नहीं दबने चाहिए।

    मुआवजे की राशि के बारे में कोर्ट ने कहा कि यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए तय किया जाना चाहिए। यह भी कहा गया कि इन मामलों में याचिकाकर्ताओं को हुए मानसिक आघात की भरपाई पैसे के माध्यम से करने के लिए मुआवजे का निर्धारण नहीं किया जा सकता है।

    महात्मा गांधी ने अपने जेल अनुभव को इन शब्दों में साझा कियाः ''जेल में आदमी ''सभ्य रूप से मृत'' हैं और नीति में कुछ भी कहने का कोई दावा नहीं है।'' रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले महान सेनानी नेल्सन मंडेला ने अपने जेल जीवन का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में कियाः ''कोई भी वास्तव में किसी राष्ट्र को तब तक नहीं जानता है,जब तक कि वह उसकी जेल के अंदर न रहा हो। एक राष्ट्र को इस बात से नहीं आंका जाना चाहिए कि वह अपने उच्चतम नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है, बल्कि उसके सबसे निचले स्तर वालों से कैसा व्यवहार किया जाता है,यह देखना जरूरी है।'' मुमिया अबू जमाल नाम के एक अमेरिकी पत्रकार ने अपने जेल जीवन के बारे में निम्नलिखित कहाः ''जेल आत्मा पर दूसरा हमला है, स्वयं का दिन-प्रतिदिन क्षरण, एक दमनकारी स्टील और ईंट की छतरी है,जो सेकंड को घंटों में बदल देती है और घंटों को दिनों में।''

    इसलिए, राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह प्रत्येक याचिकाकर्ता को 2,50,000 रुपये की राशि का भुगतान करे और याचिकाकर्ताओं को यह स्वतंत्रता दी गई है कि अगर वह मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों में अधिक मुआवजे के हकदार हैं तो वह सक्षम दीवानी अदालत के समक्ष केस दायर कर सकते हैं।

    गौरतलब है कि न्यायालय ने राज्य में आबकारी मामलों में तलाशी, जब्ती, गिरफ्तारी आदि से संबंधित एक गंभीर प्रश्न पर भी विचार किया और कहा कि राज्य सरकार को इस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए।

    इस कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा के आदेश के खिलाफ दायर आपराधिक अपीलों पर सुनवाई करते हुए यह पाया है कि पचास प्रतिशत मामलों में एक ही स्टीरियोटाइप आरोप लगाए जाते हैं। ज्यादातर मामलों में, आरोपी को आबकारी अधिकारियों द्वारा एक जीप में बैठते हुए पकड़ा गया था और उनके पास एक कैन मिली थी,जिसमें वर्जित मादक पदार्थ था। कहा जाता है कि अधिकारियों को देखकर, व्यक्तियों ने भागने का प्रयास किया, लेकिन अधिकारियों ने उन्हें पकड़ लिया। कोर्ट ने कहा कि कई आबकारी मामलों में यह एक नियमित पैटर्न रहा है।

    अतः यह पाया गया कि कम से कम विगत 5 वर्षों से आबकारी प्रकरणों में जिस प्रकार से गिरफ्तारी, जब्ती, अन्वेषण आदि किए गए हैं, उसकी राज्य द्वारा नियुक्त किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा विस्तृत अध्ययन या जांच कराने की आवश्यकता है और जांच के तरीके में भी बदलाव की जरूरत है।

    अदालत ने कहा कि यह अनिवार्य है क्योंकि आबकारी मामलों में जो सजा दी जा सकती है वह गंभीर है और आबकारी अधिनियम की धारा 41 ए के तहत एक आरोपी को जमानत देने के लिए गंभीर प्रतिबंध लगाए गए हैं।

    ''आबकारी के एक मामले में आरोपी के खिलाफ आरोप लगाए जाने के बाद, आरोपी को रिहा करने का न्यायालय का अधिकार क्षेत्र बहुत सीमित होता है। यह न्यायालय और सत्र न्यायालय सीआरपीसी की धारा 438 के तहत शक्तियों का प्रयोग आबकारी मामलों में शायद ही कभी करते हैं। बेशक , ये प्रतिबंध अपराध की गंभीर प्रकृति और शराब के अवैध निर्माण को समाप्त करने के लिए लगाए गए हैं। परंतु ऐसी स्थिति में, निजी विवादों के कारण निर्दाेष व्यक्तियों के खिलाफ कोई झूठे आरोप नहीं लगाए जा सकते है।''

    न्यायाधीश ने कहा कि अगर इस प्रणाली को अनुमति दी गई तो यदि किसी आबकारी अधिकारी की किसी व्यक्ति के साथ कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है तो वह आसानी से उन्हें एक आरोपी के रूप में फंसा सकता है क्योंकि मादक पदार्थों के मामलों की तरह इन मामलों में राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में आरोपी की तलाशी की आवश्यकता नहीं है।

    हालांकि, इस बात पर जोर दिया गया कि आबकारी अधिनियम की धारा 36 के अनुसार, सीआरपीसी के अनुसार ही तलाशी की जानी चाहिए, बशर्ते कि जिन व्यक्तियों को इस तरह की तलाशी में शामिल होने और देखने के लिए बुलाया गया हो, उनमें कम से कम दो व्यक्ति शामिल हों, जिनमें से कोई भी आबकारी, पुलिस या ग्राम अधिकारी नहीं होना चाहिए।

    कोर्ट ने कहा कि अगर निपटाए गए आबकारी मामलों पर स्टडी की जाए तो पता चलेगा कि ज्यादातर मामलों में स्वतंत्र गवाह मुकर गए थे। जब लगभग सभी मामलों में स्वतंत्र गवाह मुकर जाते हैं, तो यह एक गंभीर चिंता का विषय है,जिस पर सरकार और विधायिका द्वारा विचार किया जाना चाहिए।

    इसलिए राज्य में आबकारी मामलों की जिस प्रकार तलाशी, जब्ती एवं अन्वेषण किया जाता है, उस पर सरकार/विधानमंडल द्वारा समुचित अध्ययन अथवा जांच कराकर पुनःविचार किया जाना चाहिए और उसके आधार पर, यदि आवश्यक हो, आबकारी अधिनियम में उचित संशोधन किया जाना चाहिए।

    हालांकि यह नोट किया गया कि न्यायालय विधानमंडल को एक कानून का मसौदा तैयार करने का निर्देश नहीं दे सकता है। कोर्ट ने सिर्फ सरकार और विधायिका के समक्ष गंभीर मुद्दों को उठाया है,जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

    अतः याचिकाओं को स्वीकार करते हुए इस निर्णय की एक प्रति विस्तृत अध्ययन/जांच के लिए सरकार के मुख्य सचिव को अग्रेषित करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही कहा गया है कि छह महीने के भीतर राज्य द्वारा की गई कार्रवाई की रिपोर्ट इस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाए।

    केस का शीर्षक- अनिल कुमार ए.बी बनाम केरल राज्य व अन्य

    साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (केरल) 163

    निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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